NCERT Solutions | Class 11 Rajniti Vigyan भारत का संविधान : सिद्धान्त और व्यवहार (Indian Constitution at Work) Chapter 2 | Rights in the Indian Constitution (भारतीय संविधान में अधिकार)

CBSE Solutions | Rajniti Vigyan Class 11
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NCERT | Class 11 Rajniti Vigyan भारत का संविधान : सिद्धान्त और व्यवहार (Indian Constitution at Work)
Book: | National Council of Educational Research and Training (NCERT) |
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Board: | Central Board of Secondary Education (CBSE) |
Class: | 11 |
Subject: | Rajniti Vigyan |
Chapter: | 2 |
Chapters Name: | Rights in the Indian Constitution (भारतीय संविधान में अधिकार) |
Medium: | Hindi |
Rights in the Indian Constitution (भारतीय संविधान में अधिकार) | Class 11 Rajniti Vigyan | NCERT Books Solutions
NCERT Solutions For Class 11 Political Science Indian Constitution at Work Chapter 2 Rights in the Indian Constitution
पाठ्य-पुस्तक के प्रश्नोत्तर
प्रश्न 1.
(क) अधिकार-पत्र में किसी देश की जनता को हासिल अधिकारों का वर्णन रहता है।
(ख) अधिकार-पत्र व्यक्ति की स्वतन्त्रता की रक्षा करता है।
(ग) विश्व के हर देश में अधिकार-पत्र होता है।
उत्तर :
(क) सही, (ख) सही, (ग) गलत।प्रश्न 2.
(क) किसी व्यक्ति को प्राप्त समस्त अधिकार।
(ख) कानून द्वारा नागरिक को प्रदत्त समस्त अधिकार।
(ग) संविधान द्वारा प्रदत्त और सुरक्षित समस्त अधिकार।
(घ) संविधान द्वारा प्रदत्त वे अधिकार जिन पर कभी प्रतिबन्ध नहीं लगाया जा सकता।
उत्तर :
(ग) संविधान द्वारा प्रदत्त और सुरक्षित समस्त अधिकार।प्रश्न 3.
(क) राष्ट्रीय एयरलाइन के चालक-परिचालक दल (Cabin-Crew) के ऐसे पुरुषों को जिनका वजन ज्यादा है नौकरी में तरक्की दी गई लेकिन उनकी ऐसी महिला-सहकर्मियों को दण्डित किया गया जिनका वजन बढ़ गया था।
(ख) एक निर्देशक एक डॉक्यूमेण्ट्री फिल्म बनाता है जिसमें सरकारी नीतियों की आलोचना है।
(ग) एक बड़े बाँध के कारण विस्थापित हुए लोग अपने पुनर्वास की माँग करते हुए रैली निकालते हैं।
(घ) आन्ध्र-सोसायटी आन्ध्र प्रदेश के बाहर तेलुगु माध्यम के विद्यालय चलाती है।
उत्तर :
(क) महिला सहकर्मियों को दण्डित करना उनके समानता का अधिकार का उल्लंघन करना है। पुरुषों को पदोन्नति दी गई जबकि महिलाओं को दण्डित किया गया। यह लिंग के आधार पर भेदभाव है। यह अनुच्छेद 15 का उल्लंघन है।(ख) इस घटना में मौलिक अधिकार का उपभोग किया जा रहा है। इसमें निर्देशक द्वारा स्वयं को व्यक्त करने के अधिकार (Right of Expression) का प्रयोग किया जा रहा है जिसका उल्लेख संविधान के 19वें अनुच्छेद में है।
(ग) इस घटना में भी मौलिक अधिकार का उपयोग किया जा रहा है। अनुच्छेद 19 में उल्लिखित अधिकार किसी उद्देश्य के लिए संगठित होने का उपयोग करके विस्थापित जन संगठित होकर रैली निकाल रहे हैं।
(घ) इसमें शिक्षा व संस्कृति के अधिकार (अनुच्छेद 29 व 30) का उपयोग किया जा रहा है।
प्रश्न 4.
(क) शैक्षिक-संस्था खोलने वाले अल्पसंख्यक वर्ग के ही बच्चे इस संस्थान में पढ़ाई कर सकते हैं।
(ख) सरकार विद्यालयों को यह सुनिश्चित करना चाहिए कि अल्पसंख्यक-वर्ग के बच्चों को उनकी संस्कृति और धर्म-विश्वासों से परिचित कराया जाए।
(ग) भाषाई और धार्मिक-अल्पसंख्यक अपने बच्चों के लिए विद्यालय खोल सकते हैं और उनके लिए इन विद्यालयों को आरक्षित कर सकते हैं।
(घ) भाषाई और धार्मिक-अल्पसंख्यक यह माँग कर सकते हैं कि उनके बच्चे उनके द्वारा और उनके लिए इन विद्यालयों को आरक्षित कर सकते हैं।
उत्तर :
(ग) भाषाई और धार्मिक-अल्पसंख्यक अपने बच्चों के लिए विद्यालय खोल सकते हैं और उनके लिए इन विद्यालयों को आरक्षित कर सकते हैं।प्रश्न 5.
(क) न्यूनतम देय मजदूरी नहीं देना।
(ख) किसी पुस्तक पर प्रतिबंध लगाना।
(ग) 9 बजे रात के बाद लाउडस्पीकर बजाने पर रोक लगाना।
(घ) भाषा तैयार करना।
उत्तर :
(क) किसी पुस्तक पर प्रतिबंध लगाना मौलिक अधिकार का उल्लंघन है। इसमें अनुच्छेद 19 का उल्लंघन हो रहा है।प्रश्न 6.
उत्तर :
मैं इस कथन से सहमत नहीं हैं, क्योंकि नागरिकों के लिए मौलिक अधिकार नीति-निदेशक तत्त्वों से अधिक आवश्यक हैं। नीति-निदेशक तत्त्वों को बाध्यकारी (न्यायसंगत) नहीं बनाया जा सकता, क्योंकि हमारे पास सभी को नीति-निदेशक तत्त्वों में दी गई सुविधाओं को प्रदान करने के लिए पर्याप्त साधन नहीं हैं।प्रश्न 7.
उत्तर :
इसमें काम के क्षेत्र में दिए गए समानता के मौलिक अधिकार का उल्लंघन हो रहा है।प्रश्न 8.
(क) इस मामले में कौन-कौन से अधिकार शामिल हैं? ये अधिकार आपस में किस तरह जुड़े हैं?
(ख) क्या ये अधिकार जीवन के अधिकार का एक अंग हैं?
उत्तर :
(क) इस मामले में कानून के समक्ष समानता का अधिकार (अनुच्छेद 14) और भेदभाव की मनाही (अनुच्छेद 15) शामिल हैं। दोनों अधिकार आपस में एक ही बिन्दु ‘समानता’ को लेकर सम्बन्धित हैं।(ख) ये अधिकारे जीवन के अधिकार का ही एक अंग हैं।
प्रश्न 9.
उत्तर :
सोमनाथ लाहिड़ी के प्रस्तुत कथन से हम कम ही सहमत हैं क्योंकि अधिकारों में जो दिया गया है उसे वापस भी ले लिया गया है। प्रत्येक अधिकार के बाद एक उपबन्ध शामिल कर दिया गया है जो अधिकार को वापस ले लेता है; जैसे-अनुच्छेद 19 में दिए गए अधिकार में जितनी स्वतन्त्रताएँ दी गई हैं उतने ही बन्धन भी लगा दिए गए हैं। परन्तु इसका आशय यह नहीं है कि संविधान को एक सिपाही का भी निर्वाह करना है। प्रस्तुत अध्याय में नागरिकों के अधिकार दिए गए हैं जिनसे उनका सामाजिक, राजनीतिक, नागरिक, सांस्कृतिक व शैक्षणिक अधिकार सम्भव हुआ है। हाँ, भारतीय नागरिकों को प्रदान किए गए अधिकार निरपेक्ष अर्थात् नियन्त्रणहीन (Absolute) नहीं हैं क्योंकि हमारा देश अभी विकासशील देश है, कुछ बन्धनों के साथ ही अधिकार सम्भव हैं।प्रश्न 10.
उत्तर :
संवैधानिक उपचारों का अधिकार अन्तिम और सबसे महत्त्वपूर्ण मौलिक अधिकार है; क्योंकि इसके अस्तित्व पर ही समस्त अधिकारों का अस्तित्व आधारित है। इस अधिकार द्वारा नागरिक उच्चतम न्यायालय से अपने अधिकारों की सुरक्षा करा सकते हैं। संविधान के 32 वें अनुच्छेद की प्रशंसा करते हुए डॉ बी० आर० अम्बेडकर ने संविधान सभा में कहा था, “यदि मुझसे पूछा जाए कि संविधान का सबसे महत्त्वपूर्ण अनुच्छेद कौन-सा है, जिसके बिना संविधान शून्य रह जाएगा तो मैं इस अनुच्छेद के अतिरिक्त और किसी दूसरे अनुच्छेद की ओर संकेत नहीं करूंगा। यह संविधान की आत्मा, उसका हृदय है।” नागरिकों के मौलिक अधिकारों की सुरक्षा के लिए उच्च न्यायालयों तथा उच्चतम न्यायालय द्वारा निम्नलिखित पाँच प्रकार के लेख जारी किए जा सकते हैं-1. बन्दी प्रत्यक्षीकरण (Habeas Corpus) – इसका अर्थ बन्दी को न्यायालय के समक्ष प्रस्तुत करना है। यह उस व्यक्ति की प्रार्थना पर जारी किया जाता है, जो यह समझता है कि उसे अवैधानिक रूप से बन्दी बनाया गया है। इसके द्वारा न्यायालय तुरन्त उस व्यक्ति को अपने समक्ष उपस्थित करने का आदेश देता है और उसे अवैधानिक रूप से बन्दी बनाए जाने की स्थिति का सही मूल्यांकन करता है। इसके अतिरिक्त बन्दी बनाने के ढंग का अवलोकन भी करता है और अवैधानिक ढंग से बन्दी बनाए गए व्यक्ति को तुरन्त छोड़ने का आदेश देता है।
2. परमादेश (Mandamus) – जब कोई संस्था या अधिकारी कर्तव्यों का पालन नहीं करता है, जिसके फलस्वरूप किसी व्यक्ति के मौलिक अधिकारों का उल्लंघन होता है, तब न्यायपालिका
‘परमादेश’ द्वारा उस संस्था या अधिकारी को कर्तव्यों को पूरा करने का आदेश देती है।
3. प्रतिषेध (Prohibition) – यह किसी व्यक्ति या संस्था को उस कार्य से रोकने के लिए जारी किया जाता है, जो अधिकार-क्षेत्र के अन्तर्गत नहीं है। यदि अध.नस्थ न्यायालय अथवा अर्द्ध-न्यायालय का कोई न्यायाधीश ‘प्रतिषेध’ लेख की उपेक्षा करके कोई अभियोग सुनता है तो उसके विरुद्ध मानहानि का मुकदमा चलाया जा सकता है।
4. अधिकार-पुच्छा (Quo-warranto) – यदि कोई नागरिक कोई पद या अधिकार अवैधानिक | ढंग से प्राप्त कर लेता है तो उसकी जॉच हेतु यह अधिकार-पृच्छा’ लेख जारी किया जाता है।
5. उत्प्रेषण (Certiorari) – यह लेख उच्च न्यायालयों द्वारा उस समय जारी किया जाता है, जबकि अधीनस्थ न्यायालय का न्यायाधीश किसी ऐसे विवाद की सुनवाई कर रहा है, जो वास्तव में उसके अधिकार-क्षेत्र से बाहर है। इस लेख द्वारा उनके फैसले को रद्द कर दिया जाता है और उस मुकदमे से सम्बन्धित कागजात अधीनस्थ न्यायालय को उच्चतम न्यायालय को भेजने की आज्ञा दी जाती है।
परीक्षोपयोगी प्रश्नोत्तर
बहुविकल्पीय प्रश्न
प्रश्न 1.
