NCERT Solutions | Class 8 Hindi Writing skills निबंध-लेखन

NCERT Solutions | Class 8 Hindi Writing skills | निबंध-लेखन 

NCERT Solutions for Class 8 Hindi Writing skills निबंध-लेखन

CBSE Solutions | Hindi Class 8

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NCERT | Class 8 Hindi

NCERT Solutions Class 8 Hindi Writing skills
Book: National Council of Educational Research and Training (NCERT)
Board: Central Board of Secondary Education (CBSE)
Class: 8th
Subject: Hindi Writing skills
Chapter:
Chapters Name: निबंध-लेखन
Medium: Hindi

निबंध-लेखन | Class 8 Hindi | NCERT Books Solutions

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गद्य की विधाओं में निबंध-लेखन एक प्रमुख विधा है। ‘नि’ + ‘बंध’ यानी नियोजित ढंग से बँधा होना। यह अपने विचारों को प्रकट करने के लिए उत्तम साधन है। लेखक किसी भी विषय पर स्वतंत्र, मौलिक तथा सारगर्भित विचार क्रमबद्ध रूप से प्रस्तुत करता है। निबंध चार प्रकार के होते हैं।

  1. विचारात्मक निबंध
  2. भावनात्मक निबंध
  3. वर्णनात्मक निबंध
  4. विवरणात्मक निबंध।

निबंध के अंग
भूमिका – भूमिका में विषय का परिचय दिया जाता है तथा पाठक को आकर्षित करने के लिए रोचक ढंग से बात कही जाती है।
विस्तार – यह निबंध का मुख्य अंग है। इसमें विषय से संबंधित विभिन्न बिंदुओं को एक-एक करके क्रमबद्ध ढंग से अनुच्छेदों में बाँटकर प्रस्तुत किया जाता है।
उपसंहार – यह निबंध का अभिन्न अंग है। इसमें निबंध में कही बातों को सारांश के रूप में प्रस्तुत किया जाता है।

निबंध लिखते समय ध्यान देने योग्य बातें

  • निबंध निर्धारित शब्द सीमा के अंतर्गत ही लिखा गया हो।
  • निबंध के वाक्य क्रमबद्ध और सुसंबद्ध होने चाहिए तथा विचार मौलिक हो।
  • विषय के अनुकूल सरल या गंभीर भाषाओं का प्रयोग होना चाहिए। वर्तनी का ध्यान रखना।
  • विषय को रोचक बनाने के लिए उचित मुहावरों व उदाहरणों का प्रयोग।
  • विषय के संबंध में अपने विचार प्रकट करते हुए निबंध का उपसंहार करना चाहिए।

मोबाइल फ़ोन सुविधा या असुविधा

आज के युग को विज्ञान युग कहा जाता है। वैज्ञानिक आविष्कारों ने आज जीवन के हर क्षेत्र में क्रांति ला दी है। इसीलिए महाकवि दिनकर जी ने कहा है।

पूर्व युग-सा आज का जीवन नहीं लाचार,
आ चुका है दूर वार से बहुत संसार।
यह समय विज्ञान का, सब भाँति पूर्ण समर्थ
खुल गए हैं गूढ़ संसुति के अंमित गुरु अर्थ।

दिनकर जी का उपर्युक्त कथन अतिशयोक्ति पूर्ण नहीं लगता क्योंकि वैज्ञानिक आविष्कारों ने मानव-जीवन की काया ही पलट दी है। मोबाइल फ़ोन विज्ञान की आश्चर्यजनक अद्भुत देन है।

आज हर व्यक्ति के हाथ में इसे देखा जा सकता है। हो भी क्यों नहीं यह है ही इतना लाभदायक। आज मोबाइल एक मित्र की भाँति हमारे साथ रहता है और अकेलापन महसूस नहीं होने देता।

मोबाइल फ़ोन के कई लाभ हैं; जैसे- इसके द्वारा कहीं से भी, किसी से बात की जा सकती है, फिर चाहे वह व्यक्ति विदेश में ही क्यों न हो। किसी प्रकार की विपत्ति पड़ने पर मोबाइल फ़ोन एक सहायक के रूप में काम आता है। किसी दुर्घटना में फँसने पर मोबाइल फ़ोन के द्वारा अपने परिवारजनों को सूचित किया जा सकता है। किसी भी विपत्ति में मोबाइल फ़ोन एक वरदान बनकर हमारी सहायता करता है।

इसके अलावा इस फ़ोन के द्वारा समाचार, चुटकुले तथा बहुत-सी अन्य सूचनाएँ प्राप्त की जा सकती हैं। इसके द्वारा संदेश भिजवाया जा सकता है। इस पर संगीत भी सुना जा सकता है। आजकल मोबाइल फ़ोन पर कंप्यूटर, इंटरनेट, ई-मेल की सुविधाएँ भी उपलब्ध हैं। इस पर लगे फोटो कैमरे का प्रयोग करके किसी घटना को स्मृति रूप में सुरक्षित रखा जा सकता है।

मोबाइल फ़ोन इतना सुविधाजनक होते हुए भी कभी-कभी असुविधा का कारण भी बन जाता है। कभी-कभी गलत नंबर मिलने पर यह गलत समय पर बजे जाता है। कभी-कभी बैठकों, सम्मेलनों तथा गोष्ठियों में मोबाइल फ़ोन के कारण बाधा पहुँचती है। आजकल अधिकांश बैंक तथा ऋण देने वाली कंपनियाँ लोगों के मोबाइल नंबरों का पता लगाकर उन्हें अनावश्यक रूप से ऋण लेने, क्रेडिट कार्ड बनवाने आदि के संबंध में फ़ोन करते हैं, जो असुविधा का कारण बन जाता है। गाड़ी चलाते समय जब लोग मोबाइल फ़ोन पर बात करते हैं, तो इससे दुर्घटना होने की संभावना हो जाती है।

कुछ भी हो मोबाइल फ़ोन विज्ञान का अद्भुत उपहार है, यदि इसका सही उपयोग किया जाए, तो यह किसी वरदान से कम नहीं।

कंप्यूटर और दूरदर्शन

कहा जाता है- ‘आवश्यकता ही आविष्कार की जननी है।’ जब-जब मनुष्य को आवश्यकता महसूस हुई तब-तब आविष्कार हुए है। जंब मनुष्य आदिमानव था, तब उसने पत्थर को रगड़कर आग का आविष्कार किया। इस प्रकार नित नए आविष्कार होते रहे, युग बदलते रहे। विज्ञान के क्षेत्र में मनुष्य ने नए-नए आविष्कार कर जीवन को सरल बना दिया है। कंप्यूटर और दूरदर्शन – ये दोनों विज्ञान की आवश्चर्यजनक एवं अद्भुत देन है।

आज जीवन के लगभग हर क्षेत्र में कंप्यूटर का प्रवेश हो गया है। आज कंप्यूटर हमारे जीवन का अभिन्न अंग बन चुका है। यह एक ऐसा मस्तिष्क है जो लाखों गणनाएँ पलक झपकते ही कर सकता है और वह भी त्रुटिरहित। कंप्यूटर के द्वारा रेल तथा वायुयान का आरक्षण किया जाता है। बैंकों और दफ्तरों का हिसाब-किताब रखा जाता है तथा अनेक प्रकार की जानकारियाँ प्राप्त की जाती हैं।

मुद्रण और दूरसंचार में तो क्रांति ला दी है। अब मुद्रण बहुत सरल तथा कलात्मक हो गया है तथा अत्यंत त्वरित गति से किया जा सकता है। दूर संचार में इंटरनेट पर विश्व की कोई भी जानकारी घर बैठे प्राप्त की जा सकती है। कंप्यूटर का उपयोग रक्षा उपकरणों विज्ञान संचालन आदि में भी सफलतापूर्वक किया जा रहा है। आधुनिक युद्ध कंप्यूटर के सहारे ही लड़े जाते हैं। अब कंप्यूटर का उपयोग ज्योतिषी भी करने लगे हैं। इस प्रकार कंप्यूटर का सकारात्मक पक्ष अत्यंत उज्ज्वल है।

कंप्यूटर के कुछ नकारात्मक प्रभाव भी है। कंप्यूटर के प्रयोग से भारत जैसे देश में बेकारी बढ़ी है। साथ ही कंप्यूटर पर वायरस डालकर दुरुपयोग किया जा रहा है। कभी-कभी कुछ अश्लील सामग्री भी डाल दी जाती है।

दूरदर्शन ने मनोरंजन के क्षेत्र में क्रांति उपस्थित की है। दूरदर्शन से देश-विदेश की जानकारी घर बैठे मिल जाती है। घर बैठे-बैठे संसार के किसी कोने में हो रहे कार्यक्रमों समारोहों तथा उत्सवों को अपनी आँखों के सामने देखा जा सकता है। दूरदर्शन पर आकाश की ऊँचाइयों, समुद्र की गहराइयों तथा प्रकृति के रहस्यों की जानकारी प्राप्त की जा सकती है। आजकल इसका प्रयोग छात्रों को पढ़ाने में भी किया जा रहा है। दूरदर्शन जन जागरण का साधन भी बन गया है। दूरदर्शन का नकारात्मक पक्ष भी है- जो दूरदर्शन स्वस्थ मनोरंजन प्रदान कर सकता है, वही सांस्कृतिक प्रदूषण भी फैला रहा है। दूरदर्शन के विभिन्न चैनलों पर अनेक कार्यक्रम ऐसे होते हैं, जिन्हें सारा परिवार एक साथ बैठकर नहीं देख सकता। इस पर दिखाई जाने वाली फ़िल्में युवा वर्ग को दिग्भ्रमित करके अपनी संस्कृति से विमुख कर रही है। फैशन तथा अपराधों को बढ़ाने में दूरदर्शन की भूमिका असंदिग्ध है।

इस प्रकार निष्कर्ष तौर पर हम कह सकते हैं कि कंप्यूटर और दूरदर्शन के नकारात्मक प्रभावों से बचने के लिए, हमें ऐसी बातों का विरोध करना होगा जो इन दोनों को हानिकारक बनाते हैं। हमें ऐसे कार्यक्रमों का विरोध करना होगा जो हमारी संस्कृति, परंपरा तथा अवस्थाओं के विरुद्ध है। इसी प्रकार कंप्यूटर पर वायरस डालने का भी पता लगाना होगा।

पेड़-पौधे और हम

मनुष्य और प्रकृति का संबंध सनातन है। प्रकृति मनुष्य की सहचरी है। दोनों एक-दूसरे के पूरक तथा पोषक हैं। मनुष्य ने प्रकृति में जन्म लिया है तथा उसके संरक्षण में पला-बढ़ा है, इसी प्रकार पेड़-पौधे भी मनुष्य के संरक्षण में पलते-बढ़ते हैं। प्रकृति ने मनुष्य की अनेक प्रकार की अनिवार्य आवश्यकताओं की पूर्ति की है। मनुष्य जीवन पर्यन्त वृक्षों पर आश्रित रहता है।

