NCERT Solutions | Class 12 History Chapter 11

NCERT Solutions | Class 12 History Vishwa Itihas Ke Kuch Vishay Chapter 11 | Rebels and the Raj The Revolt of 1857 and its Representations 

NCERT Solutions for Class 12 History Vishwa Itihas Ke Kuch Vishay Chapter 11 Rebels and the Raj The Revolt of 1857 and its Representations

CBSE Solutions | History Class 12

Check the below NCERT Solutions for Class 12 History Vishwa Itihas Ke Kuch Vishay Chapter 11 Rebels and the Raj The Revolt of 1857 and its Representations Pdf free download. NCERT Solutions Class 12 History  were prepared based on the latest exam pattern. We have Provided Rebels and the Raj The Revolt of 1857 and its Representations Class 12 History NCERT Solutions to help students understand the concept very well.

NCERT | Class 12 History Vishwa Itihas Ke Kuch Vishay

NCERT Solutions Class 12 History
Book: National Council of Educational Research and Training (NCERT)
Board: Central Board of Secondary Education (CBSE)
Class: 12
Subject: History
Chapter: 11
Chapters Name: Rebels and the Raj The Revolt of 1857 and its Representations
Medium: Hindi

Rebels and the Raj The Revolt of 1857 and its Representations | Class 12 History | NCERT Books Solutions

You can refer to MCQ Questions for Class 12 History Vishwa Itihas Ke Kuch Vishay Chapter 11 Rebels and the Raj The Revolt of 1857 and its Representations to revise the concepts in the syllabus effectively and improve your chances of securing high marks in your board exams.

NCERT Solutions for Class 12 History Chapter 11 (Hindi Medium)

NCERT Solutions for Class 12 History Chapter 11 Rebels and the Raj The Revolt of 1857 and its Representations (Hindi Medium)

अभ्यास-प्रश्न
(NCERT Textbook Questions Solved)

उत्तर दीजिए (लगभग 100 से 150 शब्दों में)

प्रश्न 1.
बहुत सारे स्थानों पर विद्रोही सिपाहियों ने नेतृत्व सँभालने के लिए पुराने शासकों से क्यों आग्रह किया?
उत्तर:
1857 ई० की महान क्रान्ति, जिसे ‘भारत का प्रथम स्वतंत्रता संग्राम’, ‘सैनिक विद्रोह’, ‘हिन्दू-मुस्लिम संगठित षड्यंत्र’ आदि नामों से भी जाना जाता है, का बिगुल सैनिकों ने बजाया और चर्बी वाले कारतूसों का मामला विद्रोह का तात्कालिक कारण बना। किन्तु शीघ्र ही यह विद्रोह जन-विद्रोह बन गया। लाखों कारीगरों, किसानों और सिपाहियों ने कंधे से कंधा मिलाकर एक वर्ष से भी अधिक समय तक ब्रिटिश सत्ता के विरुद्ध संघर्ष किया। विद्रोहियों का प्रमुख उद्देश्य था- भारत से ब्रिटिश सत्ता को उखाड़ फेंकना। वास्तव में, विद्रोही सिपाही भारत से ब्रिटिश सत्ता को समाप्त करके देश में 18वीं शताब्दी की पूर्व ब्रिटिश व्यवस्था की पुनस्र्थापना करना चाहते थे। ब्रिटिश शासकों ने भारतीय राजघरानों का अपमान किया था। साधनों के औचित्य अथवा अनौचित्य की कोई परवाह न करते हुए कहीं छल, कहीं बल, तो कहीं बिना किसी आड़ के ही अधिकाधिक भारतीय राज्यों एवं रियासतों का विलय अंग्रेजी साम्राज्य में कर लिया गया था। परिणामस्वरूप, उनमें ब्रिटिश शासन के विरुद्ध घोर असंतोष व्याप्त था।

विशाल संसाधनों के स्वामी अंग्रेजों का सामना करने के लिए नेतृत्व और संगठन की अत्यधिक आवश्यकता थी। नि:संदेह, योग्य नेतृत्व और संगठन के बिना विद्रोह का कुशलतापूर्वक संचालन नहीं किया जा सकता था। इन उद्देश्यों की पूर्ति के लिए विद्रोही ऐसे लोगों की शरण में गए, जो भारत में ब्रिटिश शासन की स्थापना से पहले नेताओं की भूमिका निभाते थे और जिन्हें नेतृत्व एवं संगठन के क्षेत्र में अच्छा अनुभव था। इसलिए विद्रोही सिपाहियों ने अनेक स्थानों पर पुराने शासकों को विद्रोह का नेतृत्व सँभालने के लिए आग्रह किया। मेरठ में विद्रोह करने के बाद सिपाहियों ने तत्काल दिल्ली की ओर प्रस्थान कर दिया था। दिल्ली मुग़ल साम्राज्य की राजधानी थी और मुग़ल सम्राट बहादुर शाह द्वितीय दिल्ली में निवास करता था।

दिल्ली पहुँचते ही सिपाहियों ने वृद्ध मुग़ल सम्राट से विद्रोह का नेतृत्व सँभालने का अनुरोध किया था, जिसे सम्राट ने कुछ हिचकिचाहट के बाद स्वीकार कर लिया था। इसी प्रकार, कानपुर में सिपाहियों और शहर के लोगों ने पेशवा बाजीराव द्वितीय के उत्तराधिकारी नाना साहिब को अपना नेता बनाया था। उनकी दृष्टि में नाना साहिब एक योग्य और अनुभवी नेता थे, जिन्हें नेतृत्व एवं संगठन का पर्याप्त अनुभव था। इसी प्रकार, झाँसी में रानी लक्ष्मीबाई, बिहार में आरा के स्थानीय जमींदार कुँवरसिंह और लखनऊ में अवध के नवाब वाजिद अली शाह के युवा पुत्र बिरजिस कादर को विद्रोह का नेता घोषित किया गया था। पुराने शासकों को विद्रोह का नेतृत्व करने का आग्रह करके सिपाही विद्रोह को एक व्यापक जन विद्रोह बनाना चाहते थे। जनसाधारण को अपने पुराने शासकों से पर्याप्त लगाव था। उन्हें लगता था कि ब्रिटिश शासकों ने अनुचित रूप से उन्हें उनकी सत्ता से वंचित कर दिया था। ऐसे शासकों का नेतृत्व उनके विद्रोह को शक्तिशाली और जनप्रिय बना सकता था।