(क) सात
(ख) दस
(ग) छः
(घ) पाँच
उत्तर :
(ग) छःप्रश्न 2.
(क) मौलिक अधिकारों को
(ख) नीति-निदेशक तत्त्वों को
(ग) मौलिक कर्तव्यों को
(घ) मौलिक अधिकारों तथा कर्तव्यों को।
उत्तर :
(क) मौलिक अधिकारों को।प्रश्न 3.
(क) 24वें
(ख) 42वें
(ग) 44वें
(घ) 73वें
उत्तर :
(ग) 44वें।प्रश्न 4.
(क) संवैधानिक अधिकार
(ख) मौलिक अधिकार
(ग) कानूनी अधिकार
(घ) प्राकृतिक अधिकार
उत्तर :
(ग) कानूनी अधिकार।प्रश्न 5.
(क) राष्ट्रपति को
(ख) प्रधानमन्त्री को
(ग) मन्त्रिमण्डल को।
(घ) लोकसभा के अध्यक्ष को
उत्तर :
(क) राष्ट्रपति को।प्रश्न 6.
(क) अनुच्छेद 14 को
(ख) अनुच्छेद 19 को
(ग) अनुच्छेद 32 को
(घ) अनुच्छेद 21 को
उत्तर :
(घ) अनुच्छेद 21 को।प्रश्न 7.
(क) अनुच्छेद 14
(ख) अनुच्छेद 19
(ग) अनुच्छेद 21
(घ) अनुच्छेद 17
उत्तर :
(घ) अनुच्छेद 17.प्रश्न 8.
(क) 44वें
(ख) 42वें
(ग) 52वें
(घ) 74वें
उत्तर :
(ख) 42वें।प्रश्न 9.
(क) आठ
(ख) ग्यारह
(ग) पाँच
(घ) बारह
उत्तर :
(ख) ग्यारह।प्रश्न 10.
(क) कनाडा
(ख) आयरलैण्ड
(ग) संयुक्त राज्य अमेरिका
(घ) ब्रिटेन
उत्तर :
(ख) आयरलैण्ड।प्रश्न 11.
(क) 36 से 51 तक
(ख) 52 से 63 तक
(ग) 60 से 71 तक
(घ) 33 से 35 तक
उत्तर :
(क) 36 से 51 तक।प्रश्न 12.
(क) 1928
(ख) 1936
(ग) 1931
(घ) 1937
उत्तर :
(क) 1928प्रश्न 13.
(क) राज्यपाल
(ख) राष्ट्रपति
(ग) संविधान
(घ) पुलिस
उत्तर :
(ग) संविधान।प्रश्न 14.
(क) दो
(ख) तीन
(ग) चार
(घ) पाँच
उत्तर :
(ख) तीन।प्रश्न 15.
(क) 1972 ई० में
(ख) 1976 ई० में
(ग) 1977 ई० में
(घ) 1980 ई० में
उत्तर :
(ख) 1976 ई० में।प्रश्न 16.
(क) के० टी० शाह
(ख) श्रीनिवासन
(ग) ग्रेनविल ऑस्टिन
(घ) जी० एन० सिंह।
उत्तर :
(क) के० टी० शाह।प्रश्न 17.
(क) स्वतन्त्रता का अधिकार
(ख) दान देने का अधिकार
(ग) समानता का अधिकार
(घ) शोषण के विरुद्ध अधिकार
उत्तर :
(ख) दान देने का अधिकार।प्रश्न 18.
(क) समानता का अधिकार
(ख) संवैधानिक उपचारों का अधिकार
(ग) स्वतन्त्रता का अधिकार
(घ) शोषण के विरुद्ध अधिकार
उत्तर :
(ख) संवैधानिक उपचारों का अधिकार।प्रश्न 19.
(क) दुर्गादास बसु
(ख) एम० सी० छागला
(ग) एम० वी० पायली
(घ) पतंजलि शास्त्री
उत्तर :
(ग) एम० वी० पायली।प्रश्न 20.
(क) नासिरुद्दीन
(ख) डॉ० राजेन्द्र प्रसाद
(ग) पं० नेहरू
(घ) के० टी० शाह
उत्तर :
(क) नासिरुद्दीन।प्रश्न 21.
(क) अल्लादि कृष्णास्वामी अय्यर
(ख) डॉ० अम्बेडकर
(ग) के० एम० मुंशी
(घ) आयंगर
उत्तर :
(क) अल्लादि कृष्णास्वामी अय्यर।प्रश्न 22.
(क) पतंजलि शास्त्री
(ख) एम० सी० सीतलवाड
(ग) एम० वी० पायली
(घ) पं० नेहरू
उत्तर :
(ख) एम० सी० सीतलवाड।प्रश्न 23.
(क) सन् 1996
(ख) सन् 1997
(ग) सन् 1999
(घ) सन् 1967
उत्तर :
(क) सन् 1996.प्रश्न 24.
(क) 3 महीने
(ख) 6 महीने
(ग) 4 महीने
(घ) 2 महीने
उत्तर :
(क) 3 महीने।प्रश्न 25.
(क) सन् 1947
(ख) सन् 2000
(ग) सन् 2001
(घ) सन् 2002
उत्तर :
(ख) सन् 2000.अतिलघु उत्तरीय प्रश्न
प्रश्न 1.
उत्तर :
मौलिक अधिकार वे सुविधाएँ, माँगें, अपेक्षाएँ व दावे हैं जिन्हें राज्य ने अपने नागरिकों के विकास के लिए अत्यन्त आवश्यक मानकर अपने संविधान में स्थान दिया है।प्रश्न 2.
उत्तर :
नागरिकों के पूर्ण विकास के लिए मौलिक अधिकार आवश्यक हैं।प्रश्न 3.
उत्तर :
मौलिक अधिकारों की रक्षा संवैधानिक उपचार के अधिकार द्वारा होती है।प्रश्न 4.
उत्तर :
भारतीय संविधान में सम्पत्ति का मूल अधिकार निरस्त कर दिया गया है।प्रश्न 5.
उत्तर :
- परमादेश तथा
- प्रतिषेध, संवैधानिक उपचारों के अधिकार के अन्तर्गत जारी किये जाने वाले लेख हैं।
प्रश्न 6.
उत्तर :
कानूनी अधिकार नागरिकों की वे सुविधाएँ हैं जिन्हें राज्य स्वीकृत करता है और जिन्हें कानून द्वारा निश्चित किया जाता है।प्रश्न 7.
उत्तर :
- भाषण व अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता तथा
- संघ-निर्माण की स्वतन्त्रता।
प्रश्न 8.
उत्तर :
संविधान के भाग III में मौलिक अधिकारों का उल्लेख किया गया है।प्रश्न 9.
उत्तर :
- सभी नागरिकों को धार्मिक स्वतन्त्रता का अधिकार है।
- सरकार द्वारा किसी विशिष्ट धर्म को आश्रय नहीं दिया जाता, वह धर्मनिरपेक्ष है।
प्रश्न 10.
उत्तर :
भारतीय संविधान के अनुच्छेद 51 (क) में मूल कर्त्तव्य दिए गए हैं।प्रश्न 11.
उत्तर :
भारतीय संविधान में 11 मौलिक कर्तव्यों का उल्लेख है।प्रश्न 12.
उत्तर :
राज्य के नीति-निदेशक तत्वों का वर्णन संविधान के भाग IV में किया गया है।प्रश्न 13.
उत्तर :
- आर्थिक सुरक्षा सम्बन्धी तत्त्व
- सामाजिक प्रगति सम्बन्धी तत्त्व।
प्रश्न 14.
उत्तर :
नीति-निदेशक सिद्धान्तों की सुरक्षा की माँग न्यायालय से नहीं की जा सकती, क्योंकि इनके पीछे बाध्यकारी कानूनी शक्ति नहीं है।प्रश्न 15.
उत्तर :
भारतीय संविधान के नीति-निदेशक तत्त्व आयरलैण्ड के संविधान से लिए गए हैं।प्रश्न 16.
उत्तर :
शोषण के विरुद्ध अधिकार का अर्थ है –- कोई भी व्यक्ति किसी से बलात् श्रम नहीं करवा सकता।
- स्त्रियों तथा बच्चों का क्रय-विक्रय नहीं किया जा सकता।
प्रश्न 17.
उत्तर :
संविधान के-42वें संशोधन (1976) के द्वारा मूल कर्तव्यों का प्रावधान किया गया है।प्रश्न 18.
उत्तर :
संविधान का पालन करना और उसके आदर्शों, संस्थाओं, राष्ट्रगान और राष्ट्रध्वज का आदर करना भारतीय नागरिकों का एक कर्तव्य है।प्रश्न 19.
उत्तर :
संविधान द्वारा मूल अधिकारों का संरक्षक सर्वोच्च न्यायालय को बनाया गया है।प्रश्न 20.
या
मौलिक अधिकार कब स्थगित किये जा सकते हैं ?
उत्तर :
- संकटकाल की घोषणा की स्थिति में
- सेना में अनुशासन बनाये रखने के लिए तथा
- मार्शल लॉ लागू होने पर मौलिक अधिकार स्थगित किये जा सकते हैं।
प्रश्न 21.
उत्तर :
भारतीय नागरिकों के दो मूल कर्तव्य हैं –- संविधान का पालन करना, राष्ट्रध्वज तथा राष्ट्रगान के प्रति सम्मान प्रकट करना।
- भारत की सम्प्रभुता, एकता और अखण्डता की रक्षा करना।
प्रश्न 22.
उत्तर :
नीति-निदेशक सिद्धान्तों का वर्णन भारतीय संविधान के अनुच्छेद 36 से अनुच्छेद 51 तक में किया गया है।प्रश्न 23.
उत्तर :
- राज्य प्रत्येक स्त्री और पुरुष को समान रूप से जीविका के साधन प्रदान करने का प्रयत्न करेगा।
- राज्य 14 वर्ष तक के बालकों के लिए नि:शुल्क और अनिवार्य शिक्षा प्रदान करने की व्यवस्था करेगा।
प्रश्न 24.
उत्तर :
नीति-निदेशक सिद्धान्त सत्तारूढ़ दल के लिए आचार-संहिता का कार्य करते हैं।प्रश्न 25.
उत्तर :
नीति-निदेशक सिद्धान्तों के पीछे वैधानिक शक्ति का अभाव है।लघु उत्तरीय प्रश्न
प्रश्न 1.
उत्तर :
वे अधिकार, जो मानव-जीवन के लिए मौलिक तथा अपरिहार्य होने के कारण संविधान द्वारा नागरिकों को प्रदान किए जाते हैं, ‘मौलिक अधिकार’ कहलाते हैं। व्यवस्थापिका तथा कार्यपालिका द्वारा इनका उल्लंघन नहीं किया जा सकता है। देश की न्यायपालिका एक प्रहरी की भाँति इन अधिकारों की सुरक्षा करती है। राज्य का मुख्य उद्देश्य नागरिकों का चहुंमुखी विकास व उनका कल्याण करना है। इसलिए संविधान द्वारा नागरिकों को मौलिक अधिकार प्रदान किए जाते हैं। भारतीय संविधान द्वारा भी इसी उद्देश्य की पूर्ति के लिए नागरिकों को मौलिक अधिकार प्रदान किए गए हैं। जी० एन० जोशी का कथन है, “मौलिक अधिकार ही ऐसा साधन है, जिसके द्वारा एक स्वतन्त्र लोकराज्य के नागरिक अपने सामाजिक, धार्मिक तथा नागरिक जीवन का आनन्द उठा सकते हैं। इनके बिना लोकतन्त्रीय शासन सफलतापूर्वक नहीं चल सकता और बहुमत की ओर से अत्याचारों का खतरा बना रहता है।”प्रश्न 2.