पेड़-पौधे मनुष्य के लिए लाभदायक ही नहीं आवश्यक हैं। जैसे-जैसे सभ्यता का विकास हुआ, मनुष्य की रहने, खाने-पीने की आवश्यकताएँ बढ़ती गईं। पेड़-पौधे ही जीवन को झूले पर झुलाते हैं, तो पेड़-पौधे ही बुढ़ापे की लाठी बनकर सहारा प्रदान करते हैं। अनाज फल-फूल, जड़ी-बूटियाँ, ईंधन, इमारती लकड़ियाँ, जैसी वस्तुएँ हमें पेड़-पौधों से ही मिलती हैं। पेड़ पौधे हमें शुद्ध वायु प्रदान करते हैं। वे कार्बन-डाई ऑक्साइड को ग्रहण कर हमें ऑक्सीजन प्रदान करते हैं। वृक्ष न केवल प्रदूषण को नियंत्रित करते हैं बल्कि मिट्टी कटाव को भी रोकता है। ये वर्षा में मददगार होते हैं। भूमि को उर्वरा बनाए रखते हैं। जंगली जानवरों को संरक्षण प्रदान करते हैं तथा भूस्खलन सूखा, भूकंप जैसे प्राकृतिक विपदाओं को रोकने में भी सहायक होते हैं। पेड़-पौधों की लकड़ी से बने खिलौने बच्चों का मन बहलाते हैं।

आज बढ़ती हुई जनसंख्या की आवास संबंधी कठिनाई के कारण तथा उद्योग धंधों के लिए भूमि की कमी पूरा करने के लिए वनों की अंधाधुंध कटाई करने के लिए मजबूर होना पड़ा। दूसरी ओर ईंधन के लिए लकड़ी का प्रयोग बढ़ने लगा। घरों के लिए इमारती लकड़ी की जरूरत बढ़ने लगी और धड़ाधड़ पेड़ काटे जाने लगे। संसार में कोई ऐसा घर न होगा जहाँ लकड़ी का प्रयोग न हो। पेड़ पौधों, के न रहने से अब चारों तरफ़ प्रदूषण बढ़ रहा है। हवा, धुएँ तथा अन्य गंदगी से भरी रहती है जिससे मानव स्वास्थ्य पर विपरीत प्रभाव पड़ रहा है। चारों तरफ़ तरह-तरह की बीमारियाँ जन्म ले रही हैं।

पहाड़ी इलाकों में हुई वृक्षों की कटाई ने संपूर्ण संतुलन को ही बिगाड़ डाला है। अब तापक्रम में परिवर्तन से कभी बारिश नहीं होती तथा कभी बहुत अधिक होती है। वृक्षरहित पहाड़ों की धरती पर जब वर्षा होती है तो ढलान की मिट्टी भी अपने साथ बहा ले जाता है और यह मिट्टी नदियों में जल का मार्ग रोककर बाढ़ का कारण बनती है। इससे पर्वत ढहने जैसी दुर्घटनाएँ भी होती हैं।

इस प्रकार पेड़-पौधे मानव जीवन को कई प्रकार से प्रभावित करते हैं। वृक्ष पृथ्वी को हरा-भरा तथा आकर्षक बनाए रखते हैं। इन पर पक्षियों की प्रजातियाँ पलती हैं। यही कारण है कि हमारे यहाँ वेदों में प्रकृति की अराधना की गई है। पहले मंदिरों में वट, पीपल आदि के पेड़ लगाए जाते थे तथा उनकी पूजा की जाती थी। यह पूजा वृक्षों का महत्त्व व उसके प्रति मनुष्य की श्रद्धा प्रकट करती है।

वृक्षों के महत्त्व को समझकर अब प्रतिवर्ष वन महोत्सव’ मनाए जाते हैं। जगह-जगह पौधे लगाए जाते हैं। अतः मनुष्य का कर्तव्य है कि वृक्षों का सम्मान करें, उनकी कटाई न करे तथा इस बात को समझ ले कि वृक्ष मानव जीवन की संजीवनी हैं।

विद्यार्थी जीवन

मानव जीवन की चार अवस्थाओं में से ब्रह्मचर्य आश्रम जन्म से लेकर 25 वर्ष तक की आयु के काल को कहा जाता है। यही जीवन विद्यार्थी जीवन भी है। प्राचीन काल में विद्यार्थी को गुरुकुल में रहकर विद्याध्ययन करना पड़ता था।

विद्यार्थी शब्द दो शब्द के मेल से बना है- विद्या + अर्थी। जिसका अर्थ है विद्या प्राप्ति की इच्छुक। जीवन के प्रारंभिक काल का लक्ष्य विद्या प्राप्ति है, यह जीवन का स्वर्णिम काल कहा जाता है।

जिस प्रकार सुदृढ़ भवन निर्माण में कार्यरत कारीगर सावधानीपूर्वक नींव का निर्माण करता है, उसी प्रकार मानव जीवन रूपी भवन के सुदृढ़ निर्माण के लिए विद्यार्थी जीवन का सुव्यवस्थित होना नितांत आवश्यक है। सरल, छलरहित, उत्साहयुक्त आशावादी लहरों में उमंगपूर्ण तरंगित होता यह काल उसके भविष्य को निर्धारित करता है। इसी अवस्था में शारीरिक, मानसिक व बौद्धिक शक्तियों का विकास होता है। शिक्षा द्वारा जीवन लक्ष्यों का निर्धारण होता है।

सफल विद्यार्थी इसी काल में सामाजिक, धार्मिक नैतिक नियमों, आदर्शों व संस्कारों को ग्रहण करता है लेकिन आजकल गुरुकुलशिक्षा प्रणाली नहीं है। आज का विद्यार्थी विद्यालयों में विद्याध्ययन करता है। आज गुरुओं में कठोर अनुशासन का अभाव है। आज शिक्षा का संबंध धने से जोड़ा जाता है। विद्यार्थी यह समझता है कि वह धन देकर विद्या प्राप्त कर रहा है। उसमें गुरुओं के प्रति आदर के भाव की कमी पाई जाती है। साथ ही कर्मठ, कर्तव्यनिष्ठ शिक्षकों का भी अभाव हो गया है। शिक्षा में नैतिक मूल्यों का कोई स्थान नहीं है। इसका उद्देश्य केवल परीक्षा पास करना रह गया है। इन्हीं कारणों से आज का विद्यार्थी अनुशासनहीन, फैशन का दीवाना, पश्चिमी सभ्यता का अनुनायी तथा भारतीय संस्कृति से दूर हो गया है। आदर्श विद्यार्थी के गुणों की चर्चा करते हुए कहा गया है कि-
काक चेष्टा बको ध्यानं श्वान निद्रा तथैव च।
अल्पाहारी गृह त्यागी विद्यार्थिनः पंच लक्षणं ।।
अर्थात् विद्यार्थी को कौए के समान चेष्टावान व जिज्ञासु होना चाहिए। विद्यार्थी को बगुले के समान ध्यान लगाकर अध्ययन में रत रहना चाहिए। उसे कुत्ते की भाँति सोते हुए भी जागरूक रहना चाहिए। इसके लिए उन्हें कुसंगति से बचना चाहिए तथा आलस्य का परित्याग करके विद्यार्थी जीवन के लक्ष्य की प्राप्ति के लिए प्रयत्नशील होना चाहिए।

आज के विद्यार्थी वर्ग की दुर्दशा के लिए वर्तमान शिक्षा पद्धति भी जिम्मेदार है। अतः उसमें परिवर्तन आवश्यक है। इसलिए विद्यार्थियों में विनयशीलता, संयम, आज्ञाकारिता जैसे गुणों का विकास किया जाना चाहिए। विद्यार्थी को स्वयं भी इन गुणों के विकास के लिए प्रयत्नशील रहना चाहिए। अत: शिक्षाविदों का दायित्व है कि वे देश की भावी पीढ़ी को अच्छे संस्कार देकर उन्हें प्रबुद्ध तथा कर्तव्यनिष्ठ नागरिक बनाएँ।

जनसंख्या वृधि एक समस्या

भारत की बढ़ती जनसंख्या एक गंभीर समस्या है। भारत जनसंख्या की दृष्टि से चीन के बाद दूसरा देश है। अभी वर्तमान समय में अनुमानित एक सौ तीस करोड़ के आँकड़े को भी पार कर गई है। यदि इसी गति से बढ़ती गई, तो एक दिन चीन को भी पीछे छोड़ देगी। जनसंख्या वृद्धि की समस्या अत्यंत विकराल है। यह ऐसी समस्या है जो स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद से अब तक लगातार बढ़ती ही जा रही है। वर्तमान में यह समस्या गंभीर चिंता का विषय बन गई है।

भारत में जनसंख्या वृद्धि के अनेक कारण हैं, इनमें सबसे प्रमुख है भारतीयों की धार्मिक भावनाएँ, अंधविश्वास तथा अशिक्षा। भारत की अधिकांश जनसंख्या गाँवों में रहती है। गाँवों में रहने वाले लोग अंधविश्वासी, अशिक्षित तथा धार्मिक मान्यताओं को मानने वाले होते हैं। वे संतान को ईश्वर का दिया हुआ वरदान मानते हैं। परिवार नियोजन के साधनों को धर्म विरोधी तथा अनैतिक बताते हैं। इसीलिए गाँवों में जनसंख्या का विस्तार तेजी से हुआ है और हो रहा है। जनसंख्या की वृद्धि का अन्य कारण है बाल विवाह। गाँवों में लड़कियों की शादी अल्पायु में यानी चौदह-पंद्रह वर्षों में कर दी जाती है। इस कारण वे जल्दी माँ बन जाती हैं। इससे उनको संतानोत्पत्ति के लिए लंबा समय मिल जाता है। पुत्र की चाहत में कई-कई बेटियाँ होना सामान्य बात है। जनसंख्या की वृधि के अनेक दुष्परिणाम सामने आ रहे हैं। इसी के प्रभाव से बेकारी की समस्या बढ़ रही है। बेकारी की समस्या बढ़ने के कारण इससे संबंधित अनेक प्रकार की समस्याएँ जैसे अपराध, भ्रष्टाचार, गरीबी, जीवन स्तर में कमी, कुपोषण आदि की समस्याएँ भी उपस्थित हो गई हैं। जनसंख्या की अधिकता के कारण गाँवों के लोगों का पलायन शहरों की ओर हो रहा है। आज महानगरों में बढ़ती हुई जनसंख्या के लिए आवास योग्य भूमि का इतना अभाव हो गया है कि लोगों को झुगी-झोपड़ियों, स्लम आदि में रहने को विवश होना पड़ रहा है। यद्यपि भारत ने औद्योगिक क्षेत्र में अभूतपूर्व प्रगति की है, परंतु जनसंख्या की निरंतर वृद्धि के कारण यह प्रगति बहुत कम लगती है। बेरोजगारी को बढ़ाने में भी सर्वाधिक योगदान जनसंख्या की वृधि ही है। बेरोजगार होने के कारण युवकों में अपराध करने की प्रवृत्ति बढ़ती रहती है। जिससे देश में शांति और व्यवस्था भंग हो जाती है।