प्रश्न 2.
उन साक्ष्यों के बारे में चर्चा कीजिए जिनसे पता चलता है कि विद्रोही योजनाबद्ध और समन्वित ढंग से काम कर रहे थे?
उत्तर:
1857 ई० के महान विद्रोह से संबंधित उपलब्ध साक्ष्यों के आधार पर विद्वान इतिहासकारों का विचार है कि विद्रोही योजनाबद्ध
एवं समन्वित ढंग से काम कर रहे थे। भिन्न-भिन्न स्थानों पर होने वाले विद्रोहों के प्रारूप में उपलब्ध समानता का मुख्य कारण विद्रोह की योजना एवं समन्वय में निहित था। लगभग सभी छावनियों में सिपाहियों द्वारा चर्बी वाले कारतूसों के विरुद्ध विद्रोह किया जाना, मेरठ पर अधिकार करने के बाद विद्रोही सिपाहियों का तत्काल राजधानी दिल्ली की ओर प्रस्थान करना तथा मुगल सम्राट बहादुरशाह द्वितीय को नेतृत्व सँभालने का आग्रह करना आदि यह सिद्ध करने के लिए पर्याप्त है कि विद्रोहियों की कार्य पद्धति योजनाबद्ध और समन्वित थी। प्रत्येक स्थान पर विद्रोह का घटना क्रम लगभग एक जैसा था। उपलब्ध साक्ष्यों के आधार पर यह भली-भाँति कहा जा सकता है कि भिन्न-भिन्न छावनियों के सिपाहियों के मध्य अच्छा संचार संबंध स्थापित किया गया था।

उदाहरण के लिए, जब मई के प्रारंभ में सातवीं अवध इर्रेग्युलर कैवेलरी ने नये कारतूसों का प्रयोग करने से इनकार कर दिया तो उन्होंने 48 नेटिव इन्फेंट्री को लिखा था कि-“हमने अपने धर्म की रक्षा के लिए यह फैसला लिया है और 48 इन्फेंट्री के आदेश की प्रतीक्षा कर रहे हैं। इससे स्पष्ट हो जाता है कि विभिन्न छावनियों के मध्य संचार के साधन विद्यमान थे। सिपाही अथवा उनके संदेशवाहक एक स्थान से दूसरे स्थान पर समाचारों को लाने और ले जाने का काम कुशलतापूर्वक कर रहे थे। परस्पर मिलने पर सिपाही केवल विद्रोह की योजनाएँ बनाते थे और उसी विषय में बातें करते थे।

यद्यपि उपलब्ध दस्तावेज़ों के आधार पर यह कहना कठिन है कि विद्रोह की योजनाओं को किस प्रकार बनाया गया था और इनके योजनाकार कौन थे? किंतु उपलब्ध साक्ष्यों के आधार पर यह सुनिश्चित रूप से कहा जा सकता है कि विद्रोह की योजना सुनियोजित रूप से की गई थी। चार्ल्स बाल, जो विद्रोह के प्रारंभिक इतिहासकारों में से एक थे, ने उल्लेख किया है कि प्रत्येक रेजीमेंट के देशी अफसरों की अपनी पंचायतें होती थीं जो रात को आयोजित की जाती थीं। इन पंचायतों में विद्रोह संबंधी महत्त्वपूर्ण निर्णयों को सामूहिक रूप से लिया जाता था। उदाहरण के लिए, विद्रोह के दौरान अवध मिलिट्री पुलिस के कैप्टन हियर्स की सुरक्षा का उत्तरदायित्व भारतीय सिपाहियों पर था।

जिस स्थान पर कैप्टन हियर्स नियुक्त था; उसी स्थान पर 41 वीं नेटिव इन्फेंट्री भी नियुक्त थी। इन्फेंट्री का तर्क था कि क्योंकि वे अपने सभी गोरे अफसरों को समाप्त कर चुके हैं, इसलिए अवध मिलिट्री को भी यह कर्तव्य है कि या तो वे हियर्स को समाप्त कर दें या उसे कैद करके 41 वीं नेटिव इन्फेंट्री को सौंप दे। किंतु मिलिट्री पुलिस ने इन दोनों दलीलों को स्वीकार नहीं किया। अतः यह निश्चय किया गया कि इस विषय के समाधान के लिए प्रत्येक रेजीमेंट के देशी अफसरों की एक पंचायत को बुलाया जाए। समकालीन साक्ष्यों में रात के समय कानपुर सिपाही लाइनों में आयोजित की जाने वाली इस प्रकार की पंचायतों का उल्लेख मिलता है। इन सभी लाक्ष्यों से स्पष्ट होता है कि विद्रोही योजनाबद्ध एवं समन्वित ढंग से काम कर रहे थे।

प्रश्न 3.
1857 के घटनाक्रम को निर्धारित करने में धार्मिक विश्वासों की किस हद तक भूमिका थी?
उत्तर:
1857 के घटनाक्रम को निर्धारित करने में धार्मिक विश्वासों की अहम् भूमिका थी। बैरकपुर की एक घटना ऐसी ही थी जिसका संबंध गाय और सूअर की चर्बी लिपटे कारतूसों से था। जब मेरठ छावनी में अंग्रेज़ अधिकारियों ने भारतीय सैनिकों को चर्बी लिपटे कारतूस को मुँह से खोलने के लिए मजबूर किया तो मेरठ के सिपाहियों ने सभी फिरंगी अधिकारियों को मार दिया और हिंदू और मुसलमान सभी सैनिक अपने धर्म को भ्रष्ट होने से बचाने के तर्क के साथ दिल्ली में आ गए थे। हिंदू और मुसलमानों को एकजुट होने और फिरंगियों का सफाया करने के लिए कई भाषाओं में अपीलें जारी की गईं। विद्रोह का संदेश कुछ स्थानों पर आम लोगों के द्वारा, तो कुछ स्थानों पर धार्मिक लोगों के द्वारा फैलाए गए।

उदाहरण के लिए मेरठ के बारे में इस प्रकार की खबर फैली थी कि वह हाथी पर सवार एक फकीर आता है जिससे सिपाही बार-बार मिलने आते हैं। लखनऊ में अवध पर कब्जे के बाद बहुत सारे धार्मिक नेता और स्वयंभू ‘पैगंबर’ प्रचारक ब्रिटिश राज को समाप्त करने की अलख जगा रहे थे। सिपाहियों ने जगह-जगह छावनियों में कहलवाया कि यदि वे गाय और सूअर की चर्बी के कारतूसों को मुँह से लगाएँगे तो उनकी जाति और धर्म दोनों भ्रष्ट हो जाएँगे। अंग्रेजों ने सिपाहियों को बहुत समझाया, लेकिन वे टस-से-मस नहीं हुए।