उत्तर :
बन्दी प्रत्यक्षीकरण एक प्रकार का न्यायालयीय आदेश होता है। न्यायालय बन्दी बनाये गये व्यक्ति अथवा उसके सम्बन्धी की प्रार्थना पर यह आदेश दे सकता है कि बन्दी व्यक्ति को उसके सामने उपस्थित किया जाए। तत्पश्चात् न्यायालय यह जाँच कर सकता है कि बन्दी की गिरफ्तारी कानून के अनुसार वैध है अथवा नहीं। यह अधिकार नागरिक की व्यक्तिगत स्वतन्त्रता की रक्षा करता है।प्रश्न 3.
उत्तर :
भारतीय संविधान द्वारा प्रदत्त मूल अधिकार निरपेक्ष नहीं हैं। इन पर राष्ट्र की एकता, अखण्डता, शान्ति एवं सुरक्षा तथा अन्य राष्ट्रों के साथ मैत्रीपूर्ण सम्बन्धों के आधार पर प्रतिबन्ध लगाया जा सकता है। संविधान द्वारा अग्रलिखित परिस्थितियों में नागरिकों के मौलिक (मूल) अधिकारों पर प्रतिबन्ध लगाये जाने की व्यवस्था की गयी है –- आपातकालीन स्थिति में नागरिकों के मूल अधिकार स्थगित किये जा सकते हैं।
- संविधान में संशोधन करके नागरिकों के मूल अधिकार कम या समाप्त किये जा सकते हैं।
- सेना में अनुशासन बनाये रखने की दृष्टि से भी इन्हें सीमित या नियन्त्रित किया जा सकता है।
- जिन क्षेत्रों में मार्शल लॉ (सैनिक कानून) लागू होता है वहाँ भी मूल अधिकार स्थगित हो जाते
- नागरिकों द्वारा मूल अधिकारों का दुरुपयोग करने पर सरकार इन्हें निलम्बित कर सकती है।
प्रश्न 4.
उत्तर :
मौलिक अधिकारों तथा नीति-निदेशक तत्त्वों में अन्तर निम्नवत् हैं –- मौलिक अधिकार, भारतीय संविधान द्वारा नागरिकों को दिये गये हैं। नीति-निदेशक तत्त्व केन्द्र तथा राज्य सरकारों के मार्गदर्शन के लिए निर्देश मात्र हैं।
- मौलिक अधिकारों का हनन होने पर न्यायालय की शरण ली जा सकती है। नीति-निदेशक तत्त्वों की रक्षा के लिए न्यायालय की शरण नहीं ली जा सकती।
- मौलिक अधिकारों का उद्देश्य राजनीतिक लोकतन्त्र की स्थापना करना होता है। नीति-निदेशक तत्त्वों का उद्देश्य सामाजिक और आर्थिक लोकतन्त्र की स्थापना करना है।
- मौलिक अधिकार नागरिक के व्यक्तिगत विकास तथा स्वतन्त्रता पर अधिक बल देते हैं। नीति-निदेशक तत्त्व आर्थिक और सामाजिक स्वतन्त्रता पर अधिक बल देते हैं।
- मौलिक अधिकार निषेधात्मक आदेश हैं। नीति-निदेशक तत्त्व सकारात्मक निर्देश मात्र हैं।
- मौलिक अधिकारों के पीछे न्यायिक शक्ति होती है। नीति-निदेशक तत्त्वों के पीछे जनमत की शक्ति होती है।
प्रश्न 5.
उत्तर :
भारतीय संविधान में केन्द्र तथा राज्य सरकारों के मार्गदर्शन के लिए कुछ सिद्धान्त दिये गये हैं, जिन्हें राज्य के नीति-निदेशक सिद्धान्त या तत्त्व कहा जाता है। संविधान में इन तत्त्वों का समावेश करने का प्रमुख उद्देश्य भारत में वास्तविक लोकतन्त्र और समाजवादी एवं कल्याणकारी शासन की स्थापना करना है। इसके अतिरिक्त, सामाजिक पुनर्निर्माण, आर्थिक विकास, सांस्कृतिक प्रगति तथा अन्तर्राष्ट्रीय शान्ति की स्थापना भी नीति-निदेशक तत्त्वों के उद्देश्य हैं।प्रश्न 6.
उत्तर :
नीति-निदेशक तत्त्वों की निम्नलिखित विशेषताएँ हैं –(1) संविधान का उद्देश्य – संविधान की प्रस्तावना में संविधान का उद्देश्य लोक-कल्याणकारी राज्य की स्थापना करना बताया गया है। नीति-निदेशक तत्त्व इस उद्देश्य को साकार रूप देते हैं। राज्य अधिक-से-अधिक प्रभावी रूप में, ऐसी सामाजिक व्यवस्था तथा सुरक्षा द्वारा जिसमें आर्थिक, सामाजिक तथा राजनीतिक न्याय भी प्राप्त हो, जनता के हित के विकास को प्रयत्न करेगा और राष्ट्रीय जीवन की प्रत्येक संस्था को इस सम्बन्ध में सूचित करेगा। इस प्रकार नीति-निदेशक तत्त्व आर्थिक तथा सामाजिक प्रजातन्त्र की स्थापना कर एक समाजवादी पद्धति के समाज की स्थापना करना चाहते हैं।
(2) अनुदेश पत्र – राज्य के नीति-निदेशक तत्त्व ऐसे निर्देश हैं, जिनका पालन राज्य की व्यवस्थापिका तथा कार्यपालिका को करना चाहिए।
(3) वैधानिक बल का अभाव – नीति-निदेशक तत्त्व यद्यपि संविधान के अंग हैं, फिर भी उन्हें 1किसी न्यायालय द्वारा लागू नहीं किया जा सकता।
(4) देश के शासन के आधारभूत सिद्धान्त – ये सिद्धान्त मूलभूत सिद्धान्त माने जाएँगे। राज्य का यह कर्त्तव्य होगा कि कानून का निर्माण करते समय वह इन सिद्धान्तों को ध्यान में रखे। प्रशासकों के लिए ये सिद्धान्त एक आचरण संहिता हैं, जिनका अनुपालन वे अपने दायित्वों को | निभाते समय करेंगे। न्यायालय भी न्याय करते समय इन सिद्धान्तों को प्राथमिकता प्रदान करेंगे।
प्रश्न 7.
उत्तर :
नीति-निदेशक तत्त्वों की आलोचना के मुख्य आधार निम्नलिखित हैं –(1) कानूनी शक्ति का अभाव – कुछ आलोचक इने तत्त्वों को किसी भी दृष्टि से महत्त्वपूर्ण नहीं मानते। उनका यह तर्क है कि जब सरकार इन्हें मानने के लिए कानूनी रूप से बाध्य ही नहीं है, तो इनका कोई महत्त्व नहीं है। इन सिद्धान्तों पर व्यंग्य करते हुए प्रो० के० टी० शाह ने लिखा है। कि, “ये सिद्धान्त उस चेक के समान हैं, जिसका भुगतान बैंक केवल समर्थ होने की स्थिति में ही कर सकता है।”
(2) निदेशक तत्त्व काल्पनिक आदर्श मात्र – आलोचकों के अनुसार नीति-निदेशक तत्त्व व्यावहारिकता से कोसों दूर केवल एक कल्पना मात्र हैं। इन्हें क्रियान्वित करना बहुत दूर की बात है। एन० आर० राघवाचारी के शब्दों में, “नीति-निदेशक तत्त्वों का उद्देश्य जनता को मूर्ख बनाना वे बहकाना ही है।”
(3) संवैधानिक गतिरोध उत्पन्न होने का भय – इन सिद्धान्तों से संवैधानिक गतिरोध भी उत्पन्न हो सकता है। राज्य जब इन तत्त्वों के अनुरूप अपनी नीतियों का निर्माण करेगा तो ऐसी स्थिति में मौलिक अधिकारों के अतिक्रमण की सम्भावना बढ़ जाएगी।
(4) सम्प्रभुता सम्पन्न राज्य में अस्वाभाविक – ये तत्त्व एक सम्प्रभुता सम्पन्न राज्य में अस्वाभाविक तथा अप्राकृतिक हैं। विद्वानों ने नीति-निदेशक तत्त्वों की अनेक दृष्टिकोणों के आधार पर आलोचना की है, परन्तु इन आलोचनाओं के द्वारा इन तत्त्वों का महत्त्व कम नहीं हो जाता। ये हमारे आर्थिक लोकतन्त्र के आधार-स्तम्भ हैं।
प्रश्न 8.
उत्तर :
भारतीय संविधान में वर्णित मौलिक अधिकारों की निम्नलिखित आधारों पर आलोचना की गई है –- इनमें शिक्षा प्राप्त करने, काम पाने, आराम करने तथा स्वास्थ्य सम्बन्धी अनेक महत्त्वपूर्ण अधिकारों का अभाव देखने को मिलता है।
- मौलिक अधिकारों पर इतने अधिक प्रतिबन्ध लगा दिए गए हैं कि उनके स्वतन्त्र उपभोग पर स्वयमेव प्रश्न-चिह्न लग जाता है। अत: कुछ आलोचकों ने यहाँ तक कह दिया है कि भाग चार का शीर्षक नीति-निदेशक तत्त्वों के स्थान पर ‘नीति-निदेशक तत्त्व तथा उनके ऊपर प्रतिबन्ध ज्यादा उपयुक्त प्रतीत होता है।
- शासन द्वारा मौलिक अधिकारों के स्थगन की व्यवस्था दोषपूर्ण है।
- निवारक-निरोध द्वारा स्वतन्त्रता के अधिकार को सीमित कर दिया गया है।
- संकटकाल में कार्यपालिका को असीमित शक्तियाँ प्राप्त हो जाती हैं।
प्रश्न 9.
उत्तर :
मौलिक अधिकारों में विशेष परिस्थितियों के निमित्त संविधान में संशोधन द्वारा संसद अधिकार अस्थायी रूप से भी स्थगित किए जा सकते हैं या काफी सीमा तक सीमित किए जा सकते हैं। इसलिए आलोचकों का विचार है कि संविधान के इस अनुच्छेद का लाभ उठाकर देश में कभी भी सरकार तानाशाह बन सकती है। किन्तु ऐसा सोचना या कहना गलत है; क्योंकि ऐसा सरकार अपने हित में नहीं, वरन् लोकहित में करती है। असाधारण परिस्थितियों में देश और राष्ट्र का हित व्यक्तिगत हित से अधिक महत्त्वपूर्ण होता है, इसीलिए विशेष परिस्थितियों में ही मौलिक अधिकारों को स्थगित या सीमित किया जाता है। अल्लादि कृष्णास्वामी अय्यर के शब्दों में, “यह व्यवस्था अत्यन्त आवश्यक है। यही व्यवस्था संविधान का जीवन होगी। इससे प्रजातन्त्र की हत्या नहीं, वरन् सुरक्षा होगी।”प्रश्न 10.