जनसंख्या की वृद्धि पर अंकुश लगाने के लिए गाँवों के लोगों में जागृति लाना आवश्यक है। उन्हें परिवार नियोजन के लिए प्रोत्साहित किया जाना अनिवार्य है। इसके लिए विवाह कानून को भी कठोरता से लागू किया जाना चाहिए। इसके लिए शिक्षा का प्रचार-प्रसार बहुत आवश्यक है। सरकार को इसके लिए ठोस कदम उठाने होंगे, एक या दो संतान वाले लोगों को प्रोत्साहित किया जाना चाहिए। तथा अधिक संतान वालों पर कर आदि लगाकर या उन्हें मिलने वाली सुविधाओं में कमी कर हतोत्साहित करना चाहिए।

सत्संगति

कदली सीप भुजंग मुख, स्वाति एक गुण तीन।
जैसी संगत बैठिए, तैसो ही फल दीन्ह।।।

सत्संगति अच्छी संगति को कहते हैं। जिस प्रकार पारस के स्पर्श से लोहा भी सोना बन जाता है, वैसे ही सत्संगति के प्रभाव से व्यक्ति श्रेष्ठ बन जाता है तथा उसके महान बनने का मार्ग प्रशस्त हो जाता है।

अच्छी या बुरी संगति व्यक्ति पर प्रभाव अवश्य डालती है। अच्छे मनुष्यों की संगति यदि मनुष्य को सत्मार्ग की ओर अग्रसर करती है तो कुसंगति पतन के गर्त में ढकेल देती है। कागज की कोठरी में कितना भी बुद्धिमान मनुष्य क्यों न जाए, उस पर काजल का कोई न कोई चिहन अवश्य अंकित हो जाता है, ठीक वैसे ही संगति के प्रभाव से बचा नहीं जा सकता। यदि मनुष्य अच्छी संगति में रहता है तो उस पर अच्छे संस्कार पड़ते हैं और यदि उसकी संगति बुरी है तो उसकी आदतें बुरी हो जाती हैं। सत्संगति से व्यक्ति असत्य से सत्य की ओर, कुमार्ग से सुमार्ग की ओर, कुप्रवृत्तियों से सद्प्रवृत्तियों की ओर तथा बुराई से अच्छाई की ओर प्रवृत्त होता है। इसलिए कबीर ने कहा है कि
कबिरा संगति साधु की ज्यों गंधी की बास।
जो कछु गंधी दे नहीं, तो भी बास सुबास ।।

सत्संगति बुधि की जड़ता हर लेती है, वाणी की सच्चाई लाती है, सम्मान है आदर का कारण बनती है, कीर्ति का विस्तार करती। है तथा जीवन को उन्नति के पथ की ओर अग्रसर करती है। बाल्मीकि जो पहले रत्नाकर डाकू थे, नारद मुनि के संपर्क में आने । पर बाल्मीकि बन गए। दुर्दीत डाकू अंगुलिमाल महात्मा बुद्ध का सान्निध्य प्राप्त करके अपनी क्रूरता खो बैठा और उसने बौद्ध धर्म अपना लिया।

मनुष्य, चाहे वह बड़ा हो या छोटा, संगति से ही पहचाना जाता है। संगति की छाप उसके आचरण पर पड़ती है। एक अच्छा लड़का भी कुसंगति में पड़कर चोर और जेबकतरा बन सकता है। आजकल नशे की लत कुसंगत का ही परिणाम है। जन्म से कोई भी व्यक्ति न अच्छा होता है, न बुरा। यही कारण है कि अच्छे मनुष्यों के साथ रहने पर सुख और यश मिलता है। सत्संग के द्वारा अपने अंदर गुण अंकुरित एवं पल्लवित होते हैं। इसके विपरीत बुरे मनुष्यों की संगति में रहने से सुख तो मिलता नहीं, बल्कि जो प्राप्त है वह भी छिन जाता है।

सत्संगति अनेक गुणों की जननी है तो कुसंगति अनेक दुर्गुणों की पोषक। अत: व्यक्ति को चाहिए कि सदैव श्रेष्ठजनों की संगति करे और बुरे लोगों की संगति से बचे।

विद्यार्थी जीवन में संगति के प्रति सावधानी और भी आवश्यक है, क्योंकि इसी काल में भविष्य पर अच्छे-बुरे प्रभाव अंकित हो जाते हैं, जो जीवन भर चलते हैं। इसलिए विद्यार्थी को अपनी संगति के प्रति विशेष सावधानी रखनी चाहिए।

महानगरों में बढ़ता प्रदूषण

विज्ञान ने आज मानव को अनेक उपहार दिए हैं। इन्हीं के कारण ही आज मानव जल, थल और आकाश का स्वामी बन बैठा है। विज्ञान ने जहाँ हमें अनेक प्रकार के वरदान दिए हैं, वहीं कुछ समस्याओं को भी जन्म दिया है, जिनमें प्रदूषण की समस्या प्रमुख है। ‘प्रदूषण’ का अर्थ है- विशेष प्रकार से दूषित होना। यानी पर्यावरण के संतुलन का दोषपूर्ण हो जाना। प्रदूषण के कारण ही जल, थल और वायु दूषित हो गई है।

सभ्यता के विकास के साथ जंगल कटते गए। ज्यों-ज्यों आबादी बढ़ी आवास के लिए अधिक स्थान की आवश्यकता पड़ी। खेती के लिए अधिक भूमि तथा ईंधन के लिए अधिक लकड़ी की आवश्यकता हुई । इस प्रकार भूमि की कमी को वनों की कटाई करके करते रहे। वनों की अंधाधुंध कटाई के कारण प्रकृति का संतुलन बिगड़ गया है। साथ ही सड़कों पर बढ़ते यातायात तथा औद्योगिक इकाइयों के कारण निकलते धुएँ से वायु प्रदूषित हो रहा है। आसमान में उड़ते विमानों, कल कारखानों तथा वाहनों आदि से प्रदूषण बढ़ता जा रहा है। नगरों से निकलने वाला कचरा, गंदगी, कारखानों का प्रदूषित अवशेष नदियों में प्रवाहित करने से जल पीने योग्य नहीं रह गया। गंगा जैसी नदी जिसका जल पवित्र था वह आज प्रदूषण की चपेट में है। यह प्रदूषित जल पेड़-पौधे, जीव-जंतुओ और मानव-जीवन सभी के लिए हानिकारक है। धरती का जलस्तर भी गिर गया है। वाहन, लाउडस्पीकर, यान रेलगाड़ियाँ, कारखाने आदि चारों तरफ भरपूर ध्वनि-प्रदूषण फैलाते हैं। कारखाने विषैली गैस तथा धुआँ छोड़ते हैं। सड़कों पर लाखों की संख्या में दौड़ते वाहन कार्बन तथा अन्य गैस छोड़ते हैं जो मनुष्य ही नहीं वनस्पतियों तक के लिए हानिकारक हैं। बिजली बनाने के संयंत्र भी धुआँ और राख उगलते हैं। ये सब वायु को विषाक्त बना देते हैं। ये जहरीली हवा रक्तचाप, दमा, त्वचा संबंधी अनेक रोगों को जन्म देती है। इस प्रदूषित वायु के कारण शहरों के पेड़े-पौधे भी प्रभावित होते हैं। इस प्रकार वायु प्रदूषण, जल प्रदूषण, भूमि प्रदूषण और ध्वनि प्रदूषण आदि प्रदूषण के प्रकार हैं।

बड़े-बड़े नगरों में आवास की भारी समस्या है। इसीलिए वहाँ झुग्गी झोपड़ियाँ बन जाती हैं जिसमें मज़दूर आदि रहते हैं। इसके कारण गंदगी होती है तथा भूमि प्रदूषण होती है। भूमि प्रदूषण के कारण अनेक रोगों का जन्म होता है।

यद्यपि प्रदूषण एक विश्वव्यापी समस्या है तथापि इसका एक मात्र समाधान वृक्षारोपण है। वृक्ष वातावरण को शुद्ध वायु प्रदान करते हैं। औद्योगिक इकाइयों को यदि घनी आबादी वाले क्षेत्रों से हटाकर नगरों से दूर स्थापित किया जाए, इससे प्रदूषण के विस्तार को रोका जा सकता है। वनों की अंधाधुंध कटाई पर रोक लगाई जानी चाहिए।

मेरा प्यारा भारत वर्ष

हमारा देश भारत संसार का सर्वश्रेष्ठ देश है। यह एक बहुत ही प्राचीन देश है। यह देश अपनी भौगोलिक, सांस्कृतिक व प्राकृतिक विभिम्नताओं के कारण विश्वभर में अनूठा है। पहले इसका नाम आर्यावर्त था। मुगलों ने इसका नाम हिंदुस्तान और अंग्रेज़ों ने इंडिया रखा। यहाँ के निवासी आर्य कहलाते थे। महा प्रतापी राजा दुष्यंत के पुत्र भरत से इसका नाम भारत पड़ी।

इसके उत्तर में हिमालय, दक्षिण में हिंद महासागर, पूर्व में बंगलादेश तथा वर्मा है। पश्चिम में पाकिस्तान तथा अरब सागर है। इसके पड़ोसी देशों में नेपाल, बंगलादेश, चीन, वर्मा, श्रीलंका आदि हैं। जनसंख्या की दृष्टि से भारत विश्व का दूसरे नंबर का देश है। इसकी जनसंख्या एक अरब तीस करोड़ हैं। संसार के जितने मौसम होते हैं वे सब हमारे देश में देखने को मिलते हैं। सरदी, गरमी, बरसात सभी तरह के यहाँ मौसम होते हैं। यहाँ का धरातल पहाड़ी, समतल, रेतीला सभी प्रकार का है। यहाँ सालों भर बहने वाली नदियाँ गंगा, यमुना, कृष्णा और कावेरी जैसी नदियाँ यहाँ की पुण्यभूमि को सींचती हैं। यहाँ अनेक धर्म, जाति और संप्रदायों के लोग आपस में प्रेम से रहते हैं। यहाँ अनेक भाषाएँ बोली जाती हैं। तथा हर प्रांत के अलग-अलग त्योहार व उत्सव मनाए जाते हैं।

स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद इस देश ने शिक्षा, उद्योग, कला-कौशल, निर्माण कार्य, प्रशासन आदि सभी क्षेत्रों में काफ़ी उन्नति की है। हमारे देश के नागरिकों को जीवन स्तर ऊँचा उठा है। विश्व में बहुत आदर की दृष्टि से देखा जाता है। यहाँ वास्तुकला, शिल्पकला, हस्तकला के उत्कृष्ट नमूने देखने को मिलते हैं। ऐतिहासिक इमारतों में ताजमहल, कुतुबमीनार, कोणार्क का सूर्य मंदिर, अजंता ऐलोरा की गुफाएँ आदि विश्व के लिए आकर्षण का केंद्र हैं। सचमुच हमारा देश भारत संसार का सर्वश्रेष्ठ देश है। शायद इसलिए कवि इकबाल ने कहा था कि- ‘सारे जहाँ से अच्छा हिंदोस्ताँ हमारा।