1857 के प्रारंभ में एक अफवाह यह भी जोरों पर थी कि अंग्रेज सरकार ने हिंदू धर्म और मुस्लिम धर्म को नष्ट करने के लिए एक साजिश रच ली है। कुछ राष्ट्रवादी लोगों ने यह भी अफ़वाह उड़ा दी कि बाजार में मिलने वाले आटे में गाय और सूअर का चूरा अंग्रेज़ों ने मिलवा दिया है। लोगों में यह डर फैल गया कि अंग्रेज़ हिंदुस्तानियों को ईसाई बनाना चाहते हैं। कुछ योगियों ने धार्मिक स्थानों, दरगाहों और पंचायतों के माध्यम से इस भविष्यवाणी पर बल दिया कि प्लासी के 100 साल पूरा होते ही अंग्रेजों का राज 23 जून, 1857 को खत्म हो जाएगा। कुछ लोग गाँव में शाम के समय चपाती बँटवाकर यह धार्मिक शक फैला रहे थे कि अंग्रेजों का शासन किसी उथल-पुथल का संकेत है।

प्रश्न 4.
विद्रोहियों के बीच एकता स्थापित करने के लिए क्या तरीके अपनाए गए? ।
उत्तर:
विद्रोहियों के बीच एकता स्थापित करने के लिए निम्न तरीके अपनाए गए

1. गाय और सूअर की चर्बी के कारतूस, आटे में सूअर और गाय की हड्डियों का चूरा, प्लासी की लड़ाई के 100 साल पूरे होते ही भारत से अंग्रेजों की वापसी जैसी खबरों ने हिंदू-मुसलमानों की धार्मिक भावनाओं को समान रूप से उत्तेजित करके उन्हें एकजुट किया। अनेक स्थानों पर विद्रोहियों ने स्त्रियों और पुरुषों दोनों का सहयोग लिया ताकि समाज में लिंग भेदभाव कम हो।

2. हिंदू और मुसलमानों ने मिलकर मुग़ल सम्राट बहादुर शाह का आशीर्वाद प्राप्त किया ताकि विद्रोह को वैधता प्राप्त हो सके | और मुग़ल बादशाह के नाम से विद्रोह को चलाया जा सके।

3. विद्रोहियों ने मिलकर अपने शत्रु फिरंगियों का सामना किया। उन्होंने दोनों समुदायों में लोकप्रिय तीन भाषाओं-हिंदी, उर्दू और फ़ारसी में अपीलें जारी कीं।

4. बहादुरशाह के नाम से जारी की गई घोषणा में मुहम्मद और महावीर, दोनों की दुहाई देते हुए जनता से इस लड़ाई में शामिल होने का आह्वान किया गया। दिलचस्प बात यह है कि आंदोलन में हिंदू और मुसलमानों के बीच खाई पैदा करने की अंग्रेजों द्वारा की गई कोशिशों के बाबजूद ऐसा कोई फर्क नहीं दिखाई दिया। अंग्रेज़ शासन ने दिसंबर, 1857 में पश्चिमी उत्तर प्रदेश में स्थित बरेली के हिंदुओं को मुसलमानों के खिलाफ़ भड़काने के लिए 50,000 रुपये खर्च किए। लेकिन उनकी यह कोशिश नाकामयाब रही।

5. 1857 के विद्रोह को एक ऐसे युद्ध के रूप में पेश किया जा रहा था जिसमें हिंदुओं और मुसलमानों, दोनों का नफा-नुकसान बराबर था। इश्तहारों में अंग्रेजों से पहले के हिंदू-मुस्लिम अतीत की ओर संकेत किया जाता था और मुग़ल साम्राज्य के तहत विभिन्न समुदायों के सह-अस्तित्व को गौरवगान किया जाता था।

6. विद्रोहियों ने कई संचार माध्यमों का प्रयोग किया। सिपाही या उनके संदेशवाहक एक स्थान से दूसरे स्थान पर जा रहे थे। विद्रोहियों ने कार्यवाही को समरूपता, एक जैसी योजना और समन्वय स्थापित किया ताकि लोगों में एकता पैदा हो।

7. अनेक स्थानों पर सिपाही अपनी लाइनों में रात के समय पंचायतें करते थे, जहाँ सामूहिक रूप से कई फैसले लिए जाते थे। वे अपनी-अपनी जाति और जीवन-शैली के बारे में निर्णय लेते थे। झाँसी की रानी लक्ष्मीबाई को और कानपुर के पेशवा नाना साहिब को मुस्लिम और हिंदू सिपाहियों ने साहस और वीरता का प्रतीक बनाया ताकि सभी लोग एक मंच पर आकर ब्रिटिश राज्य के खिलाफ लड़ सकें।

8. मुस्लिम शहजादों अथवा नवाबों की ओर से अथवा उनके नाम पर जारी की गई घोषणाओं में हिंदुओं की भावनाओं का भी आदर किया जाता था एवं उनका समान रूप से ध्यान रखा जाता था।

9. सूदखोरों, सौदागरों और साहूकारों को बिना धार्मिक भेदभाव किए सभी लोगों ने मिलकर इसलिए लूटा ताकि पिछड़े और गरीब लोग उनसे बदला ले सकें और विद्रोहियों की संख्या आम लोगों के विद्रोह में शामिल होने से बढ़ सके।

10. जन सामान्य को यह विश्वास दिला दिया गया कि अंग्रेज़ संपूर्ण भारत का ईसाईकरण करना चाहते हैं। इस प्रकार जन सामान्य को यह प्रेरणा दी गई कि सब एक होकर धर्म और जाति के भेदभाव को भूलकर अपनी अस्मिता के लिए ब्रिटिश शासन के विरुद्ध छेड़े गए संघर्ष में भाग लें।

प्रश्न 5.
अंग्रेज़ों ने विद्रोह को कुचलने के लिए क्या कदम उठाए?
उत्तर:
अंग्रेज़ों ने विद्रोह को कुचलने के लिए निम्नलिखित कदम उठाए