उत्तर :
नीति-निदेशक तत्त्वों के निम्नलिखित दोष हैं –- इन तत्त्वों के पीछे कोई संवैधानिक शक्ति नहीं है। अतः निश्चित रूप से यह नहीं कहा जा सकता कि राज्य इनका पालन करेगा भी या नहीं और यदि करेगा तो किस सीमा तक।
- ये तत्त्व काल्पनिक आदर्श मात्र हैं। कैम्पसन के अनुसार, “जो लक्ष्य निश्चित किए गए हैं, उनमें से कुछ का तो सम्भावित कार्यक्रम की वास्तविकता से बहुत ही थोड़ा सम्बन्ध है।”
- नीति-निदेशक तत्त्व एक सम्प्रभु राज्य में अप्राकृतिक प्रतीत होते हैं।
- संवैधानिक विधिवेत्ताओं ने आशंका व्यक्त की है कि ये तत्त्व संवैधानिक द्वन्द्व और गतिरोध के कारण भी बन सकते हैं।
- इन तत्त्वों में अनेक सिद्धान्त अस्पष्ट तथा तर्कहीन हैं। इन तत्त्वों में एक ही बात को बार-बार दोहराया गया है।
- इन तत्त्वों की व्यावहारिकता व औचित्य को भी कुछ आलोचकों के द्वारा चुनौती दी गई है।
- एक प्रभुतासम्पन्न राज्य में इस प्रकार के सिद्धान्त को ग्रहण करना अस्वाभाविक ही प्रतीत होता है। विधि-विशेषज्ञों के दृष्टिकोण के अनुसार एक प्रभुतासम्पन्न राज्य के लिए इस प्रकार के आदेशों का कोई औचित्य नहीं है।
प्रश्न 11.
उत्तर :
अधिकार-पत्र से आशय
जब किसी देश के नागरिकों को दिए जाने वाले अधिकारों की संवैधानिक घोषणा की जाती है अर्थात् नागरिकों के अधिकारों को संविधान में अंकित किया जाता है तो उसे ‘अधिकार पत्र’ कहते हैं। सर्वप्रथम अमेरिका के संविधान में अधिकार-पत्र की व्यवस्था की गई थी। संविधान के विभिन्न संशोधनों द्वारा नागरिकों के मौलिक अधिकारों की व्यवस्था की गई और उन्हें अधिकार-पत्र नाम दिया गया। अब अधिकतर देशों में अधिकार-पत्र की व्यवस्था है। भारत में नागरिकों के अधिकारों को अधिकार-पत्र का नाम न देकर मौलिक अधिकारों का नाम दिया गया है।
प्रत्येक देश में अधिकार-पत्र की व्यवस्था आवश्यक नहीं-यह आवश्यक नहीं है कि प्रत्येक देश में अधिकार-पत्र की व्यवस्था हो। इंग्लैण्ड के संविधान में अधिकार-पत्र की कोई व्यवस्था नहीं है। यह भी आवश्यक नहीं है कि इसकी व्यवस्था लोकतान्त्रिक देश में ही होती है। चीन में अधिकार-पत्र की व्यवस्था है। वह गणतान्त्रिक देश है।
प्रश्न 12.
या
मौलिक अधिकारों की विशेषताओं का संक्षेप में उल्लेख कीजिए।
उत्तर :
मौलिक अधिकारों की विशेषताएँ निम्नलिखित हैं –- मौलिक अधिकार देश के सभी नागरिकों को समान रूप से प्राप्त हैं।
- इन अधिकारों का संरक्षक न्यायपालिका को बनाया गया है।
- राष्ट्र की सुरक्षा तथा समाज के हित में इन अधिकारों पर प्रतिबन्ध लगाया जा सकता है।
- इन अधिकारों द्वारा सरकार की निरंकुशता पर अंकुश लगाया गया है।
- केन्द्र सरकार अथवा राज्य सरकार ऐसे कानूनों का निर्माण नहीं करेगी जो मौलिक अधिकारों का अतिक्रमण करते हों।
- मौलिक अधिकार न्याययुक्त होते हैं।
- मौलिक अधिकारों की प्रकृति सकारात्मक होती है।
प्रश्न 13.
या
संवैधानिक उपचारों के अधिकार से आप क्या समझते हैं ?
उत्तर :
मौलिक अधिकारों की रक्षा हेतु भारतीय नागरिकों को संवैधानिक उपचारों का अधिकार प्रदान किया गया है। इस अधिकार का तात्पर्य यह है कि यदि राज्य या केन्द्र सरकार नागरिकों को दिये गये मौलिक अधिकारों को किसी भी प्रकार से नियन्त्रित करने का प्रयास करती है या उनका हनन करती है, तो उसके लिए उच्च न्यायालय या उच्चतम न्यायालय में सरकार की नीतियों अथवा कानूनों के विरुद्ध अपील की जा सकती है।दीर्घ लनु उत्तरीय प्रश्न
प्रश्न 1.
उत्तर :
प्रजातन्त्र में नागरिकों को उनके सर्वांगीण विकास के लिए कुछ महत्त्वपूर्ण सुविधाएँ तथा स्वतन्त्रताएँ प्रदान की जाती हैं। इन्हीं सुविधाओं तथा स्वतन्त्रताओं को मूल या मौलिक अधिकार कहा जाता है। ‘मूल’ का अर्थ होता है-जड़। वृक्ष के लिए जो महत्त्व जड़ का होता है, वही महत्त्व नागरिकों के लिए इन अधिकारों का है। जिस प्रकार जड़ के बिना वृक्ष का अस्तित्व सम्भव नहीं है, उसी प्रकार मौलिक अधिकारों के बिना नागरिकों का शारीरिक, मानसिक, नैतिक तथा आध्यात्मिक विकास सम्भव नहीं है। प्रजातन्त्रीय देशों में इनका उल्लेख संविधान में कर दिया जाता है, जिससे सरकार आसानी से इन्हें संशोधित या समाप्त न कर सके।भारतीय संविधान में मौलिक अधिकारों को स्पष्ट उल्लेख किया गया है जिससे सत्तारूढ़ दल मनमानी न कर सके। सरकार की निरंकुशता के विरुद्ध मौलिक अधिकार प्रतिरोध का कार्य करते हैं। विधानमण्डल द्वारा निर्मित कोई भी कानून जो मौलिक अधिकारों के विरुद्ध है, न्यायालय द्वारा अवैध घोषित किया जा सकता है। भारत में मौलिक अधिकारों का महत्त्व डॉ० भीमराव अम्बेडकर ने इन शब्दों में व्यक्त किया है, “मौलिक अधिकारों के अनुच्छेद के बिना संविधान अधूरा रह जाएगा। ये संविधान की आत्मा और हृदय हैं।”
प्रश्न 2.
उत्तर :
संविधान ने प्रत्येक नागरिक को धर्म के सन्दर्भ में पूर्ण स्वतन्त्रता प्रदान की है। व्यक्ति को धर्म के क्षेत्र में पूर्ण स्वतन्त्रता इस दृष्टि से प्रदान की गयी है कि वह अपनी इच्छानुसार किसी भी धर्म को स्वीकार करे तथा अपने ढंग से अपने इष्ट की आराधना करे। व्यक्तियों को यह भी स्वतन्त्रता है कि वह अपनी रुचि के अनुसार धार्मिक संस्थाओं का निर्माण एवं अपने धर्म का प्रचार करे। इस प्रकार सभी धार्मिक सन्दर्भो में प्रत्येक नागरिक पूर्ण स्वतन्त्र है। ऐसा करने में संविधान का मुख्य उद्देश्य धर्म के नाम पर होने वाले विवादों का अन्त करना था। अनुच्छेद 25 के अनुसार, सभी व्यक्तियों को, चाहे वे नागरिक हों या विदेशी, अन्त:करण की स्वतन्त्रता तथा किसी भी धर्म को स्वीकार करने, आचरण करने और प्रचार करने की स्वतन्त्रता है अनुच्छेद 26 के अनुसार, धार्मिक मामलों के प्रबन्ध की भी स्वतन्त्रता है। अनुच्छेद 47 के आधार पर, धार्मिक कार्यों के लिए व्यय की जाने वाली राशि को कर से मुक्त किया गया है अनुच्छेद 28 के अनुसार, राजकीय निधि से चलने वाली किसी भी शिक्षण-संस्था में किसी प्रकार की धार्मिक शिक्षा प्रदान नहीं की जाएगी।प्रतिबन्ध – किन्हीं विशेष कारणों या परिस्थितियोंवश किसी विशेष धर्म के प्रचार या धार्मिक संस्थान पर सरकार को प्रतिबन्ध लगाने का पूर्ण अधिकार है।
प्रश्न 3.
उत्तर :
नागरिकों के मौलिक कर्तव्य
भारतीय संविधान निर्माताओं ने संविधान का निर्माण करते समय मौलिक कर्तव्यों को संविधान में सम्मिलित नहीं किया था, परन्तु 42वें संवैधानिक संशोधन द्वारा मौलिक कर्तव्यों को संविधान में सम्मिलित किया गया जिनकी संख्या 10 थी, लेकिन 86वें संविधान संशोधन अधिनियम (2002) द्वारा इसमें एक और बिन्दु जोड़ा गया। अतः अब इनकी संख्या 11 हो गई है
- संविधान, राष्ट्रीय ध्वज तथा राष्ट्रगान का सम्मान करना।
- राष्ट्रीय स्वतन्त्रता आन्दोलन के उद्देश्यों का आदर करना और उनका अनुगमन करना।
- भारत की प्रभुसत्ता, एकता और अखण्डता का समर्थन व सुरक्षा करना।
- देश की रक्षा करना तथा राष्ट्रीय सेवाओं में आवश्यकता के समय भाग लेना।
- भारत में सभी नागरिकों में भ्रातृत्व-भावना विकसित करना।
- प्राचीन सभ्यता व संस्कृति को सुरक्षित रखना।
- वनों, झीलों व जंगली जानवरों की सुरक्षा तथा उनकी उन्नति के लिए प्रयत्न करना।
- वैज्ञानिक तथा मानवतावादी दृष्टिकोण को अपनाना।
- हिंसा को रोकना तथा सार्वजनिक सम्पत्ति की सुरक्षा करना।
- व्यक्तिगत तथा सामूहिक प्रयासों के द्वारा उच्च राष्ट्रीय लक्ष्यों की प्राप्ति के लिए प्रयत्न करना।
- 6 वर्ष से 14 वर्ष की आयु के बच्चे के माता-पिता को अपने बच्चे को शिक्षा दिलाने के लिए अवसर उपलब्ध कराना।
प्रश्न 4.