पुस्तकालय

पुस्तकें ज्ञान का भंडार होती हैं। पुस्तकें हमें अनेक विषयों से अनेक प्रकार की जानकारी प्रदान कराती हैं। ‘पुस्तकालय’ ज्ञान का मंदिर होता है, जो हमारी ज्ञान-पिपासा शांत कराने में महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा करती है। यह ज्ञान तथा मनोरंजन प्रदान करने का उत्तम साधन है।

पुस्तकालय में अनेक प्रकार की पुस्तकें, समाचार पत्र-पत्रिकाएँ तथा अन्य पठन-सामग्री संग्रहीत की जाती हैं। इन पुस्तकों पर विषय के अनुसार क्रमसंख्या पड़ी रहती है। जब किसी को कोई पुस्तकें दी जाती हैं तो पुस्तक पर अंकित क्रमसंख्या उसके नाम के आगे रजिस्टर में दर्ज कर दी जाती हैं। जब किसी व्यक्ति को किसी पुस्तक की आवश्यकता पड़ती है, तो वह पुस्तक का क्रमांक या पुस्तक का नाम और पुस्तकालयाध्यक्ष को बताता है और पुस्तकालयाध्यक्ष पुस्तक को निकालकर उसे दे देता है। इस प्रकार पुस्तकालय को काम अत्यंत व्यवस्थित एवं आधुनिक है।

पुस्तकालय निजी तथा सार्वजनिक दो प्रकार के होते हैं। कुछ लोग व्यक्तिगत तौर पर पुस्तकों को जमा करते हैं तथा घरेलू पुस्तकालय तैयार कर लेते हैं जो निजी पुस्तकालय कहलाता है। दफ़्तर, स्कूल, कॉलेज तथा प्रत्येक क्षेत्र में सार्वजनिक पुस्तकालयों में वैज्ञानिक सुविधाएँ भी उपलब्ध हैं।

हर पुस्तकालय में वाचनालय होता है जहाँ बच्चे-बड़े कुछ भी पढ़ सकते हैं। पुस्तकालय में हर भाषा में समाचार पत्र उपलब्ध होते हैं। हर भाषा है की पुस्तकों का लाभ उठाना है तो पुस्तकालय इसका सर्वोत्तम साधन है। पुस्तकें हमारी सबसे अच्छी मित्र है तथा पुस्तकालय इन्हें दिलाने का अच्छा साधन हैं। पुस्तकालय के प्रति हमारा कुछ कर्तव्य भी है। एक तो हमें पुस्तकों की सुरक्षा का पूरा ध्यान रखना चाहिए। उसके पृष्ठ न फाडू, न ही गंदा करें, इसके लिए सदैव सतर्क रहना चाहिए। कई लोग पुस्तक का नुकसान करते हैं, इससे वे जन व समाज सबका बुरा करते हैं। ऐसा करके न केवल पुस्तक का नुकसान करते हैं बल्कि अन्य लोगों को उस पठन-सामग्री का लाभ नहीं मिल सकता है।

पुस्तकालयों के कुछ नियम होते हैं जिनका पालन करना अनिवार्य है। पुस्तकालय में निश्चित समय के लिए पुस्तकें घर ले जाने की अनुमति होती है। पुस्तकालय का उपयोग करने वालों को चाहिए कि इस अवधि से पहले ही पुस्तकें वापस कर दें। पुस्तकालय में शांत बैठकर पुस्तकों या पत्र-पत्रिकाओं का अध्ययन करना चाहिए। पुस्तकों पर कोई निशान नहीं लगाना चाहिए और न ही उनमें कुछ फाड़ना चाहिए।

इस प्रकार हम पुस्तकालयों का पूरी तरह से लाभ उठा सकते हैं। पुस्तकालय सार्वजनिक संपत्ति होती है। इसलिए वहाँ बैठकर पुस्तकालय के नियमों का पालन करना चाहिए और शांति बनाए रखनी चाहिए। वहाँ जाकर समय का सदुपयोग करना चाहिए।

कुशल भारत : सफल भारत

सफलता जादू से नहीं मिलती है। सफल होने के लिए जरूरी कौशल की आवश्यकता होती है। यह सार्वभौमिक सत्य नई पीढ़ी पर भी उतना ही लागू होता है। युवा ऊर्जा किसी भी देश के सामाजिक एवं आर्थिक विकास को गति देने वाली ताकत बन सकती है, बशर्ते उसे प्रभावी रूप से दिशा दी जाए। कौशल विकास और रोजगार इस ताकत को आगे बढ़ाने के सबसे अच्छे साधन हैं।

युवा जनसंख्या के मामले में भारत के पास दुनिया का सबसे बड़ा भंडार है, फिर भी भारतीय नियोक्ता कुशल मानव बल की जबरदस्त किल्लत से जूझ रहे हैं। कारण रोजगार के लिए आवश्यक विशेषज्ञता की कमी। श्रम ब्यूरो की 2014 की रिपोर्ट के अनुसार भारत में औपचारिक रूप से कुशल कार्यबल का वर्तमान आकार केवल 2 प्रतिशत है। इसके अलावा पारंपरिक शिक्षा प्राप्त करने वाले युवाओं के बड़े वर्ग की रोजगार संबंधी योग्यता की चुनौती भी है। भारतीय शिक्षा व्यवस्था शानदार मस्तिष्कों को जन्म देती रही है, लेकिन रोजगार विशेष के लिए जरूरी कौशल की उसमें कमी है। कॉलेजों और विश्वविद्यालयों से निकल रही प्रतिभा और रोजगार योग्य कौशल की संभावना एवं मानक के मामले में उसकी अनुकूलता के बीच बड़ा अंतर है। अंग्रेजी बोलने वाली जनसंख्या के इस वर्ग में राष्ट्र तथा पूरी दुनिया की कौशल संबंधी जरूरत पूरी करने की क्षमता है। जरूरत है तो सटीक एवं पर्याप्त कौशल विकास तथा प्रशिक्षण की, जो इस ताकत को तकनीकी रूप से कुशल मानव बल के सबसे बड़े स्रोत में बदल सकते हैं।

सरकार द्वारा आरंभ किए गए स्किल इंडिया मिशन का लक्ष्य कौशल प्रदान करते हुए रोज़गार के लिए कुशल कार्य बल तैयार कर इस समस्या का समाधान उपलब्ध कराना है। मिशन का लक्ष्य 2022 तक 40 करोड़ से अधिक लोगों को कौशल प्रदान करना तथा उनकी पसंद के कौशलों का प्रशिक्षण देते हुए उनकी रोजगार संबंधी योग्यता को बढ़ाना है। समावेशी वृद्धि के लिए सभी स्तरों पर कुशल मानव संसाधन अनिवार्य है। कौशल विकास को अलग-थलग करके नहीं देखा जा सकता। इसे कौशल प्रशिक्षण को एक ही समय में शिक्षा तथा रोजगार से जोड़ने की अटूट प्रक्रिया होना पड़ेगा। सरकारी एजेंसियाँ और व्यवस्था अकेले यह काम पूरा नहीं कर सकते। कौशल प्रदान करने की प्रक्रिया में निजी क्षेत्र, गैर सरकारी संगठनों, कौशल प्रशिक्षण के अनुभव वाले शिक्षण संस्थानों को जुटना पड़ेगा। सभी वर्गों को समान महत्त्व दिए जाने की आवश्यकता है।

युवाओं को कौशल प्रदान करने के लिए शिक्षा का व्यवसायीकरण बेहद महत्त्वपूर्ण है। उसके साथ ही समाज के अन्य वर्गों जैसे महिलाओं, हाशिए पर पड़े लोगों, आदिवासियों आदि को ऐसे प्रशिक्षण कार्यक्रमों की आवश्यकता है, जो उनकी विविध एवं विशिष्ट जरूरतों के अनुसार हों। हाशिए पर पड़े अधिकतर वर्गों को कौशल प्रशिक्षण प्रदान करने में निरक्षरता एक समस्या हो सकती है,
लेकिन महिलाओं को कौशल प्रशिक्षण प्रदान करने में पारिवारिक मसलों और सामाजिक बंधनों से भी जूझना पड़ सकता है। किसी भी कार्यक्रम को सफल बनाने के लिए इन तथ्यों को ध्यान में रखने की ज़रूरत है।

भारत पहले ही उच्च आर्थिक वृद्धि की राह पर चलना आरंभ कर चुका है। इस गति को बढ़ाने के लिए हमें ऐसे कौशल के उन्नयन पर ध्यान देने की जरूरत है, जो वैश्विक आर्थिक परिदृश्य के अनुसार प्रासंगिक हैं। कौशल प्रशिक्षण की सुविधाओं का विस्तार ही एकमात्र चुनौती नहीं है, बल्कि अंतर्राष्ट्रीय मंच पर स्पर्धा करने योग्य बनने के लिए कौशल की गुणवत्ता बढ़ाना भी एक चुनौती ही है। राष्ट्रीय कौशल विकास एवं उद्यमशीलता नीति 2015 गति के साथ, मानक के अनुरूप एवं सतत रूप से व्यापक स्तर पर कौशल प्रदान करने की चुनौती से निपटने का प्रस्ताव करती है। उसका लक्ष्य कौशल प्रदान करने के लिए देश में चल रही सभी गतिविधियों को एक सर्वोच्च रूपरेखा प्रदान करना है। वह कौशल प्रदान करने की प्रक्रिया का मानकीकरण करने और उसे राष्ट्रीय तथा अंतर्राष्ट्रीय स्तरों पर माँग के केंद्रों से जोड़ने का प्रयास भी करती है।

प्रयास के साथ कौशल में वृधि करने से सफलता मिलती है। सरकार के हाल के प्रयासों के कारण कौशल विकास के कार्यक्रम ने ‘आंदोलन’ का रूप धर लिया है। सरकार के इन प्रयासों के फल मिलने में कुछ समय लग सकता है, किंतु भविष्य में ‘कुशल भारत’ देश को प्रसन्न, स्वस्थ एवं संपन्न अर्थात् ‘कौशल भारत’ होने की दिशा में ले जाएगा और इस तरह कुशल भारत, कौशल भारत को नारा चरितार्थ हो जाएगा।

आतंकवाद

आतंकवाद कैसा भी हो उसका उद्देश्य भय पैदा करना ही होता है। आतंकवाद का अर्थ है-हिंसा की धमकी अथवा हिंसापूर्ण कार्य अथवा लोगों में भय पैदा करके अपनी माँगें मनवाना। लैटिन भाषा के शब्द टेरेरे (Terrere) से बना टेरर (Terror) शब्द का अर्थ, आतंक या भय है।