  1. दिल्ली को कब्जे में लेने की अंग्रेजों की कोशिश जून, 1857 में बड़े पैमाने पर शुरू हुई, लेकिन यह मुहिम सितंबर के आखिर में जाकर पूरी हो पाई। दोनों तरफ से जमकर हमले किए गए और दोनों पक्षों को भारी नुकसान उठाना पड़ा। इसकी एक वजह यह थी कि पूरे उत्तर भारत के विद्रोही राजधानी को बचाने के लिए दिल्ली में आ जमे थे।
  2. कानून और मुकदमे की सामान्य प्रक्रिया रद्द कर दी गई थी और यह स्पष्ट कर दिया गया था कि विद्रोही की केवल एक सजा | हो सकती है सजा-ए-मौत।।
  3. उत्तर भारत को दोबारा जीतने के लिए सेना की कई टुकड़ियों को रवाना करने से पहले अंग्रेजों ने उपद्रव शांत करने के लिए। फौजियों की आसानी के लिए कानून पारित कर दिए थे।
  4. मई और जून, 1857 में पास किए गए कानूनों के द्वारा न केवल समूचे उत्तर भारत में मार्शल लॉ लागू कर दिया गया बल्कि फौजी अफसरों और यहाँ तक कि आम अंग्रेजों को भी ऐसे हिंदुस्तानियों पर भी मुकदमा चलाने और उनको सजा देने का अधिकार दे दिया गया जिन पर विद्रोह में शामिल होने का शक मात्र था।
  5. नए विशेष कानूनों और ब्रिटेन से मँगाई गई नयी सैन्य टुकड़ियों से लैस अंग्रेज सरकार ने विद्रोह को कुचलने का काम शुरू | कर दिया। विद्रोहियों की तरह वे भी दिल्ली के सांकेतिक महत्त्व को बखूबी समझते थे। लिहाजा, उन्होंने दोतरफा हमला बोल दिया। एक तरफ कोलकाता से, दूसरी तरफ पंजाब से दिल्ली की तरफ कूच हुआ।
  6. अंग्रेजों ने कूटनीति का सहारा लेकर शिक्षित वर्ग और जमींदारों को विद्रोह से दूर रखा। उन लोगों ने जमींदारों को जागीरें वापस लौटाने का आश्वासन दिया।
  7. अंग्रेजों ने संचार सांधनों पर अपना पूर्ण नियंत्रण बनाए रखा। परिणामस्वरूप विद्रोह की सूचना मिलते ही वे उचित कार्यवाही करके विद्रोहियों की योजनाओं को विफल कर देते थे।

निम्नलिखित पर एक लघु निबंध लिखिए (लगभग 250-300 शब्दों में)

प्रश्न 6.
अवध में विद्रोह इतना व्यापक क्यों था? किसान, ताल्लुक़दार और ज़मींदार उसमें क्यों शामिल हुए?
उत्तर:
अवध में विद्रोह का व्यापक प्रसार हुआ और यह विदेशी शासन के विरुद्ध लोक-प्रतिरोध की अभिव्यक्ति बन गया। किसानों, ताल्लुकदारों और जमींदारों सभी ने इसमें भाग लिया। अवध में विद्रोह का सूत्रपात लखनऊ से हुआ, जिसका नेतृत्व बेगम हजरत महल द्वारा किया गया। बेगम ने 4 जून, 1857 ई० को अपने अल्पवयस्क पुत्र बिरजिस कादर को अवध का नवाब घोषित करके अंग्रेजों के विरुद्ध संघर्ष प्रारंभ कर दिया। अवध के ज़मींदारों, किसानों तथा सैनिकों ने बेग़म की मदद की। विद्रोहियों ने असीम वीरता का परिचय देते हुए 1 जुलाई, 1857 ई० को ब्रिटिश रेजीडेंसी का घेरा डाल दिया और शीघ्र ही सम्पूर्ण अवध में क्रान्तिकारियों की पताका फहराने लगी। अवध में विद्रोह के व्यापक प्रसार का सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण कारण यह था कि इस क्षेत्र में ब्रिटिश शासन ने राजकुमारों, ताल्लुकदारों, किसानों तथा सिपाहियों सभी को समान रूप से प्रभावित किया था। सभी ने अवध में ब्रिटिश शासन की स्थापना के परिणामस्वरूप अनेक प्रकार की पीड़ाओं को अनुभव किया था।

सभी के लिए अवध में ब्रिटिश शासन का आगमन एक दुनिया की समाप्ति का प्रतीक बन गया था। जो चीजें लोगों को बहुत प्रिय थीं, वे उनकी आँखों के सामने ही छिन्न-भिन्न हो रही थीं। 1857 ई० का विद्रोह मानो उनकी सभी भावनाओं, मुद्दों, परम्पराओं एवं निष्ठाओं की अभिव्यक्ति का स्रोत बन गया था। अवध के ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी के साम्राज्य में विलय से केवल नवाब ही अपनी गद्दी से वंचित नहीं हुआ था, अपितु इसने इस क्षेत्र के ताल्लुकदारों को भी उनकी शक्ति, सम्पदा एवं प्रभाव से वंचित कर दिया था। उल्लेखनीय है कि ताल्लुकदारों का चिरकाल से अपने-अपने क्षेत्र में महत्त्वपूर्ण स्थान था। अवध के सम्पूर्ण देहाती क्षेत्र में ताल्लुकदारों की जागीरें एवं किले थे। उनका अपने-अपने क्षेत्र की ज़मीन और सत्ता पर प्रभावशाली नियंत्रण था। भारत में ब्रिटिश शासन की स्थापना से पहले ताल्लुकदारों के अपने किले और हथियारबंद सैनिक होते थे। कुछ बड़े ताल्लुकदारों के पास 12,000 तक पैदल सिपाही होते थे। छोटे-छोटे ताल्लुकदारों के पास भी लगभग 200 सिपाही तो होते ही थे। अवध के विलय के तत्काल पश्चात् ताल्लुकदारों के दुर्गों को नष्ट कर दिया गया तथा उनकी सेनाओं को भंग कर दिया गया। परिणामस्वरूप ब्रिटिश शासन के विरुद्ध ताल्लुकदारों और जमींदारों का असंतोष अपनी चरम सीमा पर पहुँच गया।

ब्रिटिश भू-राजस्व नीति ने भी ताल्लुकदारों की शक्ति एवं प्रभुसत्ता पर प्रबल प्रहार किया। अवध के अधिग्रहण के बाद ब्रिटिश शासन ने वहाँ भू-राजस्व के ‘एकमुश्त बन्दोबस्त’ को लागू किया। इस बन्दोबस्त के अनुसार ताल्लुकदारों को केवल बिचौलिए अथवा मध्यस्थ माना गया जिनके ज़मीन पर मालिकाना हक नहीं थे। इस प्रकार इस बन्दोबस्त के अंतर्गत ताल्लुकदारों को उनकी जमीनों से वंचित किया जाने लगा। उपलब्ध साक्ष्यों से पता चलता है कि अधिग्रहण से पहले अवध के 67 प्रतिशत गाँव ताल्लुकदारों के अधिकार में थे, किन्तु एकमुश्त बन्दोबस्त लागू किए जाने के बाद उनके अधिकार में केवल 38 प्रतिशत गाँव रह गए। दक्षिण अवध के ताल्लुकदारों के 50 प्रतिशत से भी अधिक गाँव उनके हाथों से निकल गए। ताल्लुकदारों को उनकी सत्ता से वंचित कर दिए जाने के कारण एक सम्पूर्ण सामाजिक व्यवस्था नष्ट हो गई। किसानों को ताल्लुकदारों के साथ बाँधने वाले निष्ठा और संरक्षण के बंधन नष्ट-भ्रष्ट हो गए। उल्लेखनीय है कि यदि ताल्लुकदार जनता का उत्पीड़न करते थे तो विपत्ति की घड़ी में एक दयालु अभिभावक के समान वे उसकी देखभाल भी करते थे।