उत्तर :
सरकार द्वारा नीति-निदेशक तत्त्वों को लागू करने के बावजूद विगत वर्षों में लोक-कल्याणकारी राज्य की स्थापना तो सम्भव नहीं हो सकी, परन्तु इस दिशा में प्रगति अवश्य हुई। है। नीति-निदेशक तत्त्वों को लागू करने के लिए सरकार द्वारा उठाए गए कदम सराहनीय हैं; यथा –(i) पंचवर्षीय योजनाओं के आधार पर कृषि और उद्योगों की उन्नति, शिक्षा और स्वास्थ्य की सुविधाओं का प्रसार, सरकारी सेवाओं पर आर्थिक संसाधनों, साधनों में वृद्धि, राष्ट्रीय आय व लोगों के रहन-सहन के स्तर को ऊँचा उठाने के प्रयत्न किए गए हैं।
(ii) युवा वर्ग और बच्चों के शोषण से सुरक्षा करने के लिए अनेक कानून बनाए गए हैं। बीमारी और दुर्घटना के विरुद्ध सुरक्षा के लिए मजदूर वर्ग में बीमा योजनाएँ लागू की गई हैं व बेरोजगारी बीमा योजना को लागू करने और रोजगार की सुविधाएँ बढ़ाने के प्रयत्न किए जा रहे हैं।
(iii) ‘हिन्दू कोड बिल’ के कई अंशों; जैसे- ‘हिन्दू विवाह अधिनियम, 1955′, ‘हिन्दू उत्तराधिकारी अधिनियम, 1956’ आदि; को पारित करके देश के सभी वर्गों के लिए समान विधि संहिता लागू करने के प्रयत्न किए जा रहे हैं।
(iv) अस्पृश्यता निवारण के लिए तथा अनुसूचित व पिछड़ी जातियों के बच्चों को उदारतापूर्वक छात्रवृत्ति और अन्य सुविधाओं द्वारा शिक्षा प्रदान करने के मार्ग में अभूतपूर्व प्रगति हुई है।
(v) यद्यपि अब भी नि:शुल्क और अनिवार्य प्रारम्भिक शिक्षा सबके लिए पर्याप्त स्वास्थ्य सेवा का प्रबन्ध अपूर्ण है, तथापि इन दिशाओं में महत्त्वपूर्ण प्रगति हुई है। लोकतान्त्रिक विकेन्द्रीकरण और सामुदायिक विकास योजनाओं द्वारा ग्राम पंचायतों और पंचायत राज को भी अधिक सशक्त बना दिया गया है। संविधान के 73वें संशोधन के द्वारा पंचायती राज व्यवस्था को संवैधानिक आधार प्रदान किया गया है। महिलाओं की सहभागिता को सुनिश्चित करने के उद्देश्य से उनके लिए 33.33 प्रतिशत आरक्षण की पंचायती राज संस्थाओं में व्यवस्था की गई है तथा संसद एवं विधानमण्डलों में भी प्रावधान पर विचार चल रहा है। पंचायतों की शक्तियों, अधिकारों तथा कार्यों में भी वृद्धि की गई है।
दीर्घ उत्तरीय प्रश्न
प्रश्न 1.
या
भारतीय संविधान द्वारा नागरिकों को दिये गये मूल अधिकारों में स्वतन्त्रता के अधिकार का सविस्तार वर्णन कीजिए।
या
मौलिक अधिकार क्या हैं ? भारतीय संविधान में वर्णित मौलिक अधिकारों का संक्षेप में वर्णन कीजिए।
या
संविधान में वर्णित नागरिकों के मौलिक अधिकारों में संवैधानिक उपचारों के अधिकार का वर्णन कीजिए और इनका महत्त्व बताइए।
उत्तर :
वे अधिकार, जो मानव-जीवन के लिए आवश्यक एवं अपरिहार्य हैं तथा संविधान द्वारा नागरिकों को प्रदान किये जाते हैं, मौलिक अधिकार कहलाते हैं। इन अधिकारों का व्यवस्थापिका एवं कार्यपालिका द्वारा भी उल्लंघन नहीं किया जा सकता। न्यायपालिका ऐसे समस्त कानूनों को अवैध घोषित कर सकती है, जो संविधान के अनुच्छेदों का उल्लंघन अथवा अतिक्रमण करते हैं। मौलिक अधिकार व्यक्ति के व्यक्तित्व से सम्बद्ध रहते हैं। अत: राज्य द्वारा निर्मित किसी भी कानून से ऊपर होते हैं। इनमें किसी प्रकार का संशोधन केवल संविधान संशोधन के आधार पर ही किया जा सकता है। भारतीय संविधान में निहित मौलिक अधिकार एक विस्तृत अधिकार-पत्र के रूप में हैं। मौलिक अधिकार संविधान के भाग 3 में वर्णित किये गये हैं। भारतीय संविधान के तृतीय भाग में अनुच्छेद 12 से 35 तक मौलिक अधिकारों का विशिष्ट विवेचन किया गया है। इसके द्वारा भारतीय नागरिकों को सात मौलिक अधिकार प्रदान किये गये थे, किन्तु 44वें संवैधानिक संशोधन (1979) द्वारा सम्पत्ति के अधिकार को मौलिक अधिकार के रूप में समाप्त कर दिया गया है। अब सम्पत्ति का अधिकार केवल एक कानूनी अधिकार के रूप में है।मौलिक अधिकारों के प्रकार
भारतीय नागरिकों को निम्नलिखित छ: मौलिक अधिकार प्राप्त हैं –
(i) समानता का अधिकार
संविधान द्वारा निम्नलिखित पाँच प्रकार की समानताएँ प्रदान की गयी हैं –
(1) कानून के क्षेत्र में समानता(अनुच्छेद 14) – संविधान में, कानून के क्षेत्र में सभी नागरिकों को समान अधिकार दिये गये हैं। कानून की दृष्टि में न कोई छोटा है न बड़ा। वह निर्धन को हीन दृष्टि से नहीं देखता और धनवान को भी विशेष महत्त्व नहीं देता। तात्पर्य यह है कि वह सभी को समान दृष्टि से देखता है। धर्म-लिंग के आधार पर भी किसी से किसी प्रकार का भेदभाव नहीं करता।
(2) सार्वजनिक स्थानों के उपभोग में समानता (अनुच्छेद 15) – संविधान में यह स्पष्ट लिखा है कि सार्वजनिक स्थानों; जैसे – तालाबों, नहरों, पार्को आदि सभी का, सभी नागरिक बिना किसी भेदभाव के उपभोग करने के समान अधिकारी हैं।
(3) सरकारी नौकरियों में समानता (अनुच्छेद 16) – सरकारी नौकरियों में नियुक्ति के समय किसी के साथ धर्म, लिंग, जाति आदि के आधार पर भेदभाव नहीं किया जाएगा और नियुक्ति या पदोन्नति का आधार केवल योग्यता को माना जाएगा। इस अधिकार का अपवाद यह है कि अनुसूचित जाति- जनजातियों के लिए नौकरियों में कुछ स्थान सुरक्षित कर दिये गये हैं। राज्य पिछड़े वर्गों के लिए भी स्थानों का आरक्षण कर सकता है। इसके अतिरिक्त राज्य कुछ पदों के लिए आवास की योग्यता भी निर्धारित कर सकता है।
(4) अस्पृश्यता का अन्त (अनुच्छेद 17) – अनुसूचित जातियों के उत्थान और उनमें स्वाभिमान की भावना जगाने तथा उनका विकास करने के उद्देश्य से अस्पृश्यता को अपराध घोषित किया गया है।
(5) उपाधियों का अन्त (अनुच्छेद 18) – व्यक्तियों में पारस्परिक भेदभाव, ऊँच-नीच की भावना को समाप्त कर, समाज में समानता स्थापित करने के उद्देश्य से, संविधान ने अंग्रेजी शासन द्वारा दी जाने वाली सभी उपाधियों को निरस्त कर दिया है। अब केवल शैक्षिक और सैनिक उपाधियाँ ही दी जाती हैं।
अपवाद – उपर्युक्त क्षेत्रों में समानता का सिद्धान्त लागू किया गया है, फिर भी मानव-हितों और उनके उत्थान को ध्यान में रखकर सरकार कुछ क्षेत्रों में इन नियमों की अवहेलना भी कर सकती है।
(ii) स्वतन्त्रता का अधिकार
(1) अनुच्छेद 19 द्वारा इस अधिकार से सम्बन्धित निम्नलिखित छः स्वतन्त्रताएँ नागरिकों को प्राप्त हैं –
- भाषण द्वारा विचाराभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता-संविधान ने प्रत्येक व्यक्ति को भाषण के रूप में अपने विचार व्यक्त करने एवं अपने विचारों को पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित कराने की स्वतन्त्रता प्रदान की है।
- सभा करने की स्वतन्त्रता संविधान ने नागरिकों को शान्तिपूर्वक सभा व सम्मेलन करने की भी स्वतन्त्रता प्रदान की है।
- व्यवसाय की स्वतन्त्रता–प्रत्येक व्यक्ति अपनी इच्छानुसार व्यवसाय करने के लिए स्वतन्त्र है।
- संघ या समुदाय के निर्माण की स्वतन्त्रता-नागरिकों को मानव-हितों के लिए समुदायों अथवा संघों के निर्माण की स्वतन्त्रता है।
- भ्रमण की स्वतन्त्रता-संविधान ने नागरिकों को देश की सीमाओं के अन्दर स्वतन्त्रतापूर्वक एक स्थान से दूसरे स्थान पर आने-जाने की पूर्ण स्वतन्त्रता दी है।
- आवास की स्वतन्त्रता प्रत्येक व्यक्ति को इस बात की स्वतन्त्रता दी गयी है कि वह अपनी स्थिति के अनुसार किसी भी स्थान पर रहे।
अपवाद – समाज तथा राष्ट्र के हित में सरकार के द्वारा स्वतन्त्रता के अधिकार पर भी विवेकपूर्ण प्रतिबन्ध लगाये जा सकते हैं।
(2) अपराधों की दोषसिद्धि के सम्बन्ध में संरक्षण – अनुच्छेद 20 के अनुसार
(क) किसी व्यक्ति को उस समय तक दण्ड नहीं दिया जा सकता, जब तक कि उसने किसी प्रचलित कानून को न तोड़ा हो तथा
(ख) उसे स्वयं अपने विरुद्ध गवाही देने के लिए किसी भी प्रकार से बाध्य नहीं किया जा सकता।
(3) जीवन और शरीर-रक्षण का अधिकार अनुच्छेद 21 के अनुसार, किसी व्यक्ति की प्राण अथवा दैहिक स्वतन्त्रता को केवल विधि द्वारा स्थापित प्रक्रिया को छोड़कर, अन्य किसी प्रकार से वंचित नहीं किया जाएगा।