आतंकवाद के कई रूप हैं; जैसे-धार्मिक आतंकवाद, जिसके अंतर्गत अलकायदा, लश्कर ए तैयबा, आई. एस. आई. एस जैसे आतंकी संगठन शामिल हैं। अलकायदा प्रमुख ओसामा बिन लादेन द्वारा अमेरिका में एक बड़े आतंकी घटना 9/11 को अंजाम दिया गया था, तो वहीं वर्ष 2013 में अलकायदा से अलग होकर अबू बकर अल बगदादी ने ‘आई. एस. आई. एस. का गठन किया। आई. एस. आई. एस. का पूरा नाम ‘इस्लामिक स्टेट ऑफ इराक एंड सीरिया’ है। इस संगठन ने जून, 2014 में मोसुल समेत इराक के कई इलाकों पर कब्ज़ा करने और पहले से सीरियाई कब्जे वाले इलाकों को मिलाकर खिलाफत साम्राज्य की घोषणा की और बगदादी ने खुद को खलीफा घोषित कर दिया। आई. एस. आई. एस. ने वर्ष 2013 में लगभग 350 आतंकी हमले किए। अभी हाल ही में 15 नवंबर, 2015 को पेरिस में हुए आतंकी हमले में 130 से अधिक लोगों के मारे जाने की सूचना है। इसको इसी आतंकी संगठन द्वारा अंजाम दिया गया है। इस आतंकी संगठन ने पूरे विश्व को आतंकित कर दिया है। अमेरिका, रूस समेत विश्व की कई बड़ी शकि तयाँ इस आतंकी संगठन को समाप्त करने के लिए लगातार सीरिया में बमबारी कर रही हैं और आई. एस. आई. एस. के ठिकानों को निशाना बना रही हैं। आतंकवाद के रूप में नारको आतंकवाद, साइबर आतंकवाद, आत्मघाती आतंकवाद एवं वैचारिक आतंकवाद भी पूरे विश्व में फैल चुका है।

वर्तमान में भारत भी आतंक से पीड़ित है, वह भी अपने पड़ोसी देश द्वारा प्रायोजित आतंकवाद के कारण। पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी आतंकवाद की भेंट चढ़ गईं। भारत की संसद पर आतंकी हमले हुए और देश की संप्रभुता को तहस-नहस करने का प्रयास किया गया। देश की आर्थिक राजधानी कही जाने वाली मुंबई बार-बार आतंकियों के निशाने पर रही है तो वहीं पंजाब और जम्मू-कश्मीर भी आतंक का दंश झेल रहे हैं। विशेषकर जम्मू-कश्मीर पाकिस्तान द्वारा प्रायोजित आतंकवाद का मुख्य शिकार बना हुआ है।

आतंकवाद पैर पसारते-पसारते विश्व स्तर तक अपनी जड़ जमा चुका है। उसके तार आज विश्व स्तर पर फैले हैं। उसे सबसे ताकतवर, समृद्ध और सुरक्षा की दृष्टि से सशक्त माना जाता है। अमेरिका दूसरे देशों में पनपते हुए आतंक की खिल्ली उड़ाता था, आतंक से बेखबर अमेरिका के गगनचुंबी टावर जब धू-धू करके धरती में समा गए, तब उसके कान खड़े हुए। संपूर्ण अमेरिका काँप उठा। वहाँ के राष्ट्रपति ने हाथ उठाकर प्रतिज्ञा की कि आतंकी संगठन का मुखिया ओसामा बिन लादेन यदि चूहे के बिल में भी छिपा होगा, वहाँ से भी ढूंढ़ निकालेंगे। इस कारण अफगानिस्तान तहस-नहस हुआ, पाक में भी संदिग्ध स्थानों पर बम बरसाए, परंतु लादेन का अता-पता नहीं चला। लादेन ने अफगानिस्तान में रहते अपना अस्तित्व दिखाया। इसी तरह पाक में बैठकर ही मुंबई और दिल्ली में तहलका मचाया। इस तरह आतंकियों की अंतर्राष्ट्रीय शक्ति जोर पकड़ती जा रही है। इस तरह प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष रूप से विश्व के अनेक देश आतंक से प्रभावित हैं।

लाइलाज होता हुआ आतंकवाद ऐसे ही प्रचार-प्रसार पाता गया तो देशों पर इनका साम्राज्य भी हो सकता है। आतंकी गुटों ने परमाणु केंद्रों पर अधिकार कर लिया तो बंदर के हाथ में गई तलवार सर्व विनाश का कारण बन सकती है। समय रहते राष्ट्रों ने एकजुट होकर आतंक के विरुद्ध इच्छाशक्ति नहीं दिखाई तो आतंकवाद अपना प्रभुत्व बढ़ाता जाएगा। उसके बाद चेतना आई तो बहुत देर हो गई होगी। आज खुद की बनाई गई कुल्हाड़ी अपने ही पैरों में गिरती हुई दिखाई दे रही है। कवि की निम्न पंक्तियाँ भारत में आतंक के बारे में सटीक ही हैं

संसद पर जब चली गोलियाँ, भारत की आँख खुली रह जाय।
हुए जवान शहीद भारत के, अफ़जल सुरक्षा दिया बढ़ाय।
आँसू बहाए शहीद पत्नियाँ, अफ़जल निश्चित रहा हर्षाय।
हुआ धमाका फिर मुंबई में, सोता भारत फिर-फिर जगजाय।।

वर्तमान शिक्षा और भविष्य

मानव जीवन में शिक्षा का विशेष महत्त्व है। शिक्षा ही वह आभूषण है जो मनुष्य को सभ्य एवं ज्ञानवान बनाता है, अन्यथा शिक्षा के बगैर मनुष्य को पशु के समान माना गया है। शिक्षा के महत्व को समझते हुए ही प्रायः शैक्षणिक गतिविधियों को वरीयता दी जाती है। भारत की वर्तमान शिक्षा प्रणाली स्कूल, कॉलेजों पर केंद्रित एक व्यवस्थित प्रणाली है।

भारत की जो वर्तमान शिक्षा प्रणाली है, वह प्राचीन भारत की शिक्षा प्रणाली से मेल नहीं खाती है। भारत की वर्तमान शिक्षा प्रणाली का ढाँचा औपनिवेशिक है, जब कि प्राचीन भारत की शिक्षा प्रणाली गुरुकुल आधारित थी। वर्तमान शिक्षा प्रणाली एक संशोधित एवं अद्यतन शिक्षा प्रणाली तो है ही यह ज्ञान-विज्ञान के नए-नए विषयों को भी समाहित करती है। कंप्यूटर शिक्षा इसका प्रत्यक्ष उदाहरण है जिसने मानव जीवन को सहज, सुंदर एवं सुविधाजनक बनाया है। इस शिक्षा प्रणाली के अंतर्गत देश में नए-नए विश्वविद्यालयों, कॉलेजों एवं स्कूलों की स्थापना की गई और यह प्रक्रिया अनवरत जारी है। इसमें शिक्षा का प्रचार-प्रसार बढ़ाने के साथ-साथ साक्षरता दर में भी बढ़ोतरी हुई है। वर्ष 2011 की जनगणना के आकड़ों के अनुसार इस समय देश की कुल साक्षरता दर 73.0 प्रतिशत है।

वर्तमान शिक्षा प्रणाली की एक प्रमुख विशेषता यह है कि इसमें महिला साक्षरता की तरफ विशेष ध्यान दिया गया है। महिला साक्षरता बढ़ने से आज समाज में महिलाओं की स्थिति सुदृढ़ हुई है। वर्तमान में महिलाओं की साक्षरता दर 64.6 प्रतिशत है।

वर्तमान शिक्षा प्रणाली की खूबियों एवं विशेषताओं के साथ-साथ इसकी कुछ कमजोरियाँ भी हैं जिसका हमारे समाज एवं देश पर बुरा प्रभाव दिखाई पड़ रहा है। जैसे-आज संयुक्त परिवार टूटकर एकाकी परिवारों में और एकाकी परिवार नैनो फेमिली के रूप में विभाजित हो रहे हैं। अब परिवारों में बड़े बुजुर्गों का स्थान घटता जा रहा है जो बच्चों को कहानियों एवं किस्सों द्वारा नैतिक शिक्षा देते थे। दादी, नानी की कहानियों का स्थान टी. वी., कार्टून, इंटरनेट और सिनेमा ने ले लिया है। जहाँ से मानवीय मूल्यों की शिक्षा की उम्मीद करना बेमानी बात है।

विद्यालयों में ऐसी शिक्षा जो बच्चों के चरित्र का निर्माण कर उनमें सामाजिक सरोकार विकसित करे उसका स्थान व्यावसायिक शिक्षा ने ले लिया है, जिसके अंतर्गत हम एक आत्मकेंद्रित, सामाजिक सरोकारों और मूल्यों से कटे हुए एक इंसान का निर्माण कर रहे हैं, जिससे समाज में बिखराव की स्थिति पैदा हो रही है। वर्तमान शिक्षा प्रणाली का एक बड़ा दोष यह भी है कि यह रोजगारोन्मुख नहीं है अर्थात इसमें कौशल और हुनर का अभाव है। स्कूल, कॉलेज और विश्वविद्यालय डिग्रियाँ बाँटने वाली एजेंसियाँ बन गई हैं।

वर्तमान शिक्षा प्रणाली को व्यावहारिक, सफल, एवं आदर्श स्वरूप प्रदान करने के लिए इसमें बदलाव एवं सुधार की आवश्यकता है। जिससे यह जीवन को सार्थकता प्रदान करने एवं आजीविका जुटाने में सक्षम हो सके।

लोकतंत्र और चुनाव

भारतीय लोकतंत्र को विश्व का सबसे बड़ा लोकतंत्र कहा जाता है। वर्ष 1952 में वयस्क मताधिकार के आधार पर देश में संपन्न हुए पहले आम चुनाव के साथ हमारे देश में लोकतांत्रिक प्रक्रिया की शुरुआत हुई और क्रमशः नई सफलताओं के साथ भारतीय लोकतंत्र अब तक छह दशक से भी अधिक समय का सफ़र तय कर चुका है।

लोकतंत्र के शाब्दिक अर्थ के अनुसार यह शासन की एक ऐसी पद्धति है, जिसमें सत्ता सामूहिक रूप से देश की जनता में निहित होती है। जनमत निर्माण में समाज के कमज़ोर से कमजोर व्यक्ति को आम चुनाव में स्वतंत्र रूप से भाग लेने का अधिकार होता है।

भारतीय लोकतंत्र का मूल आधार यहाँ की जनता है और जनता द्वारा चुने गए प्रतिनिधि संसद और विधान सभाओं में जनता का प्रतिनिधित्व करते हैं। हमारे देश में संसदीय लोकतंत्र की बुनियाद मज़बूत है जो कि स्वतंत्रता, समानता एवं बंधुत्व जैसे आदर्शों पर टिकी है। भारतीय लोकतंत्र का सबसे प्रबल पक्ष इस बात में निहित है कि जब भी सरकार जनता की आकांक्षाओं पर खरी नहीं उतरती, तब जनता अपने मताधिकार का प्रयोग करके सरकार को सत्ता से बाहर कर देती है, जिसका प्रत्यक्ष उदाहरण वर्ष 2014 में संपन्न 16वें लोक सभा चुनाव परिणाम के रूप में देखा जा सकता है। उल्लेखनीय है कि 16वें लोकसभा चुनाव में 10 वर्षों से केंद्रीय सत्ता पर काबिज संप्रग सरकार को जनता ने धूल चटा दिया और एन डी ए गठबंधन को सत्ता की कमान सौंपी।