अवध के अधिग्रहण के बाद मनमाने राजस्व आकलन एवं गैर-लचीली राजस्व व्यवस्था के कारण किसानों की स्थिति दयनीय हो गई। अब किसानों को न तो विपत्ति की घड़ी में अथवा फसल खराब हो जाने पर सरकारी राजस्व में कमी की जाने की आशा थी और न ही तीज-त्योहारों पर किसी प्रकार की सहायता अथवा कर्ज मिल पाने की कोई उम्मीद थी। इस प्रकार किसानों में ब्रिटिश शासन के विरुद्ध असंतोष बढ़ने लगा। किसानों के असंतोष का प्रभाव फौजी बैरकों तक भी पहुँचने लगा था क्योंकि अधिकांश सैनिकों का संबंध किसान परिवारों से था। उल्लेखनीय है कि 1857 ई० में अवध के जिन-जिन क्षेत्रों में ब्रिटिश शासन को कठोर प्रतिरोध का सामना करना पड़ा, उन-उन क्षेत्रों में संघर्ष की वास्तविक बागडोर ताल्लुकदारों एवं किसानों के हाथों में थी। अधिकांश ताल्लुकदारों की अवध के नवाब के प्रति गहरी निष्ठा थी। अतः वे लखनऊ जाकर बेगम हज़रत महल के नेतृत्व में ब्रिटिश शासन के विरुद्ध संघर्ष में सम्मिलित हो गए। उल्लेखनीय है कि कुछ ताल्लुकदार तो बेग़म की पराजय के बाद भी ब्रिटिश शासन के विरुद्ध संघर्ष में जुटे रहे। इस प्रकार, यह स्पष्ट हो जाता है कि किसानों, ताल्लुकदारों, ज़मींदारों तथा सिपाहियों के असंतोष ने अवध में इस विद्रोह की व्यापकता को विशेष रूप से प्रभावित किया था।

प्रश्न 7.
विद्रोही क्या चाहते थे? विभिन्न सामाजिक समूहों की दृष्टि में कितना फ़र्क था?
उत्तर:
विद्रोही भारत से ब्रिटिश शासन सत्ता को उखाड़ फेंकना चाहते थे। विभिन्न सामाजिक समूह एक सामान्य उद्देश्य से संघर्ष में भाग ले रहे थे और वह सामान्य उद्देश्य था-‘ भारत से ब्रिटिश शासन सत्ता को उखाड़ फेंकना।’ यही कारण था कि इस विद्रोह को अंग्रेजों के विरुद्ध एक ऐसे संघर्ष के रूप में प्रस्तुत किया गया जिसमें सभी लाभ-हानि के समान रूप से भागीदार थे। वास्तव में, ब्रिटिश शासन के अधीन भारतीय समाज के प्रत्येक वर्ग के हितों को हानि पहुँची थी। अतः उनमें ब्रिटिश सत्ता के विरुद्ध असंतोष चरम सीमा पर पहुँच गया था। विभिन्न सामाजिक समूह अपने-अपने हितों की रक्षा के लिए विद्रोह में सम्मिलित हुए थे। अतः एक सामान्य उद्देश्य होते हुए भी उनकी दृष्टि में अंतर था।

शासक एवं शासक वर्ग से संबंधित लोग जैसे मुगल सम्राट, बहादुरशाह द्वितीय, झाँसी की रानी लक्ष्मीबाई, पेशवा वाजीराव द्वितीय के उत्तराधिकारी नाना साहब, अवध की बेगम हजरत महल, आरा के राजा कुँवरसिंह, जाट नेता शाहमल, बड़े-बड़े जागीरदार और ताल्लुकदार भारत से ब्रिटिश सत्ता को उखाड़ कर अपने-अपने राज्यों एवं जागीरों को पुनः प्राप्त करना चाहते थे। ब्रिटिश प्रशासकों ने साधनों के औचित्य अथवा अनौचित्य की कोई परवाह न करते हुए कहीं छल, कहीं बल तो कहीं बिना किसी आड़ के ही अधिकाधिक भारतीय राज्यों एवं रियासतों का विलय अंग्रेजी साम्राज्य में कर लिया था। ब्रिटिश प्रशासन ने जमींदारी बंदोबस्त के अंतर्गत भू-राजस्व के रूप में विशाल धनराशि जमींदारों पर थोप दी।

बकाया लगान के कारण उनकी जागीरों को नीलाम कर दिया जाता था। किसी जनाना नौकर अथवा गुलाम द्वारा दायर किए मुकदमें में भी उन्हें अदालत में उपस्थित होना पड़ता था। उन्हें स्कूलों, अस्पतालों, सड़कों आदि के लिए विशाल धनराशि चंदे के रूप में देनी पड़ती थी। ब्रिटिश शासन के समाप्त हो जाने से उन्हें इन सभी समस्याओं से छुटकारा मिल सकता था। भारतीय व्यापारी भी ब्रिटिश शासन से संतुष्ट नहीं थे। सरकार की व्यापारिक चुंगी, कर तथा परिवहन संबंधी नीतियाँ भारतीय उद्योगपतियों एवं व्यापारियों के हितों के विरुद्ध थीं। देश के आंतरिक एवं बाह्य व्यापार पर विदेशी उद्योगपतियों का नियंत्रण था। भारतीय व्यापारी चाहते थे कि उन्हें आंतरिक और बाह्य व्यापार में विदेशी व्यापारियों के समान सुविधाएँ प्राप्त हों तथा उनके परम्परागत लेन-देन के ढंग और बही-खातों में किसी प्रकार का हस्तक्षेप न किया जाए।