(4) बन्दीकरण के संरक्षण की स्वतन्त्रता-अनुच्छेद 22 के अनुसार
(क) प्रत्येक बन्दी को बन्दी होने का कारण जानने का अधिकार दिया गया है तथा
(ख) किसी को बन्दी बनाने के बाद उसे 24 घण्टे के अन्दर ही किसी न्यायाधीश के समक्ष उपस्थित करना आवश्यक है।
(iii) शोषण के विरुद्ध अधिकार
संविधान में अनुच्छेद 23 व 24 को सम्मिलित करने का उद्देश्य यह था कि कोई किसी का शोषण ने कर सके। अतः संविधान द्वारा यह घोषणा की गयी है कि –
- किसी व्यक्ति से बेगार और बलपूर्वक काम नहीं लिया जाएगा।
- चौदह वर्ष से कम आयु के बालक-बालिकाओं से खानों, कारखानों तथा स्वास्थ्य पर बुरा प्रभाव डालने वाले स्थानों पर काम नहीं लिया जाएगा।
- स्त्रियों व बच्चों का क्रय-विक्रय करना अपराध है। अपवाद-राज्य सार्वजनिक कार्यों के लिए नागरिकों की अनिवार्य सेवाएँ प्राप्त कर सकता है।
(iv) धार्मिक स्वतन्त्रता का अधिकार
संविधान ने भारत में धर्मनिरपेक्ष राज्य की स्थापना करने के उद्देश्य से प्रत्येक नागरिक को पूर्ण धार्मिक स्वतन्त्रता प्रदान की है अर्थात् प्रत्येक नागरिक अपनी अन्तरात्मा के अनुसार कोई भी धर्म स्वीकार कर सकता है, अपने धर्म की प्रथा के अनुसार आराधना कर सकता है तथा अपने धर्म का प्रचार-प्रसार कर सकता है (अनुच्छेद 25)। सभी व्यक्तियों को धार्मिक मामलों एवं संस्थाओं का प्रबन्ध करने की भी स्वतन्त्रता है (अनुच्छेद 26)। राज्य किसी भी धर्म के साथ पक्षपात नहीं करेगा। इसका आशय यह है कि राज्य धार्मिक मामलों में पूर्णरूप से तटस्थ है और धर्म, व्यक्ति का व्यक्तिगत विषय है। इसके अतिरिक्त, नागरिकों पर किसी प्रकार का धार्मिक कर नहीं लगाया जाएगा (अनुच्छेद 27)। यह भी घोषणा की गयी है कि सरकारी अथवा सरकारी सहायता या मान्यता प्राप्त शिक्षा संस्था में किसी धर्म-विशेष की शिक्षा नहीं दी जा सकती है (अनुच्छेद 28)। इसके अतिरिक्त 42वें संवैधानिक संशोधन के द्वारा संविधान की प्रस्तावना में ‘पन्थनिरपेक्ष’ शब्द जोड़ा गया है।
अपवाद – अन्य अधिकारों की भाँति इस अधिकार पर भी कुछ प्रतिबन्ध हैं। सरकार किसी भी ऐसे धार्मिक आचरण पर कानून बनाकर रोक लगा सकती है, जिससे सामाजिक या राष्ट्रीय हितों को कोई खतरा पहुँचता हो।
(v) सांस्कृतिक व शिक्षा-सम्बन्धी अधिकार
- अनुच्छेद 29 के अनुसार प्रत्येक भाषा-भाषी को अपनी संस्कृति, भाषा और लिपि को सुरक्षित रखने का अधिकार है।
- प्रत्येक व्यक्ति को राज्य द्वारा स्थापित या राज्य द्वारा दी गयी आर्थिक सहायता से चल रहे शिक्षण संस्थान में प्रवेश लेने का अधिकार है, चाहे वह किसी भी धर्म, जाति या वर्ग से सम्बन्ध रखता हो।
- अनुच्छेद 30 के अनुसार प्रत्येक वर्ग के व्यक्तियों को अपनी इच्छानुसार शिक्षण संस्थाएँ खोलने का अधिकार दिया गया है।
- संविधान संशोधन, 93 (2001) के अनुसार 6 वर्ष से 14 वर्ष तक के बच्चों के लिए नि:शुल्क शिक्षा का अधिकार दिया गया है।
(vi) संवैधानिके उपचारों का अधिकार
उपर्युक्त मूल अधिकारों की रक्षा हेतु संविधान में अनुच्छेद 32 के अनुसार संवैधानिक उपचारों का अधिकार भी सम्मिलित किया गया है। इस अधिकार का तात्पर्य यह है कि यदि राज्य या सरकार, नागरिक को दिये गये मूल अधिकारों पर किसी प्रकार का प्रतिबन्ध लगाती है या उनका अतिक्रमण करती है तो वे उसके लिए उच्च न्यायालय अथवा सर्वोच्च न्यायालय की शरण ले सकते हैं। नागरिकों के मौलिक अधिकारों की रक्षा के लिए उच्च न्यायालयों तथा सर्वोच्च न्यायालय द्वारा निम्नलिखित पाँच प्रकार के लेख जारी किये जाते हैं –
- बन्दी प्रत्यक्षीकरण (Habeas Corpus)
- परमादेश (Mandamus)
- अधिकार पृच्छा (Quo-Warranto)
- प्रतिषेध (Prohibition)
- उत्प्रेषण लेख (Certiorari)।
अपवाद – व्यक्तियों के द्वारा साधारण परिस्थितियों में ही न्यायालय की शरण लेकर अपने मौलिक अधिकारों की रक्षा की जा सकती है। आपातकाल में कोई व्यक्ति अपने मौलिक अधिकारों की रक्षा के लिए न्यायालय में प्रार्थना नहीं कर सकता।
उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट है कि नागरिकों को संविधान के द्वारा प्रदत्त मौलिक अधिकारों का क्षेत्र बहुत व्यापक है। मौलिक अधिकार व्यक्ति-स्वातन्त्र्य तथा अधिकारों के हित में राज्य की शक्ति पर प्रतिबन्ध लगाने के श्रेष्ठ उपाय हैं। भारत ही नहीं वरन् विश्व के अधिकांश राष्ट्रों में वर्तमान समय में मौलिक अधिकारों की व्यवस्था ने एक सर्वमान्य अवधारणा का रूप धारण कर लिया है।
मौलिक अधिकारों का महत्त्व
मूल अधिकार लोकतन्त्र के आधार-स्तम्भ हैं। मूल’ का अर्थ होता है-जड़। वृक्ष के लिए जो महत्त्व जड़ का होता है, वही महत्त्व नागरिकों के लिए इन अधिकारों का है। जिस प्रकार जड़ के बिना वृक्ष का अस्तित्व सम्भव नहीं है, उसी प्रकार मौलिक अधिकारों के बिना नागरिकों का शारीरिक, मानसिक, नैतिक तथा आध्यात्मिक विकास सम्भव नहीं है। ये जनता के जीवन के रक्षक हैं। ये बहुमत की तानाशाही पर अंकुश लगाते हैं और मानव की स्वतन्त्रता तथा सामाजिक नियन्त्रण में समन्वय स्थापित करते हैं।
संविधान में मौलिक अधिकारों का बहुत महत्त्व है, जो निम्नलिखित है –
(1) मौलिक अधिकार प्रजातन्त्र के आधार-स्तम्भ हैं – मूल अधिकार प्रजातन्त्र के लिए अनिवार्य हैं। इनके द्वारा प्रत्येक व्यक्ति को पूर्ण शारीरिक, मानसिक और नैतिक विकास की सुरक्षा प्रदान की जाती है।
(2) बहुमत की तानाशाही को रोकते हैं – मौलिक अधिकार एक देश के राजनीतिक जीवन में एक दल विशेष की तानाशाही स्थापित होने से रोकने के लिए अनिवार्य हैं। मौलिक अधिकार शासकीय और बहुमत वर्ग के अत्याचारों से व्यक्ति की रक्षा करते हैं।
(3) व्यक्ति की स्वतन्त्रता और सामाजिक नियन्त्रण में समन्वय – मौलिक अधिकार व्यक्ति की स्वतन्त्रता और सामाजिक नियन्त्रण के उचित सामंजस्य की स्थापना करते हैं।
मौलिक अधिकारों का संविधान में उल्लेख कर देने से उनके महत्त्व और सम्मान में वृद्धि होती है। इससे उन्हें साधारण कानून से अधिक उच्च स्थान और पवित्रता प्राप्त हो जाती है। इससे वे अनुल्लंघनीय होते हैं। व्यवस्थापिका, कार्यपालिका व न्यायपालिका के लिए उनका पालन आवश्यक हो जाता है।
डॉ० भीमराव अम्बेडकर ने मौलिक अधिकारों का महत्त्व व्यक्त करते हुए कहा है कि, “मौलिक अधिकारों के अनुच्छेद के बिना संविधान अधूरा रह जाएगा। ये संविधान की आत्मा और हृदय हैं।”
प्रश्न 2.
उत्तर :
दक्षिण अफ्रीका के संविधान में अधिकारों की घोषणा-पत्र दक्षिण अफ्रीका का संविधान दिसम्बर, 1996 में लागू हुआ। इसे तब बनाया और लागू किया गया जब रंगभेद वाली सरकार के हटने के बाद दक्षिण अफ्रीका गृहयुद्ध के खतरे से जूझ रहा था। दक्षिण अफ्रीका के संविधान के अनुसार “उसके अधिकारों की घोषणा-पत्र दक्षिण अफ्रीका में प्रजातन्त्र की आधारशिला है।” यह नस्ल, लिंग, गर्भधारण, वैवाहिक स्थिति, जातीय या सामाजिक मूल, रंग, आयु, अपंगता, धर्म, अन्तरात्मा, आस्था, संस्कृति, भाषा और जन्म के आधार पर भेदभाव वर्जित करता है। यह नागरिकों को सम्भवतः सबसे ज्यादा व्यापक अधिकार देता है। संवैधानिक अधिकारों को एक विशेष संवैधानिक न्यायालय लागू करता है।दक्षिण अफ्रीका के संविधान में सम्मिलित कुछ प्रमुख अधिकार निम्नलिखित हैं –
- गरिमा का अधिकार
- निजता का अधिकार
- श्रम-सम्बन्धी समुचित व्यवहार का अधिकार
- स्वस्थ पर्यावरण और पर्यावरण संरक्षण का अधिकार
- समुचित आवास का अधिकार
- स्वास्थ्य सुविधाएँ, भोजन, पानी और सामाजिक सुरक्षा का अधिकार
- बाल-अधिकार
- बुनियादी और उच्च शिक्षा का अधिकार
- सांस्कृतिक, धार्मिक और भाषाई समुदायों का अधिकार
- सूचना प्राप्त करने का अधिकार।
प्रश्न 3.
या
मौलिक कर्तव्यों से आप क्या समझते हैं ? इनका क्या महत्त्व है ?