भारतीय लोकतंत्र के अनेक प्रबल पक्ष एवं विशेषताओं के होते हुए भी इसकी कुछ कमियाँ भी दिखाई पड़ती हैं। भूख, गरीबी, कुपोषण, बेरोजगारी, किसानों के आत्महत्या की घटनाएँ, महँगाई एवं भ्रष्टाचार आदि भारतीय लोकतंत्र की कमजोरी के रूप में दिखाई पड़ती है। भारतीय लोकतंत्र को हानि पहुँचाने में सांप्रदायिकता, जातिवाद, क्षेत्रवाद एवं भाषावाद जैसी समस्याओं ने महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई है। संसद में होने वाले हंगामे और सांसदों के अमर्यादित व्यवहार ने संसदीय गरिमा का अवमूल्यन किया है, जिससे संसद की गरिमा का विगत कुछ वर्षों में ह्रास हुआ है।

किसी भी लोकतांत्रिक देश में चुनाव महापर्व का महत्त्व रखता है परंतु दुखद बात यह है कि भारत में कई चुनाव सुधारों को लागू करने बाद भी हम एक निर्दोष चुनाव प्रणाली विकसित नहीं कर पाए हैं। आज भी चुनावों में धनबल और बाहुबल का बढ़-चढ़कर इस्तेमाल हो रहा है, जिसका प्रत्यक्ष उदाहरण अक्तूबर-नवंबर 2015 में संपन्न बिहार विधान सभा चुनाव हैं।

इन सब बातों के बावजूद भारतीय चुनाव प्रणाली में पारदर्शिता और सुधार के लिए समय-समय पर चुनाव आयोग द्वारा महत्त्वपूर्ण कदम उठाए गए हैं; जैसे-पूर्व चुनाव आयुक्त टी. एन. शेषन की पहल पर मतदाता पहचान पत्र जारी किए गए, चुनावों में पारदर्शित लाने के लिए इलेक्ट्रॉनिक वोटिंग मशीन (ई. वी. एम.) का प्रयोग शुरू किया गया, सितंबर 2013 से ई. वी. एम. के साथ ‘वोटर वेरीफाइड पेपर ऑडिट ट्रेल’ (वीवीपीएटी) प्रणाली को जोड़ दिया गया, तो वहीं None of the above-NOTA का विकल्प उपलब्ध करवाकर ‘राइट टू रिजेक्ट’ का अधिकार मतदाताओं को उपलब्ध करवाया गया।

अतः भारतीय लोकतंत्र विश्व का सबसे बड़ा लोकतंत्र होने के साथ-साथ एक निष्पक्ष और पारदर्शी चुनाव प्रणाली विकसित करने में सफल रहा है, जिसमें उत्तरोत्तर सुधार भी हो रहे हैं, जो एक मजबूत लोकतंत्र का प्रमुख लक्षण है।

बढ़ता जल संकट

जल मनुष्य, पशु, पक्षी व वनस्पति सभी के अस्तित्व व संवर्धन के लिए आधारभूत आवश्यकता है। गेटे ने जल के महत्त्व पर प्रकाश डालते हुए लिखा है कि प्रत्येक वस्तु जल से उत्पन्न होती है व जल के द्वारा ही प्रतिपादित होती है। जल के महत्त्व के मद्देनज़र यू.एन.ओ. ने वर्ष 2003 को ‘अंतर्राष्ट्रीय स्वच्छ जल वर्ष’ के रूप में मनाया।

जल के महत्त्व पता होने के बावजूद भी आश्चर्य है कि जल का पूर्ण सदुपयोग न होकर अपव्यय व बरबादी हो रही है। आज भारत में प्रति व्यक्ति वार्षिक जल उपलब्धता 1900 क्यूबिक मीटर है। ऐसा अनुमान है कि इस दशक के अंत तक यह स्तर गिरकर 1000 क्यूबिक मीटर हो जाएगा। यदि किसी देश में प्रतिव्यक्ति वार्षिक जल उपलब्धता 100 क्यूबिक मीटर से कम हो जाती है तब उस देश को जल संकट से ग्रस्त देश माना जाता है। उपर्युक्त तथ्य से स्पष्ट है कि यदि हमने जल-संरक्षण की तरफ ध्यान नहीं दिया तो भारत शीघ्र ही जल संकट से ग्रस्त देश की श्रेणी में आ जाएगा।

देश के तीव्र आर्थिक विकास, शहरीकरण, औद्योगीकरण बढ़ती जनसंख्या व पाश्चात्य जीवन शैली को अंधानुकरण के कारण जल की माँग अनियंत्रित रूप से बढ़ती जा रही है। गौरतलब है कि अंतर्राष्ट्रीय खाद्यनीति अनुसंधान ने भी अनुमान लगाया है कि भारत में जल की माँग वर्ष 2000 में 634 बिलियन क्यूबिक मीटर थी जो बढ़कर 2025 में 1092 बिलियन क्यूबिक मीटर हो जाएगी। ऐसी संभावना व्यक्त की गई है कि भविष्य में जल के मुद्दे को लेकर लड़ाइयाँ लड़ी जाएँगी।

यह भी पाया गया है कि पानी की बरबादी में समाज के संभ्रांत व धनाढ्य कहे जाने वाले वर्गों की भूमिका सर्वाधिक है। पंचसितारा होटलों व धनाढ्य वर्ग की कोठियों में स्विमिंग पूल’ का निर्माण करवाया जाता है, मखमली दूब के बगीचों से ये होटल व कोठियाँ शोभायमान होती हैं। इसके अतिरिक्त, धनाढ्य वर्ग भूमिगत जल का भी अत्यधिक प्रयोग करता है। उनके अपव्यय का खामियाजा निम्न वर्ग को भुगतना पड़ता है।

जल की बढ़ती माँग को पूरा करने के लिए भूमिगत जल की अंधाधुंध निकासी की जाती है जिससे भूमिगत जल का स्तर काफ़ी नीचे चला जाता है। गुजरात के मेहसाणा व तमिलनाडु के कोयम्बटूर जिलों में भू-जल स्रोत स्थाई तौर पर सूख चुके हैं। अन्य राज्यों में स्थिति अच्छी नहीं है। भविष्य में पेयजल की आपूर्ति पर संकट गहराएगा।

इस समस्या के निराकरण हेतु समाज के सभी वर्गों व सरकार को सामूहिक सतत प्रयास करने होंगे। हर व्यक्ति को अपनी जीवनशैली व प्राथमिकताएँ इस प्रकार निर्धारित करनी चाहिए ताकि अमृतरूपी जल की एक बूंद भी व्यर्थ न जाए। अमीर वर्ग द्वारा पानी की बरबादी पर रोक लगाने हेतु सार्थक कदम उठाए जाने चाहिए, अवैध वस्तु वे बोरिंग पर रोक लगाने की कानूनी कार्यवाही की जानी चाहिए तथा वैध बोरिंगों से भी नियंत्रित व निर्दिष्ट मात्रा में ही जल का निष्कासन हो, इसकी जाँच हेतु प्रभावी कदम उठाए जाने चाहिए। पारंपरिक जल संरक्षण वें आधुनिक जल संरक्षण व्यवस्थाओं का उपयोग जल संरक्षण व प्रबंधन हेतु न्यायोचित व समन्वित ढंग से किया जाना चाहिए।

मेट्रो यात्रा

मेट्रो का नाम हमारे लिए काल्पनिक था। मेट्रो रेल की तरह है। दिल्ली में इसे साकार रूप देने के लिए कार्य सुचारु रूप से गति से होने लगा। स्तंभ खड़े होने लगे। जैसे-जैसे स्तंभ खड़े होते गए, स्तंभों के ऊपर पटरी टाँग दी गई। देखते ही देखते ऊपर ही स्टेशन बनने लगे। इस तरह स्तंभ, स्तंभों के ऊपर पटरी, स्टेशन, मेट्रो खड़ी हो गई। जनता के लिए सब कुछ आश्चर्य। लोगों को लगने लगा कि दिल्ली की बढ़ती हुई जनसंख्या के कारण यातायात की व्यवस्था चरमरा रही थी, वह व्यवस्थित हो जाएगी।

दिल्ली की जनसंख्या अप्रत्याशित रूप से बढ़ रही है, उसके अनुरूप वाहनों की संख्या में अप्रत्याशित वृद्धि हो रही है, जिसके कारण वाहनों की गति 10-15 कि. मी. प्रतिघंटा तक सिमट गई है? मेट्रो स्टेशनों की सुव्यवस्था को भी देखकर यात्री हतप्रभ होते हुए सुखद आश्चर्य का अनुभव करते हुए यात्रा करता है। यात्री टिकट लेकर सीढ़ियों से ऊपर पहुँचा नहीं कि मेट्रो आ गई। मेट्रो से प्रतीक्षा की तड़प भी समाप्त हो गई। बस यात्रा में जहाँ घंटों का समय लगता था, भीड़ और धक्का-मुक्की में श्वांस ऊपर को आती थी और भी अनेक परेशानियाँ थीं, उन सबसे छुटकारा मिल गया।

जिस दिन मेट्रो की गाड़ी को हरी झंडी दिखाई गई, उस दिन मेट्रो में यात्रा के लिए मुफ्त प्रबंध किया गया था। आश्चर्यजनित इच्छा के बिना किसी गंतव्य स्थान के मेट्रो की यात्रा का आनंद लेने के लिए भीड़ उमड़ पड़ी और बहुत से लोग उस दिन यात्रा का आनंद लेकर वापस हो गए थे। मैंने भी मेट्रो-स्टेशन, ‘जहाँ प्रवेश पाने से लेकर, निकलने तक सभी को स्वचालित दरवाजों का सामना करना पड़ता है’ मन में अनपेक्षित भय लिए यात्रा की। स्टेशन का शांत वातावरण, एकदम चमकता हुआ साफ़-सुथरा, सजा हुआ देखकर आश्चर्य से दाँतों तले अँगुली दबा कर रह गया। टोकन लेकर मैं आगे बढ़ा। छोटे से गेट पर बने विशेष स्थान पर जैसे ही टोकन रखा, तभी खटाक से प्रवेश द्वार खुला और मैं स्वचालित सीढ़ियों से जा चढ़ा। ऊपर के सौंदर्य को जी भरकर देख भी न पाया था तब तक तो मेट्रो आ गई। मेट्रो-रुकी, माइक से सूचना मिल रही थी, यात्रियों को सावधान किया जा रहा था। मेट्रो का दरवाजा खुला और सभी यात्रियों को चढ़ता देख मैं भी चढ़ गया। स्वयमेव ही मेट्रो का दरवाजा बंद हुआ। मेट्रो के अंदर भी प्रत्येक स्टेशन की और सावधानियाँ बरतने की सूचना मिल रही थी, साथ ही सूचनाओं, स्टेशनों की स्वचालित लिखित सूचनाएँ हिंदी-अंग्रेज़ी में मिल रही थीं।