किसान चाहते थे कि भू-राजस्व की दर उदार हो, कर-संग्रह के साधन कठोर न हों और भुगतान न कर पाने की स्थिति में उनकी भूमि को नीलाम न किया जाए। वे चाहते थे कि सरकार ज़मींदारों और महाजनों के शोषण एवं अत्याचारों से किसानों की रक्षा करे तथा कृषि को उन्नत एवं गतिशील बनाया जाए। ब्रिटिश प्रशासन की आर्थिक नीतियों ने भारत के परम्परागत आर्थिक ढाँचे को नष्ट करके भारतीय दस्तकारों एवं कारीगरों की दशा को दयनीय बना दिया था। इंग्लैंड में निर्मित वस्तुओं को ला-लाकर यूरोपीयों ने भारतीय बुनकरों, लोहारों, मोचियों आदि को बेरोजगार कर दिया था। भारतीय कारीगरों और दस्तकारों को विश्वास था कि भारत से ब्रिटिश शासन समाप्त कर दिए जाने पर निश्चित रूप से उनकी स्थिति उन्नत होगी। उनके उत्पादों की माँग बढ़ जाएगी और उन्हें राजाओं और अमीरों की सेवा में नियुक्त किया जाएगा।

इसी प्रकार, सरकारी कर्मचारी चाहते थे कि उनके साथ सम्मानजनक बर्ताव किया जाए, उन्हें प्रशासनिक एवं सैनिक सेवाओं में प्रतिष्ठा और धन वाले पदों पर नियुक्त किया जाए तथा अंग्रेजों के समान वेतन एवं शक्तियाँ प्रदान की जाएँ। उन्हें लगता था कि देश में बादशाही सरकार की स्थापना हो जाने से उनकी इन सभी समस्याओं का समाधान हो जाएगा। पंडित, फकीर एवं अन्य ज्ञानी व्यक्ति भी ब्रिटिश शासन के विरोधी थे। उन्हें लगता था कि ब्रिटिश प्रशासक उनके धर्म को नष्ट करके उन्हें ईसाई बना देना चाहते हैं। ब्रिटिश सत्ता को भारत से उखाड़कर वे भारतीय धर्मों एवं संस्कृति की रक्षा करना चाहते थे। वास्तव में, विद्रोही भारत से ब्रिटिश सत्ता को समाप्त करके देश में 18वीं शताब्दी की पूर्व ब्रिटिश व्यवस्था की पुनस्र्थापना करना चाहते थे। यही कारण था कि उन्होंने ब्रिटिश शासन के पतन के बाद दिल्ली, लखनऊ और कानपुर जैसे स्थानों में एक प्रकार की सत्ता एवं शासन संरचना की स्थापना का प्रयास किया।

प्रश्न 8.
1857 के विद्रोह के विषय में चित्रों से क्या पता चलता है? इतिहासकार इन चित्रों को किस तरह विश्लेषण करते हैं?
उत्तर:
विद्रोह की अवधि में तथा उसके बाद भी अंग्रेजों एवं भारतीयों द्वारा विद्रोह से संबंधित अनेक विषयों का चित्रांकन किया गया।
इनमें से अनेक चित्र, पेंसिल निर्मित रेखाचित्र, उत्कीर्ण चित्र, पोस्टर, कार्टून और बाजार प्रिंट आज उपलब्ध हैं। ये चित्रांकन विद्रोह की विभिन्न छवियाँ हमारे सामने प्रस्तुत करते हैं। पाठ्यपुस्तक में दिए गए कुछ महत्त्वपूर्ण चित्रों के आधार पर हम यह जानने का प्रयत्न करेंगे कि इतिहासकार इन चित्रों का विश्लेषण किस प्रकार करते हैं। विद्रोह के संबंध में अंग्रेज़ों द्वारा बनाए गए चित्रों में अंग्रेजों को बचाने वाले एवं विद्रोहियों को कुचलने वाले अंग्रेज़ नायकों का अभिनंदन रक्षकों के रूप में किया गया है। इस संबंध में टॉमस जोन्स बार्कर द्वारा 1859 ई० में निर्मित चित्र ‘द रिलीफ़ ऑफ़ लखनऊ’ (लखनऊ की राहत) विशेष रूप से उल्लेखनीय है। यह सर्वविदित है कि 1857 ई० के विद्रोह का संभवतः सर्वाधिक भयंकर रूप अवध की राजधानी लखनऊ में देखने को मिला था। विद्रोही सैनिकों द्वारा लखनऊ का घेरा डाल दिए जाने पर लखनऊ के कमिश्नर हेनरी लारेन्स ने सभी ईसाइयों को इकट्ठा करके उनके साथ अत्यधिक सुरक्षित रेजीडेंसी में शरण ले ली थी।

रेजीडेंसी पर विद्रोहियों के आक्रमण में हेनरी लारेन्स की तो मृत्यु हो गई, किन्तु कर्नल इंगलिस ने किसी प्रकार से रेजीडेंसी को सुरक्षित रखा। अंत में कॉलिन कैप्पबेल और जेम्स ऑट्रम की संयुक्त सेनाओं ने ब्रिटिश रक्षक सेना को घेरे से छुड़ाया और विद्रोहियों को पराजित करके लखनऊ पर अधिकार स्थापित कर लिया। अंग्रेजों ने अपने विवरणों में लखनऊ पर अपने पुनः अधिकार का उल्लेख ब्रिटिश शक्ति के वीरतापूर्वक प्रतिरोध एवं निर्विवाद विजय के प्रतीक के रूप में किया है। जोन्स बार्कर के इस चित्र में कॉलिन कैम्पबेल के आगमन पर प्रसन्नता के समारोह का अंकन किया गया है। चित्र के मध्य में तीन ब्रिटिश नायकों-कैम्पबेल, ऑट्रम तथा हैवलॉक को दिखाया गया है। उनके आस-पास खड़े लोगों के हाथों के संकेतों से दर्शक का ध्यान बरबस ही चित्र के मध्य भाग की ओर आकर्षित हो जाता है। ये नायक जिस स्थान पर खड़े हैं वहाँ पर्याप्त उजाला है, इसके अगले भाग में परछाइयाँ हैं और पिछले भाग में टूटा-फूटा रेजीडेंसी दृष्टिगोचर होता है।

चित्र के अगले भाग में दिखाए गए शव और घायल इस घेरेबंदी में हुई मार-काट के साक्षी हैं। मध्य भाग में अंकित घोड़ों के विजयी चित्र ब्रिटिश सत्ता एवं नियंत्रण की पुनस्र्थापना के प्रतीक हैं। इन चित्रों का प्रमुख उद्देश्य अंग्रेज जनता में अपनी सरकार की शक्ति के प्रति विश्वास उत्पन्न करना था। इस प्रकार के चित्रों से यह स्पष्ट संकेत मिलता था कि संकट समाप्त हो चुका था, विद्रोह का दमन किया जा चुका था और अंग्रेज अपनी सत्ता की पुनस्र्थापना में सफलता प्राप्त कर चुके थे। 1857 ई० के सैनिक विद्रोह के दो वर्ष बाद जोजेफ़ नोएल पेटन द्वारा बनाए गए चित्र ‘इन मेमोरियम’ (स्मृति में) में चित्रकार का प्रमुख उद्देश्य विद्रोह की अवधि में अंग्रेज़ों, विशेष रूप से महिलाओं और बच्चों की असहायता को प्रकट करना था। इस चित्र में अंग्रेज़ महिलाओं और बच्चों को एक घेरे में एक-दूसरे से लिपटा हुआ चित्रित किया गया है।