उत्तर :
भारतीय संविधान में मूल कर्तव्यों का कोई उल्लेख नहीं था; अत: यह अनुभव किया गया कि मूल अधिकारों के साथ-साथ मूल कर्तव्यों की भी व्यवस्था आवश्यक है। इस कमी को 1976 में संविधान के 42वें संशोधन द्वारा दूर किया गया और संविधान में एक नया अनुच्छेद 51 (क) ‘मौलिक कर्तव्य’ जोड़ा गया। संविधान के 86वें संशोधन अधिनियम 2002 के अन्तर्गत एक कर्तव्य और जोड़ा गया। नागरिकों के ग्यारह कर्तव्यों का वर्णन निम्नवत् है –- संविधान का पालन करना और उसके आदर्शों, संस्थाओं, राष्ट्रगान और राष्ट्रीय ध्वज का आदर करना।
- देश के स्वतन्त्रता संग्राम में जो उच्च आदर्श रखे गये थे, उनका पालन करना व उनके प्रति हृदय में आदर बनाये रखना।
- भारत की प्रभुसत्ता, एकता तथा अखण्डता का समर्थन और रक्षा करना।
- देश की रक्षा के लिए हर समय तैयार रहना तथा आवश्यकता पड़ने पर राष्ट्रीय सेवाओं में भाग लेना।
- भारत के सभी नागरिकों में भ्रातृत्व की भावना विकसित करना, विभिन्न प्रकार की भिन्नताओं के बीच एकता की स्थापना करना और स्त्रियों के प्रति आदरभाव रखना।
- हमारी प्राचीन संस्कृति और उसकी देनों को तथा उसकी गौरवशाली परम्परा का महत्त्व समझना और उसकी सुरक्षा करना।
- प्राकृतिक पर्यावरण को दूषित होने से बचाना एवं वनों, झीलों, नदियों की रक्षा और संवर्धन करना तथा वन्य प्राणियों के प्रति दयाभाव रखना।
- वैज्ञानिक तथा मानवतावादी दृष्टिकोण अपनाना और ज्ञानार्जन तथा सुधार की भावना का विकास करना।
- सार्वजनिक सम्पत्ति की रक्षा करना तथा हिंसा को रोकना।
- व्यक्तिगत तथा सामूहिक प्रयत्नों के द्वारा सभी क्षेत्रों में श्रेष्ठता प्राप्त करने का प्रयास करना।
- छः से चौदह वर्ष तक के बालकों को उनके माता-पिता या संरक्षक द्वारा अनिवार्य शिक्षा के अवसर उपलब्ध कराना।
मौलिक कर्तव्यों का महत्त्व
मौलिक कर्तव्य हमारे लोकतन्त्र को सशक्त बनाने में सहायक होंगे। इनमें कहा गया है कि नागरिक लोकतान्त्रिक संस्थाओं के प्रति आदर का भाव रखें। देश की सम्प्रभुता, एकता एवं अखण्डता की रक्षा करें। सार्वजनिक सम्पत्ति को अपनी निजी सम्पत्ति समझकर उसे नष्ट होने से बचायें। इस प्रकार का दृष्टिकोण लोकतन्त्र की सफलता के लिए अनिवार्य है।
इनके द्वारा विघटनकारी शक्तियों पर रोक लगेगी और देश में एकता-अखण्डता की भावना का विकास होगा। भौतिक वातावरण दूषित होने से बचेगा और स्वास्थ्यवर्द्धक वातावरण का निर्माण होगा। राष्ट्रीय जीवन से अयोग्यता एवं अक्षमता को दूर करने में सहायता प्राप्त होगी। देश-प्रेम की भावना बलवती होगी और देश की गौरवशाली परम्परागत संस्कृति को सुरक्षित रखने में सहायता मिलेगी।
मौलिक कर्तव्यों के पीछे कोई कानूनी शक्ति नहीं है। इनका स्वरूप नैतिक माना जाता है और यही विशेष महत्त्व रखता है। राष्ट्र और समाज-विरोधी कार्यवाहियाँ करने वाले व्यक्तियों को संविधान में उल्लिखित ये कर्तव्य उन्हें ऐसा न करने के लिए नैतिक प्रेरणा देते हैं। वास्तव में अधिकारों से भी अधिक महत्त्व कर्तव्यों को दिया जाना चाहिए, क्योंकि कर्तव्यपालन से ही अधिकार प्राप्त हो सकते हैं।
मौलिक कर्तव्यों की आलोचना
मौलिक कर्तव्यों की विभिन्न विद्वानों ने कई प्रकार से आलोचना की है तथा उनमें कमियाँ बतायी हैं जो कि निम्नलिखित हैं –
(1) मूल कर्तव्य आदर्शवादी हैं, उन्हें लागू करना कठिन है। इस कारण व्यावहारिक जीवन में इनकी कोई उपयोगिता नहीं है; जैसे – राष्ट्रीय आन्दोलन के प्रेरक आदर्शों को पालन करना अथवा वैज्ञानिक तथा मानवतावादी दृष्टिकोण अपनाना।
(2) मूल कर्तव्यों का उल्लंघन किये जाने पर दण्ड की व्यवस्था नहीं की गयी है। ऐसी स्थिति में यह कैसे विश्वास किया जा सकता है कि नागरिक इन कर्तव्यों का पालन अवश्य ही करेंगे।
(3) कुछ मूल कर्तव्यों की भाषा अस्पष्ट है; जैसे-मानववाद, सुधार की भावना का विकास और सभी क्षेत्रों में उत्कृष्टता के प्रयास आदि ऐसी बातें हैं जिनकी व्याख्या विभिन्न व्यक्ति अपने अपने दृष्टिकोण के अनुसार मनमाने रूप से कर सकते हैं। साधारण नागरिक के लिए तो इनका समझना कठिन है। जब इनका समझना ही कठिन है तो इनका पालन करना तो और भी कठिन हो जाएगा।
निष्कर्ष – नि:सन्देह मौलिक कर्तव्यों की आलोचना की गयी है, लेकिन इससे इन कर्तव्यों का महत्त्व कम नहीं हो जाता। संविधान में मौलिक कर्तव्यों के अंकित किये जाने से ये नागरिकों को सदैव याद । दिलाते रहेंगे कि नागरिकों के अधिकारों के साथ कर्तव्य भी हैं। एक प्रसिद्ध विद्वान् का कथन है, “अधिकारों का अस्तित्व केवल कर्तव्यों के संसार में ही होता है।”
प्रश्न 4.
या
“अधिकार और कर्तव्य परस्पर सम्बन्धित हैं।” इस कथन को स्पष्ट कीजिए।
उत्तर :
अधिकार और कर्तव्य एक प्राण और दो शरीर के समान हैं। एक के समाप्त होते ही दूसरा स्वयं ही समाप्त हो जाता है। एक व्यक्ति का अधिकार दूसरे का कर्तव्य बन जाता है। जहाँ एक व्यक्ति को सुरक्षित जीवन का अधिकार होता है, वहीं दूसरे व्यक्ति का कर्तव्य बन जाता है कि वे उसके जीवन को नष्ट न करे।महात्मा गांधी के अनुसार, “कर्तव्य का पालन कीजिए; अधिकार स्वत: ही आपको मिल जाएँगे।”
प्रो० एच० जे लॉस्की के अनुसार, “मेरा अधिकार तुम्हारा कर्तव्य है। अधिकार में यह कर्तव्य निहित है कि मैं तुम्हारे अधिकार को स्वीकार करूं। मुझे अपने अधिकारों का प्रयोग सामाजिक हित में वृद्धि करने की दृष्टि से करना चाहिए, क्योंकि राज्य मेरे अधिकारों को सुरक्षित रखता है; अत: राज्य की सहायता करना मेरा कर्तव्य है।”
अधिकारों और कर्तव्यों की पूरकता (सम्बन्ध) को निम्नवत् दर्शाया जा सकता है –
(1) समाज-कल्याण तथा अधिकार – अधिकार सामाजिक वस्तु है। इसका अस्तित्व तथा भोग समाज में ही सम्भव है। इसलिए प्रत्येक अधिकार के पीछे एक आधारभूत कर्तव्य होता है कि मनुष्य अपने अधिकारों का भोग इस प्रकार करे कि समाज का अहित न हो। समाज व्यक्ति को इसी विश्वास के साथ अधिकार प्रदान करता है कि वह अपने अधिकारों का प्रयोग सार्वजनिक हित में करेगा।
(2) अधिकार और कर्तव्य : जीवन के दो पक्ष – अधिकार भौतिक है और कर्तव्य नैतिक। अधिकार भौतिक वस्तुओं-भोजन, वस्त्र, भवन-की पूर्ति करता है, किन्तु कर्त्तव्य से परमानन्द की प्राप्ति होती है। अतः अधिकार एवं कर्तव्य जीवन के दो पक्ष हैं।
(3) कर्त्तव्यपालन तथा अधिकारों का उपभोग – कर्तव्यपालन में ही अधिकारों के उपभोग का रहस्य छिपा हुआ है; जैसे कोई व्यक्ति जीवन और सम्पत्ति के अधिकार का भोग बिना बाधा के करना चाहता है, तो इसके लिए अनिवार्य है कि वह अन्य व्यक्तियों के जीवन तथा सम्पत्ति के संरक्षण में बाधक न बने। अधिकारों का सदुपयोग ही कर्तव्य है।
(4) अधिकार और कर्त्तव्य : एक-दूसरे के पूरक-प्रो० श्रीनिवास शास्त्री के अनुसार, अधिकार और कर्तव्य दो भिन्न-भिन्न दृष्टिकोण से देखे जाने के कारण एक ही वस्तु के दो नाम हैं।” बिना कर्तव्यों के अधिकारों का उपयोग असम्भव है। एक के बिना दूसरे का अस्तित्व नहीं है। दोनों की उत्पत्ति एवं अन्त साथ-साथ होता है।
(5) अधिकार तथा कर्त्तव्य : एक सिक्के के दो पहलू – व्यक्ति के अधिकारों को नियमित बनाने के लिए समाज की स्वीकृति आवश्यक है। यही स्वीकृति देना समाज का कर्तव्य है और समाज के जो अधिकार होते हैं वे व्यक्ति के कर्तव्य बन जाते हैं। उदाहरण के लिए, यदि मेरा अधिकार है कि मैं स्वतन्त्रतापूर्वक अपने विचारों को व्यक्त कर सकें तो इस अधिकार के कारण अन्य व्यक्तियों का भी यह कर्तव्य है कि वे मेरे विचारों की अभिव्यक्ति में बाधा न डालें। इसी प्रकार यदि अन्य व्यक्तियों का यह अधिकार है कि वे अपनी इच्छानुसार अपने धर्म का पालन करें, तो मेरा यह कर्तव्य हो जाता है कि मैं उनके विश्वास में बाधा न डालें।
उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट है कि अधिकारों और कर्तव्यों को एक-दूसरे से पृथक् करके कल्पना ही नहीं की जा सकती। अधिकार कर्तव्य की तथा कर्तव्य अधिकार की छाया मात्र होता है। एक के हट जाने से दोनों का अस्तित्व नष्ट हो जाता है।
प्रश्न 5.
उत्तर :
‘राज्य के नीति-निदेशक तत्त्व’ वे सिद्धान्त हैं, जो राज्य की नीति का निर्देशन करते हैं। दूसरे शब्दों में, राज्य जिन सिद्धान्तों को अपनी शासन-नीति का आधार बनाता है, वे ही राज्य के नीति-निदेशक तत्त्व या सिद्धान्त कहे जाते हैं। ये तत्त्व राज्य के प्रशासन के पथ-प्रदर्शक हैं। राज्य के नीति-निदेशक तत्त्वों के अन्तर्गत उन आदेशों एवं निर्देशों का समावेश है, जो भारतीय संविधान ने भारत-राज्य तथा विभिन्न राज्यों को अपनी सामाजिक तथा आर्थिक नीति का निर्धारण करने के लिए दिये हैं। एल० जी० खेडेकर के शब्दों में, “राज्य के नीति निदेशक तत्त्व वे आदर्श हैं, सरकार जिनकी पूर्ति का प्रयत्न करेगी।”राज्य के नीति-निदेशक तत्त्वों के पीछे कोई कानूनी सत्ता नहीं है। यह राज्य की इच्छा पर निर्भर है कि वह इनका पालन करे या न करे, फिर भी इनका पालन करना सरकार का नैतिक कर्तव्य है। ये नीति-निदेशक तत्त्व राज्य के लिए नैतिकता के सूत्र हैं तथा देश में स्वस्थ एवं वास्तविक प्रजातन्त्र की स्थापना की दिशा में प्रेरणा देने वाले हैं।
प्रमुख नीति-निदेशक तत्त्व
भारत के संविधान में राज्य के नीति-निदेशक तत्त्वों का उल्लेख निम्नलिखित रूप में किया गया है –
(i) आर्थिक सुरक्षा सम्बन्धी तत्त्व – आर्थिक सुरक्षा सम्बन्धी नीति-निदेशक तत्त्वों के अन्तर्गत राज्य इस प्रकार की व्यवस्था करेगा, जिससे निम्नलिखित लक्ष्यों की पूर्ति हो सके –
- प्रत्येक स्त्री और पुरुष को समान रूप से जीविका के साधन उपलब्ध हों।