विश्व की सुप्रसिद्ध आधुनिक यातायात की सेवा में मेट्रो ने जो पहचान बनाई है, वह पूर्व में अप्रत्याशित ही थी, मात्र कल्पना थी, किंतु वह आज साकार रूप में है। ऐसी यात्रा के बारे में जापान, सिंगापुर देशों में सुनते थे तो परियों की कहानी जैसा लगता था। आज यह अपने देश की राजधानी महानगरी दिल्ली में सभी प्रकार की सुविधाओं से संपन्न दिल्ली में दिखाई दे रही है। भूमिगत है। तो कहीं आकाश में चलती दिखाई देती है। यात्रियों की सुविधाओं के लिए सभी व्यवस्थाएँ हैं, भूमिगत स्टेशनों को पूर्णत: वातानुकूलित बनाया गया है। ऐसी सुविधा संपन्न मेट्रो के लिए दिल्ली सरकार और केंद्रीय सरकार ने संयुक्त रूप से संबंधित संस्था में सन 1995 में पंजीकरण करवाया और 1996 में 62.5 कि.मी. दूरी के लिए मेट्रो परियोजना को स्वीकृति मिल गई । दिसंबर, 2002 में परियोजना को साकार रूप मिल गया। 24 दिसंबर, 2002 को प्रधानमंत्री श्री अटल बिहारी वाजपेयी ने हरी झंडी दिखाई और मेट्रो चल पड़ी। आज मेट्रो की उपयोगिता और सफलता को देखकर इस परियोजना ने पैर पसारना शुरू कर दिया है। कई रूट बने और शुरू हो गए। हैं और नए-नए रूटों पर प्रगति से कार्य चल रहा है। अब तो दिल्ली महानगर के समीप बसे नगरों को छू लिया है। प्रांतीय सीमाओं का भेद मिट गया है। अब यह मेट्रो नोएडा में निसंकोच प्रवेश कर गई है। इतना ही नहीं, मेट्रो के अस्तित्व को देखते हुए अन्य नगरों से भी इसके लिए माँगे उठने लगी है।

मेट्रो ने अपनी अलग पहचान अपना अलग अस्तित्व बनाया है। इसके अस्तित्व को बनाए रखने के लिए बहुत से प्रबंध किए गए हैं। सामान्य जगहों की तरह मेट्रो में अभद्रता देखने को मिलती है। अभद्रता करने वालों के लिए दंड व्यवस्था भी की गई है। यह राष्ट्रीय संपत्ति सचमुच में अपनी संपत्ति प्रतीत होती है। इसके सौंदर्य को बनाए रखने के लिए यात्रियों के लिए निर्देश प्रसारित किए जाते हैं। इस तरह मेट्रो की यात्रा सुखद यात्रा है।

ग्लोबल वार्मिंग

प्रकृति ने जीव के लिए स्थल, जल और वायु के रूप में एक विस्तृत आवरण निर्मित किया है, जिसे हम ‘पर्यावरण’ की संज्ञा देते हैं। पर्यावरण के संतुलन को विकास के नाम पर बिगाड़ने का कार्य किया जा रहा है जिसके परिणामस्वरूप धरती का वातावरण प्रदूषित हो रहा है। आज प्रकृति प्रदत्त जीवनदायी वायु, भूमि और जल जीवन घातक बन गए हैं। 1997 में जापान के क्योटो शहर में इस विषय पर विश्व सम्मेलन आयोजित किया गया था। इसमें ग्लोबल वार्मिंग पर चिंता जताई गई थी। 30 नवंबर से 11 दिसंबर, 2015 के बीच पेरिस में ग्लोबल वार्मिंग पर सम्मेलन आयोजित किया गया।

ग्लोबल वार्मिंग अचानक उत्पन्न नहीं हुई है। इसकी शुरूआत औद्योगिक क्रांति व शहरीकरण से हुई। कोयला आधारित उद्योग वायु प्रदूषण का प्रमुख कारण हैं। अमेरिका के पेंसिलवेनिया, भारत में पानीपत, दिल्ली, बोकारो, मुंबई आदि शहरों में दिन में भी धुआँ छाया रहता है।

मनुष्य की विलासिता के स्वभाव ने भी प्रदूषण को बढ़ाया है। प्रशीतन के अनियमित प्रयोग ने वायुमंडल में क्लोरोफ्लोरो कार्बन गैस की मात्रा बढ़ा दी है। इसके कारण ओजोन परत नष्ट हो रही है। इस परत के न होने से स्वास्थ्य संबंधी परेशानियाँ बढ़ जाएँगी। आणविक विस्फोट से उत्सर्जित रेडियोधर्मी प्रभाव सैकड़ों वर्षों तक रहता है। परिवहन के साधनों कार, स्कूटर, बस, ट्रक, वायुयान-इनकी अनियंत्रित बढ़ोतरी से हानिकारक गैसों की मात्रा बढ़ रही है।

इस तरह विभिन्न प्रदूषणों से पर्यावरण में बदलाव आ रहा है। कभी गरमी अधिक होती है तो कभी सरदी। वर्षा का समय चक्र भी बदल रहा है। पर्यावरण प्रदूषण के कारण तापमान भी बढ़ रहा है। यह आशंका जताई जा रही है कि यदि प्रदूषण कम नहीं हुआ तो 2050 तक पृथ्वी का तापमान 3.5° तक बढ़ जाएगा। इससे ग्लेशियर पिघलने का खतरा है और प्रलय की स्थिति उत्पन्न हो सकती है। तापमान की वृद्धि में अमेरिका, जापान सहित तमाम यूरोपीय देश अधिक जिम्मेदार हैं। ये 20 देश कुल कार्बनडाई ऑक्साइड का 80 फीसदी छोड़ते हैं। अमेरिका अकेला 25 प्रतिशत कार्बनडाई ऑक्साइड छोड़ता है। आज जरूरत है कि सभी देश इस पर गंभीरता से सोचें तथा विकसित देश अपनी जिम्मेदारी समझें।।

आधुनिक नारी

नारी मात्र सौंदर्य और प्रेम की ही प्रतिमूर्ति नहीं रही है, आज उसका दबदबा इतना बढ़ गया है कि पुरुष उसके बढ़ते हुए अस्तित्व को देखकर स्वयं रसोई घर में केवल हाथ नहीं बँटाता है, अपितु रसोई घर का दायित्व भी संभालने लगा है। यही पुरुष पुरुषत्व के कारण रसोई के कार्य को अपने लिए हेय समझता था। दूसरी ओर नारी ने रसोई से ही नहीं, घर की चारदीवारी से बाहर निकल अपनी प्रतिभा को नए रूपों में प्रस्तुत किया है, जिसका परिणाम यह हुआ है कि पुरुष अब नारियों के स्थान रसोई के कार्य को सँभाल कर नारी के लिए चाय परोसते हुए गौरव का अनुभव करने लगा है। इसलिए तो डॉ. वीरेश ने कविता के माध्यम से इस प्रकार कहा है

नारी के बढ़ते हुए
तानाशाही घटा टोप में
विवश नर अब हेटा है
अरुणिम, क्रोधान्वित, रक्तिम
मुख के भय से नर
रसोई में जा बैठा है।

कभी अबला कही जाने वाली नारी अब सबला है। प्रत्येक क्षेत्र को अपने प्रभाव क्षेत्र में लेकर अपनी शक्ति, अपनी योग्यता, प्रखरता, अपनी क्षमता का प्रदर्शन किया है और निरंतर कर रही है। जमीन से लेकर आकाश तक अपना प्रभुत्व स्थापित किया है। हिमालय की चोटी को छूने वाली बछंद्री पाल, आकाश की ऊँचाई को छूने वाली कल्पना-चावला, देश के स्वाभिमान को बढ़ाने वाली राजनीति, कूटनीति और युद्धनीति के लिए सिंह वाहिनी के रूप में जानी जाने वाली श्रीमती इंदिरा गांधी, प्रशासनिक क्षेत्र में अलग पहचान बनाने वाली आई.पी.एस. महिला किरण बेदी, खेल के क्षेत्र में प्रभुत्व स्थापित कर चुकी उड़न परी पी.टी. ऊषा और देश के सर्वोच्च पद पर आसीन रह चुकी श्रीमती प्रतिभा पाटिल आदि, से स्पष्ट है कि नारी अब प्रत्येक दायित्व को सँभालने में समर्थ है। वह अब शक्ति की पर्याय बन गई है। वह पुरुषों के लिए प्रेरणा बन गई है। इतिहास के पृष्ठों को पढ़कर देश-प्रेम में भी आगे रही है। इतिहास के पृष्ठों में रानी लक्ष्मी बाई, रानी सारंधा, होल्कर आदि वीरांगनाओं को पढ़कर देश के लिए कुर्बान होने के लिए तत्पर रहती है। वायुसेना और थल सेना में जाने के लिए मचलने लगी है। नारियों के उत्साह को देखकर अपने पुरुषत्व का डींग हाँकने वाले पुरुष दाँतों तले अंगुली दबाने लगा है।

पौराणिक और ऐतिहासिक विवरणों में नारी शक्ति पर अंकुश की चर्चाएँ की गई हैं। उन परंपराओं को नारियों ने एक ओर अप्रत्याशित सराहनीय कार्य कर झुठलाया है तो दूसरी ओर नारी की बढ़ती हुई उच्छृखलता ने जीवन जीने की कला से मनुष्य और अपनी पाश्विक प्रवृत्ति को प्रेरित किया है। जीवन जीने की नई-नई कलाओं के माध्यम से इसी उच्छृखल नारियों ने पशु प्रवृत्ति को अपनाने में कोई संकोच नहीं किया। इसी नारी ने सौंदर्य-प्रदर्शन की नई-नई परिभाषाएँ प्रस्तुत कर अपने सौंदर्य की कीमत वसूलती हुई कंपनियों के विज्ञापन में सर्वत्र दिखाई देती हैं। उनकी इस उच्छृखलता को देखकर ही शायद ‘उपकार’ फिल्म में विवश होकर फिल्माया गया होगा कि एक के पास तन ढकने के लिए वस्त्र नहीं है और एक को तन ढकने का शौक नहीं है। नारी की ऐसी बढ़ती हई उच्छृखलता नारी-जाति को कलंकित कर रही है-यह कहना शायद अनुचित नहीं है। नारी-जाति से इस उच्छृखलता को अलग करके देखा जाए तो नारी राष्ट्र की, सृष्टि की सम्माननीय, ईश्वर-निर्मित प्राणिजगत की सर्वश्रेष्ठ रचना है।

आधुनिक नारी को देखते हुए ऐसा प्रतीत होता है कि यह यदि अपनी ऐसी ही संघर्ष और उत्साह की प्रवृत्ति बनाए रहती है, तो शीघ्र ही पुरुष वर्ग को पीछे छोड़ देगी, किंतु तुरंत ही उसके दूसरे रूप उच्छंखलता की ओर विचार जाता है कि देश, समाज और अपने नारी समाज के पतन का कारण भी बन सकती है। नारी की प्रगति आधुनिकता के नाम पर कभी कानून का, कभी अपने सौंदर्य से उपजी सहानुभूति का अनुचित लाभ उठाते हुए अमर्यादित हेकड़ होती जा रही है, उससे संदेह होता है कि उसका भविष्य कितना उज्ज वल होगा। नारी प्रगति को देखकर सचमुच में प्रसन्नता होती है क्योंकि नारी के विविध रूप हैं, वह एक माता है, वह किसी की प्रिय पुत्री है तो किसी की बेटी है तो किसी की बहन है तो किसी की पत्नी। सर्वत्र अपनत्व है। अपने की प्रगति देख किसे प्रसन्नता नहीं होती है। यह प्रसन्नता तभी तक रहती है जब वह प्रगति के साथ मर्यादित रहती है।