उन्हें पूर्ण रूप से असहाय एवं मासूम दिखाया गया है। उनके चेहरे के भावों से ऐसा लगता है कि मानो वे किसी भयानक घड़ी की आशंका से ग्रस्त हों। उन्हें देखकर लगता है कि जैसे वे पूरी तरह से आशाविहीन होकर अपने अपमान, हिंसा और मौत की प्रतीक्षा कर रहे हैं। चित्र को ध्यानपूर्वक देखने से पता लगता है कि इसमें भयंकर हिंसा का चित्रण नहीं किया गया है, उसकी तरफ केवल संकेत किया गया है। चित्रकार की यह कल्पना दर्शकों को अन्दर तक झकझोर डालती है। वे गुस्से और बेचैनी के भावों से उबलने लगते हैं और प्रतिशोध लेने के लिए स्वयं को तैयार कर लेते हैं। इस प्रकार के चित्रों में विद्रोहियों को दिखाया नहीं गया है, तथापि उनका प्रमुख उद्देश्य विद्रोहियों की हिंसकता एवं बर्बरता को प्रकट करना है। ‘इन मेमोरियम’ नामक इस चित्र की पृष्ठभूमि में ब्रिटिश सैनिकों को रक्षक के रूप में आगे बढ़ते हुए दिखाया गया है।

कुछ चित्रों में अंग्रेज़ महिलाओं का चित्रांकन वीरता की साकार प्रतिमा के रूप में किया गया है। इन चित्रों में वे वीरतापूर्वक स्वयं अपनी रक्षा करते हुए दृष्टिगोचर होती हैं। उदाहरण के लिए पाठ्यपुस्तक के चित्र 11.3 में मिस व्हीलर को वीरता की साकार प्रतिमा के रूप में भारतीय सिपाहियों से वीरतापूर्वक अपनी रक्षा करते हुए दिखाया गया है। वह दृढ़तापूर्वक विद्रोहियों के मध्य खड़ी दृष्टिगोचर होती हैं और अकेले ही विद्रोहियों को मौत के घाट उतारते हुए अपने सम्मान की रक्षा करती हैं। अन्य ब्रिटिश चित्रों के समान इस चित्र में भी विद्रोहियों को बर्बर दानवों के रूप में चित्रित किया गया है। चित्र में चार हृष्ट-पुष्ट व्यक्ति हाथों में तलवारें और बंदूकें लिए हुए एक अकेली महिला पर वार करते हुए दिखाये गए हैं। वास्तव में, इस चित्र में अपने सम्मान और जीवन की रक्षा के लिए एक महिला के वीरतापवूक संघर्ष के माध्यम से चित्रकार ने एक गहरे धार्मिक विचार का प्रस्तुतीकरण किया है। इसके अंतर्गत विद्रोहियों के विरुद्ध संघर्ष को ईसाईयत की रक्षा के संघर्ष के रूप में दिखाया गया है। चित्र में बाइबिल को भूमि पर गिरा हुआ दिखाया गया है।

प्रश्न 9.
एक चित्र और एक लिखित पाठ को चुनकर किन्हीं दो स्रोतों की पड़ताल कीजिए और इस बारे में चर्चा कीजिए। कि उनसे विजेताओं और पराजितों के दृष्टिकोण के बारे में क्या पता चलता है?
उत्तर:
यदि हम प्रस्तुत अध्ययन में दिए गए एक चित्र और एक लिखित पाठ का चुनाव करके उनका परीक्षण करते हैं, तो उनसे पता लगता है कि विद्रोह के विषय में विजेताओं अर्थात् अंग्रेज़ों और पराजितों अर्थात् भारतीयों के दृष्टिकोण में भिन्नता थी।

1. उदाहरण के लिए, यदि हम पाठ्यपुस्तक के चित्र 11.18 का परीक्षण करते हैं, तो स्पष्ट हो जाता है कि अंग्रेजों ने जिस संघर्ष को ‘एक सैनिक विद्रोह मात्र’ कहा भारतीयों के लिए ब्रिटिश सत्ता के विरुद्ध छेड़ा गया भारत का प्रथम स्वतंत्रता संग्राम था। इसका प्रमुख उद्देश्य देश को विदेशी प्रभुत्व से मुक्त करवाना था। झाँसी में विद्रोह का नेतृत्व रानी लक्ष्मीबाई ने किया। इस चित्र में रानी लक्ष्मीबाई को वीरता की साकार प्रतिमा के रूप में चित्रित किया गया है। उल्लेखनीय है कि झाँसी में महिलाओं ने पुरुषों के वेश में अस्त्र-शस्त्र धारण कर ब्रिटिश सैनिकों का डटकर मुकाबला किया। रानी लक्ष्मीबाई शत्रुओं का पीछा करते हुए, ब्रिटिश सैनिकों को मौत के घाट उतारते हुए निरंतर आगे बढ़ती रही और अंत में मातृभूमि के लिए अपने प्राणों की बलि दे दी। लक्ष्मीबाई की यह वीरता देशभक्तों के लिए एक प्रेरणा का स्रोत बन गई। चित्रों में रानी को वीरता की साकार प्रतिमा के रूप में चित्रित किया गया तथा उनकी वीरता की सराहना में अनेक कविताओं की रचना की गई। लोक छवियों में झाँसी की यह रानी अन्याय एवं विदेशी सत्ता के दृढ़ प्रतिरोध की प्रतीक बन गई। रानी की वीरता का गौरवगान करते हुए सुभद्रा कुमारी चौहान द्वारा लिखी गई ये पंक्तियाँ “खूब लड़ी मर्दानी वो तो झाँसी वाली रानी थी” देश के बच्चे-बच्चे की जुबाँ पर आ गईं।