मेरा प्रिय कवि

हिंदी साहित्य जगत में अनेक प्रख्यात कवि हुए हैं, जिनकी प्रतिभा युगों तक सराही जाती रहेगी। इन महान कवियों ने समाज को ऐसे संदेश दिए हैं, जिनसे मानव समाज उनका चिर ऋणी बन गया। ऐसे अनेक महाकवि हुए हैं जिन्हें सदियाँ बीत जाने पर भी सम्मान के साथ सराहा जाता है। ऐसे ही थे–महाकवि तुलसीदास गोस्वामी। उनके प्रति आकर्षण होने का कारण है कि जीवन के प्रारंभिक काल से या कहा जाए कि जन्मते ही जिस पर आपदाओं का पहाड़ टूट पड़ा था, वह उन विषम परिस्थितियों में जीवित रह सका। अन्य बहुत से कवियों की तरह उनके जन्मकाल और स्थान के बारे में संदेह बना रहा है। अधिकतर विद्वानों ने उनकी रचनाओं के आधार पर बताने का प्रयास किया है कि उनका जन्म सन् 1532 ई. में शूकर क्षेत्र (सोरों) जनपद में हुआ था। उनके जन्म लेने के बाद से ही ऐसी अप्रत्याशित घटनाएँ घटीं, जिनके कारण इनका जीवन संघर्षपूर्ण हो गया। इनके पिता आत्माराम और माता हुलसी बाई थीं। कहा जाता है कि इनके मुँह से पहली बार ‘राम’ निकला, इसलिए इनका नाम रामबोला पड़ गया। गाँव के दकियानूसी लोगों ने बत्तीस दाँत साथ होने से गाँव के लिए अपशकुन माना जिससे उनके माता-पिता को उन्हें लेकर गाँव छोड़ना पड़ा।

कुछ अन्य अनहोनी घटनाओं के कारण तुलसी को उनके माता-पिता ने भटकने के लिए छोड़ दिया। समाज में लोकोक्ति प्रचलित है कि ‘होनहार बिरवान के होत चीकने पात’ नियति ने करवट बदला, भटकते हुए बालक पर एक सहृदय आचार्य श्री नरहरि’ की दृष्टि पड़ी। तुलसी से आचार्य नरहरि या नरहरि से तुलसी धन्य हो गए और तुलसी की यहीं से कायापलट शुरू हो गई। भटकता हुआ बालक आगे चलकर, संस्कृत और हिंदी भाषा के सुयोग्य और सम्माननीय आचार्य हो गए। बादल सूर्य को कब तक ढककर रख सकता है, तुलसी की प्रतिभा को कब तक छिपाया जा सकता था। कालांतर में स्वयं ही उनकी प्रतिभा से लोग प्रभावित होने लगे, ईष्र्यालु ईर्ष्या करने लगे।

तुलसी की नियति में कुछ और ही था। इनका विवाह भी हुआ। आशा और कल्पना के विपरीत पत्नी से भी धकियाए गए। पत्नी की यह अवमानना उनके जीवन के लिए प्रेरणा और वरदान बन गई। पत्नी ने अपमानित ही नहीं किया, अपितु शिक्षा भी दे दी

अस्थि चर्म मम देहतिय, तामे ऐसी प्रीति।
ऐसी जो श्रीराम में, होती न तो भवभीति ॥

यहाँ से तुलसी की दशा बदल गई, सोच बदल गई। श्रीराम के प्रति विश्वास, श्रद्धा इतना बढ़ा कि उससे हटकर कुछ और सोचना ही बंद कर दिया। इसका परिणाम यह हुआ कि मानव समाज को अमर ग्रंथ, घर-घर की शोभा का ग्रंथ, ‘रामचरितमानस’ दे दिया, जिसकी सराहना उनके प्रति ईर्ष्या रखने वाले व्यक्तियों को भी विवश होकर करनी पड़ी। इस अमर ग्रंथ ने उन्हें जन-जन का हृदयसम्राट बना दिया। इस तरह उनकी पत्नी रत्नावली की अवहेलना उनके लिए ऐसी प्रेरणा बनी, जिसे वे आजीवन भुला न सके।

आचार्य तुलसीदास जी ऐसे महाकवि थे जो विनम्रता की प्रतिमूर्ति थे, धुन के पक्के थे, आपदाओं में धैर्य बनाए रखने में समर्थ थे। अपने आराध्य के प्रति विश्वास के आधार पर बड़े से बड़े आघातों को सरलता से सहन करते चले गए। विषमताओं में भी अपनी विनम्रता और धैर्य को नहीं छोड़ा। महाकाव्य रामचरित मानस के माध्यम से जीवन के प्रत्येक पहलू को छूकर मनुष्य को नई दिशा दी। अतः ऐसे महाकवि मेरे ही नहीं, अपितु जन-जन के प्रिय और हृदय सम्राट बन गए।

गणतंत्र दिवस

ऐतिहासिक दृष्टि से दो तारीखों का विशेष महत्त्व है, जिन्हें हम राष्ट्रीय पर्व के नाम से जानते हैं। एक 15 अगस्त, जिस दिन स्वतंत्रता दिवस मनाया जाता है, दूसरा 26 जनवरी जिस दिन गणतंत्र दिवस मानाया जाता है। 26 जनवरी को गणतंत्र दिवस मनाने का अपना इतिहास है। कांग्रेस के वर्ष 1929 के लाहौर अधिवेशन के अध्यक्ष जवाहर लाल नेहरू ने रावी के तट पर पूर्ण स्वराज्य की घोषणा करते हुए 26 जनवरी को स्वतंत्रता दिवस मनाने का आह्वान किया था। आगामी वर्ष में 26 जनवरी, 1930 को स्वतंत्रता दिवस मनाया गया था। स्वतंत्रता के बाद तय हुआ कि अपना संविधान हो, अपना तंत्र हो। संविधान सभा के द्वारा अथक प्रयास से 2 वर्ष से अधिक समय में भारतीय संविधान तैयार हुआ और 26 जनवरी, 1930 के स्वतंत्रता दिवस को ध्यान में रखते हुए इसी दिन संविधान लागू किया गया और इस दिन गणतंत्र दिवस मनाने का निश्चय किया गया।

प्रथम गणतंत्र दिवस 26 जनवरी, 1950, अपनी अलग छटा बिखेरता हुआ राष्ट्रपति भवन की नई उमंग की कहानी कहता है। गुरुवार 26 जनवरी, 1950 की सुबह, राष्ट्रपति भवन के दरबार हाल में देश के प्रथम राष्ट्रपति डॉ. राजेंद्र प्रसाद ने भारत को गणतंत्र घोषित किया। उस दिन सी. राजगोपालाचारी ने अपने देश को गणराज्य संबोधित करते हुए कहा-‘इंडिया, दैट इज भारत” तो राष्ट्रपति का दरबार हॉल तालियों की गड़गड़ाहट से गूंज उठा। इसके बाद 31 तोपों से सलामी दी गई। उसके बाद राष्ट्रपति श्री राजेंद्र प्रसाद जी ने देश के नाम पहला संबोधन किया-‘आज हमारे देश के लंबे और विविधतापूर्ण इतिहास में पहली बार हम उत्तर में कश्मीर से लेकर दक्षिण में केप कोमोरिन और पश्चिम में काठियावाड़ और कच्छ से लेकर पूर्व में कोकोनाड़ा और कामरूप तक एक संविधान के दायरे में है। इस देश में प्राकृतिक संपदा है और उसका इस्तेमाल इस देश के लोगों के लिए किया जाएगा। हमारे पास यह निबंध लेखन अवसर आया है कि हम अपनी विशाल आबादी को खुशहाल और संपन्न बना सकें और इस तरह दुनिया में शांति के प्रयासों में अपना महत्त्वपूर्ण योगदान दे सकें। राष्ट्रपति बग्घी में बैठकर जनता के बीच से गुजरे। इरविन स्टेडियम पहुँचकर झंडों को सलामी कर सेना की सलामी ली।

राष्ट्रीय पर्व गणतंत्र दिवस को मनाने की अलग परंपरा है। इस दिन भारतीय प्रगति, एकता व शौर्य का प्रदर्शन किया जाता है। भारत की राजधानी नई दिल्ली में इंडिया गेट पर इस उत्सव की पराकाष्ठा देखने को मिलती है। इस दिन इसी स्थान पर महामहिम राष्ट्रपति का आगमन होता है, 21 तोपों से सलामी दी जाती है। तीनों सेनाओं की राष्ट्रपति को सलामी दी जाती है। संपूर्ण देश के लगभग सभी प्रांतों की झाँकियाँ प्रस्तुत की जाती हैं। सभी झाँकियाँ भारत की विविधता और संपन्नता की कहानी बयाँ करती हैं। मनुष्यों में इतना उत्साह होता है कि इसे देखने के लिए दूर-दराज से भीड़ उमड़ पड़ती है। आकाश से फूल बरसाता हुआ हेलीकॉप्टर, उड़ते हुए, अपनी गड़गड़ाहट से आकाश को गुंजायमान करते हुए विमान, आकाश में शोभा बिखेरते हुए गुब्बारे आदि की मनोहारी छटा, तरहतरह के टैंक और तोपें, अनुशासित मार्च करती हुई सेनाओं की टुकड़ियाँ, विद्यालयों के छात्रों द्वारा प्रस्तुत किए जाते हुए रंगारंग कार्यक्रम आदि भारत की संपन्नता को कहते हुए दिखाई देते हैं। यह सब यात्राएँ विजय पथ से आती हुई लंबी यात्रा पूरी करके लाल किले तक पहुँच जाती हैं। सब जगह सड़कों, गलियों में चहल-पहल दिखाई नहीं देती है। सभी दूरदर्शन से चिपके गणतंत्र दिवस की झाँकियाँ देख प्रसन्नता का अनुभव करते हैं।

प्रत्येक जन को अपनी संस्कृति के अनुसार जीने का अधिकार है। जब अपनी संस्कृति को भूल दूसरों का अनुकरण करने लगते हैं। तो अपनी गरिमा धीरे-धीरे भूल जाते हैं। अपनी गरिमा बनी रहे, अपनी पहचान बनी रहे-इसलिए उन्हें याद करने के लिए पर्व मनाए। जाते हैं। प्रतिवर्ष गणतंत्र दिवस हमें यही संदेश देता है कि जिन संघर्षों के बाद घुटन से निकल कर स्वतंत्रता की, राहत की साँस ली है वह अक्षुण्ण बनी रहे, इसके लिए सदैव सचेत रहना चाहिए। आपसी भेदभाव को भुलाकर एक मंत्र, एक सूत्र में बँधे रहकर एकजुटता बनाए रखने का यह पर्व प्रतिवर्ष संदेश देता है और याद दिलाता है अपनी संस्कृति, अपने देश की गरिमा सदैव बनी रहे।

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