2. पाठ्यपुस्तक में दिए गए इस स्रोत (स्रोत-7), “अवध के लोग उत्तर से जोड़ने वाली संचार लाइन पर जोर बना रहे हैं… अवध के लोग गाँव वाले हैं…। ये यूरोपीयों की पकड़ से बिलकुल बाहर हैं। पलभर में बिखर जाते हैं : पलभर में फिर जुट जाते हैं; शासकीय अधिकारियों का कहना है कि इन गाँव वालों की संख्या बहुत बड़ी है और उनके पास बाकायदा बंदूकें हैं।” के परीक्षण से पता चलता है कि अवध में इस विद्रोह का व्यापक प्रसार हुआ था और यह विदेशी शासन के विरुद्ध लोक-प्रतिरोध की अभिव्यक्ति बन गया था। उल्लेखनीय है कि इस क्षेत्र में ब्रिटिश शासन ने राजकुमारों, ताल्लुकदारों, किसानों एवं सिपाहियों सभी को समान रूप से प्रभावित किया था। सभी ने अवध में बिटिश शासन की स्थापना के परिणामस्वरूप अनेक प्रकार की पीड़ाओं को अनुभव किया था। सभी के लिए अवध में ब्रिटिश शासन का आगमन एक दुनिया की समाप्ति का प्रतीक बन गया था। जो चीजें लोगों को बहुत प्रिय थीं, वे उनकी आँखों के सामने ही छिन्न-भिन्न हो रही थीं।

1857 ई० का विद्रोह मानो उनकी सभी भावनाओं, मुद्दों, परम्पराओं एवं निष्ठाओं की अभिव्यक्ति का स्रोत बन गया था। अवध में ताल्लुकदारों को उनकी सत्ता से वंचित कर दिए जाने के कारण एक संपूर्ण सामाजिक व्यवस्था नष्ट हो गई थी। किसानों को ताल्लुकदारों के साथ बाँधने वाले निष्ठा और संरक्षण के बंधन नष्ट-भ्रष्ट हो गए थे। उल्लेखनीय है कि 1857 ई० में अवध के जिन-जिन क्षेत्रों में ब्रिटिश शासन को कठोर प्रतिरोध का सामना करना पड़ा, वहाँ-वहाँ संघर्ष की वास्तविक बागडोर ताल्लुकदारों एवं किसानों के हाथों में थी। हमें याद रखना चाहिए कि अधिकांश सैनिकों का संबंध किसान परिवारों से था। यदि सिपाही अपने अफसरों के आदेशों की अवहेलना करके शस्त्रे उठा लेते थे, तो तत्काल ही उन्हें ग्रामों से अपने भाई-बंधुओं को सहयोग प्राप्त हो जाता था। इस प्रकार अवध में विद्रोह का व्यापक प्रसार हुआ। इस विद्रोह में किसानों ने सिपाहियों के कंधे-से-कंधा मिलाकर ब्रिटिश शासन के विरुद्ध संघर्ष किया।

मानचित्र कार्य

प्रश्न 10.
भारत के मानचित्र पर कलकत्ता (कोलकाता), बम्बई (मुंबई), मद्रास (चेन्नई) को चिह्नित कीजिए जो 1857 में ब्रिटिश सत्ता के तीन मुख्य केंद्र थे। पाठ्यपुस्तक के मानचित्र 1 और 2 को देखिए तथा उन इलाकों को चिह्नित | कीजिए जहाँ विद्रोह सबसे व्यापक रहा। औपनिवेशिक शहरों से ये इलाके कितनी दूर या कितने पास थे?
उत्तर:
संकेत-कलकत्ता प्रारंभ में विद्रोहियों के बिलकुल नजदीक था, क्योंकि बैरकपुर से ही मंगल पांडेय ने उसे शुरू किया था;
लेकिन कलकत्ता, मेरठ से बहुत दूर था। इसी प्रकार मेरठ, मुम्बई और चेन्नई से भी बहुत दूर था। विद्रोह के प्रमुख केन्द्र उत्तरी-पश्चिमी भारत के पेशावर, लाहौर, कराची (जो अब तीनों पाकिस्तान में हैं) थे, लेकिन वहाँ विद्रोह बहुत ज्यादा व्यापक नहीं था। विद्रोह अंबाला, सहारनपुर, मेरठ, दिल्ली, अलीगढ़, आगरा, कानपुर, झाँसी, जबलपुर, इलाहाबाद, लखनऊ, बनारस, आजमगढ़ में अधिक व्यापक था।

विद्रोह को कुचलने के लिए पंजाब से सैनिक दिल्ली, मेरठ भेजे गए और कलकत्ता से सैनिक टुकड़ियाँ बनारस, आगरा, इलाहाबाद, कानपुर, झाँसी, जबलपुर और दक्षिण में औरंगाबाद के सीमावर्ती क्षेत्रों तक भेजे गए। जिन क्षेत्रों में अंग्रेज़ी सेना भेजी गई, वहाँ अंग्रेजों को बढ़त मिली। विद्रोह के प्रमुख केन्द्रों में पहले चाहे विद्रोहियों को सफलता मिली, लेकिन शीघ्र ही उन्हें कुचलने में अंग्रेजों को सफलता मिली।

  • उपर्युक्त संकेत के आधार पर मानचित्र संबंधी कार्य स्वयं करें। परियोजना कार्य (कोई एक)

प्रश्न 11.
1857 के विद्रोही नेताओं में से किसी एक की जीवनी पढ़ें। देखिए कि उसे लिखने के लिए जीवनीकार ने किन स्रोतों का उपयोग किया है? क्या उनमें सरकारी रिपोर्टों, अख़बारी ख़बरों, क्षेत्रीय भाषाओं की कहानियों, चित्रों और किसी अन्य चीज़ का इस्तेमाल किया गया है? क्या सभी स्रोत एक ही बात कहते हैं या उनके बीच फ़र्क दिखाई देते हैं? अपने निष्कर्षों पर एक रिपोर्ट तैयार कीजिए।
उत्तर:
विद्यार्थी शिक्षक की सहायता से स्वयं करें।

प्रश्न 12.
1857 पर बनी कोई फ़िल्म देखिए और लिखिए कि उसमें विद्रोह को किस तरह दर्शाया गया है। उसमें अंग्रेज़ों, विद्रोहियों और अंग्रेजों के भारतीय वफादारों को किस तरह दिखाया गया है? फ़िल्म किसानों, नगरवासियों, आदिवासियों जमींदारों और ताल्लुकदारों के बारे में क्या कहती है? फ़िल्म किस तरह की प्रतिक्रिया को जन्म देना चाहती है?
उत्तर:
संकेत-1857 पर मनोज कुमार द्वारा निर्मित फिल्म क्रांति देखी जा सकती है।

  • विद्यार्थी शिक्षक की सहायता से स्वयं करें।
NCERT Class 12 History Vishwa Itihas Ke Kuch Vishay

Class 12 History Chapters | History Class 12 Chapter 11

Chapterwise NCERT Solutions For Class 12 History (Vishwa Itihas Ke Kuch Vishay)

NCERT SOLUTIONS

Post a Comment

इस पेज / वेबसाइट की त्रुटियों / गलतियों को यहाँ दर्ज कीजिये
(Errors/mistakes on this page/website enter here)

Previous Post Next Post