- धन तथा उत्पादन के साधन कुछ थोड़े से व्यक्तियों के हाथों में इकट्टे न हो जाएँ।
- प्रत्येक स्त्री तथा पुरुष को समान कार्य के लिए समान वेतन प्राप्त करने का अधिकार होगा। स्त्रियों को प्रसूति काल में कुछ विशेष सुविधाएँ भी प्राप्त होंगी।
- पुरुषों तथा स्त्रियों के स्वास्थ्य एवं शक्ति तथा बच्चों की सुकुमार अवस्था का दुरुपयोग न हो तथा आवश्यकता से विवश होकर नागरिकों को ऐसा कार्य न करना पड़े, जो उनकी आयु-शक्ति या अवस्था के प्रतिकूल हो।
- राज्य अपनी आर्थिक सामर्थ्य और विकास की सीमाओं के अन्तर्गत काम पाने के, शिक्षा पाने के और बेरोजगारी, वृद्धावस्था, बीमारी तथा अन्य कारणों से जीविका कमाने में असमर्थ व्यक्तियों को आर्थिक सहायता पाने के अधिकार को प्राप्त कराने का प्रभावी उपबन्ध करेगा।
- गाँवों में निजी तथा सहकारी आधार, पर संचालित उद्योग-धन्धों को प्रोत्साहित किया जाएगा।
- कृषि तथा उद्योगों में लगे श्रमिकों को उचित वेतन मिल सके तथा उनका जीवन-स्तर ऊँचा हो।
- कृषि तथा पशुपालन व्यवस्था को आधुनिक एवं वैज्ञानिक ढंग से संगठित तथा विकसित किया जा सके।
- भौतिक साधनों को न्यायपूर्ण वितरण हो।
- औद्योगिक संस्थानों के प्रबन्ध में कर्मचारियों की भी भागीदारी हो।
- कानूनी व्यवस्था का संचालन समान अवसर तथा न्याय-प्राप्ति में सहायक है। समाज के कमजोर वर्गों के लिए नि:शुल्क कानूनी सहायता की व्यवस्था, जिससे कोई व्यक्ति न्याय पाने से वंचित न रहे।
(ii) सामाजिक व्यवस्था सम्बन्धी तत्व – नागरिकों के सामाजिक उत्थान के लिए राज्य निम्नलिखित व्यवस्थाएँ करेगा –
- समाज के विभिन्न वर्गों विशेषकर अनुसूचित जातियों, जनजातियों तथा पिछड़ी जातियों की सुरक्षा एवं उत्थान के साथ-साथ सामाजिक अन्याय व इसी प्रकार के शोषण से उनकी रक्षा हो सके।
- लोगों के जीवन-स्तर तथा स्वास्थ्य में सुधार हो सके। मानव-जीवन के कल्याण हेतु राज्य को नशीली वस्तुओं, मद्यपान तथा अन्य मादक पदार्थों पर रोक लगानी चाहिए।
- देश के प्रत्येक नागरिक को साक्षर बनाने के लिए राज्य सभी बालकों को 14 वर्ष की आयु पूरी करने तक निःशुल्क और अनिवार्य शिक्षा देने के लिए प्रावधान करने का प्रयास करेगा।
- बयालीसवें संविधान संशोधन के अनुसार राज्य देश के पर्यावरण के संरक्षण तथा संवर्धन का और वन तथा वन्य जीवन की रक्षा का प्रयास करेगा।
- राज्य विशिष्टतया आय की असमानता को कम करने तथा विभिन्न व्यवसायों में लगे लोगों के मध्य प्रतिष्ठा, सुविधाओं की प्राप्ति तथा अवसर की असमानताओं को समाप्त करने का प्रयास करेगा।
(iii) सांस्कृविक विकास सम्बन्धी तत्त्व – सांस्कृतिक क्षेत्र में नागरिकों के विकास हेतु राज्य निम्नलिखित नीतियों का पालन करने का प्रयत्न करेगा
- संविधान के अनुच्छेद 46 के अनुसार दलित वर्ग का आर्थिक और शैक्षिक विकास करना राज्य का कर्तव्य होगा।
- राष्ट्रीय महत्त्व के स्मारकों, भवनों, स्थानों तथा वस्तुओं की देखभाल तथा संरक्षण की व्यवस्था राज्य अनिवार्य रूप से करेगा।
(iv) न्याय सम्बन्धी तत्त्व – न्यायिक क्षेत्र में सुधार लाने के लिए राज्य निम्नलिखित सिद्धान्तों का अनुसरण करेगा –
- राज्य देश के समस्त नागरिकों के लिए समस्त राज्य-क्षेत्र में एक समान कानून तथा न्यायालय की व्यवस्था करेगा।
- देश के सभी गाँवों में राज्य के द्वारा ग्राम पंचायतों की स्थापना की जाएगी तथा राज्य उन्हें ऐसे अधिकार प्रदान करेगा, जिससे देश में स्वायत्त शासन की स्थापना हो सके।
(v) अन्तर्राष्ट्रीय शान्ति तथा सुरक्षा सम्बन्धी तत्त्व – इस सम्बन्ध में राज्य निम्नलिखित सिद्धान्तों का पालन करेगा –
- अन्तर्राष्ट्रीय शान्ति एवं सुरक्षा के प्रयासों को प्रोत्साहन देगा।
- अन्तर्राष्ट्रीय विवादों को मध्यस्थता द्वारा निपटाने के कार्य को प्रोत्साहन देगा।
- विभिन्न राष्ट्रों के बीच न्यायसंगत एवं सम्मानपूर्ण सम्बन्धों को बनाने की दिशा में कार्य करेगा।
- अन्तर्राष्ट्रीय कानूनों तथा सन्धियों के प्रति आदरभाव रखेगा।
निष्कर्ष रूप में कहा जा सकता है कि नीति-निदेशक तत्त्वों के माध्यम से भारत में आर्थिक प्रजातन्त्र की स्थापना हो सकेगी और भारत एक कल्याणकारी राज्य बन सकेगा।
प्रश्न 6.
उत्तर :
निवारक निरोध
अनुच्छेद 22 के खण्ड 4 में निवारक निरोध (Preventive Detention) का उल्लेख किया गया है। निवारक निरोध का तात्पर्य वास्तव में किसी प्रकार का अपराध किए जाने के पूर्व और बिना किसी प्रकार की न्यायिक प्रक्रिया के ही किसी को नजरबन्द करना है। निवारक निरोध के अन्तर्गत किसी व्यक्ति को तीन माह तक नजरबन्द रखा जा सकता है। इससे अधिक यह अवधि परामर्शदात्री परिषद् की सिफारिश पर बढ़ाई जा सकती है। निवारक निरोध अधिनियम, 1947 ई० में पारित किया गया था। समय-समय पर इसकी अवधि बढ़ाई जाती रही और वह 1969 ई० तक चलता रहा। 1971 ई० में इसका स्थान ‘आन्तरिक सुरक्षा अधिनियम’ (Maintenence of Internal Security Act, 1971) ने ले लिया। इस कानून को बोलचाल की भाषा में ‘मीसा’ (MISA) के नाम से जाना जाता है। इसके पश्चात् 1981 ई० में इसके स्थान पर राष्ट्रीय सुरक्षा कानून’ (National Security Act) पारित किया गया। तत्पश्चात् टाडा कानून’ (Terrorist and Disruptive Activities Act) लागू किया गया। वर्तमान में यह भी समाप्त कर दिया गया है और इसके स्थान पर पोटा (Prevention of Terrorist Act) का निर्माण किया गया है। अब इसे भी संशोधित करने की प्रक्रिया चल रही है।
निवारक निरोध कानून की आलोचना और उसका महत्त्व
स्वतन्त्रता के अधिकार पर लगे प्रतिबन्धों को देखकर अनेक विद्वानों ने इसकी आलोचना की है। निवारक निरोध कानून के विषय में टेकचन्द बख्शी ने कहा था कि यह दमन तथा निरंकुशता का पत्र है। इसी प्रकार सोमनाथ लाहिड़ी ने इसकी आलोचना करते हुए कहा था, “मूल अधिकारों का निर्माण पुलिस के सिपाही के दृष्टिकोण से किया गया है, स्वतन्त्रता के लिए संघर्ष करने वाले राष्ट्र के दृष्टिकोण से नहीं।” परन्तु निवारक निरोध अथवा मीसा की आलोचना के बावजूद भी इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि वर्तमान परिस्थितियों में यह व्यवस्था कुछ सीमा तक आवश्यक और उपयोगी है। न्यायमूर्ति पतंजलि शास्त्री के अनुसार, “इस भयावह उपकरण की व्यवस्था ……………. उन समाज-विरोधी और विध्वंसकारी तत्त्वों के विरुद्ध की गई है, जिनसे नवविकसित प्रजातन्त्र के राष्ट्रीय हितों को खतरा है।” वस्तुत: निवारक निरोध की व्यवस्था एक ‘भरी हुई बन्दूक’ के समान है और उसका प्रयोग बहुत सावधानी से तथा विवेकपूर्ण ही किया जाना चाहिए।
प्रश्न 7.
उत्तर :
किसी भी संविधान द्वारा प्रदान किए गए अधिकारों की वास्तविक पहचान तब होती है जब उन्हें लागू किया जाता है। समाज के गरीब, अशिक्षित और कमजोर वर्ग के लोगों को अपने अधिकारों का प्रयोग करने की स्वतन्त्रता होनी चाहिए। पीपल्स यूनियन फॉर सिविल लिबर्टीज (पी०यू०सी०एल०) या पीपल्स यूनियन फॉर डेमोक्रेटिक राइट्स (पी०यू०डी०आर०) जैसी संस्थाएँ अधिकारों के हनन पर दृष्टि रखती हैं। इस परिप्रेक्ष्य में वर्ष 2000 में सरकार ने राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग का गठन किया।राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग में उच्चतम न्यायालय का एक पूर्व न्यायाधीश, किसी उच्च न्यायालय का एक पूर्व मुख्य न्यायाधीश तथा मानवाधिकारों के सम्बन्ध में ज्ञान या व्यावहारिक अनुभव रखने वाले दो और सदस्य होते हैं।
मानवाधिकारों के उल्लंघन की शिकायतें मिलने पर राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग स्वयं अपनी पहल पर या किसी पीड़ित व्यक्ति की याचिका पर जाँच कर सकता है। जेलों में बन्दियों की स्थिति का अध्ययन करने जा सकता है, मानवाधिकार के क्षेत्र में शोध कर सकता है या शोध को प्रोत्साहित कर सकता है। आयोग को प्रतिवर्ष हजारों शिकायतें प्राप्त होती हैं। इनमें से अधिकतर हिरासत में मृत्यु, हिरासत के दौरान बलात्कार, लोगों के गायब होने, पुलिस की ज्यादतियों, कार्यवाही न किए जाने, महिलाओं के प्रति दुर्व्यवहार आदि से सम्बन्धित होती हैं। मानवाधिकार आयोग का सर्वाधिक प्रभावी हस्तक्षेप पंजाब में युवकों के गायब होने तथा गुजरात-दंगों के मामले में जाँच के रूप में रहा। आयोग को स्वयं मुकदमा सुनने का अधिकार नहीं है। यह सरकार या न्यायालय को अपनी जाँच के आधार पर मुकदमे चलाने की सिफारिश कर सकता है।
प्रश्न 8.
उत्तर :
भारतीय लोकतन्त्र की सफलता नीति-निदेशक तत्त्वों के लागू करने में निहित है। भारत सरकार ने पिछले 57 वर्षों में निदेशक तत्त्वों को प्रभावी बनाने के लिए अनेक कानून व योजनाएँ लागू की हैं। आर्थिक विकास के लिए पंचवर्षीय योजनाओं को अपनाया गया ताकि निदेशक तत्त्वों में निहित उद्देश्यों को प्राप्त किया जा सके। गरीबी और आर्थिक असमानता को दूर करने के लिए 20-सूत्री कार्यक्रम लागू किया गया। ग्रामीण अंचलों में शिक्षा व स्वास्थ्य का प्रसार किया गया है। विश्व शान्ति व अन्तर्राष्ट्रीय सहयोग को बढ़ावा दिया गया है। इन समस्त नीतियों का उद्देश्य निदेशक तत्त्वों द्वारा घोषित लक्ष्य लोक-कल्याणकारी राज्य की प्राप्ति है।लेकिन इन नीतियों से किस सीमा तक नीति-निदेशक तत्त्व प्राप्त हो पाए हैं? यह तथ्य केवल एक ही ओर संकेत करता है कि अभी यथार्थ में नीति-निदेशक तत्त्वों को प्राप्त नहीं किया जा सका है। आर्थिक क्षेत्र में पंचवर्षीय योजनाओं को अपनाने के बावजूद भी भौतिक साधनों पर केन्द्रीकरण कम नहीं हुआ। है। अमीर अधिक अमीर हुआ है तथा गरीब और अधिक गरीब निःशुल्क शिक्षा, समान आचार संहिता के निदेशक तत्त्व मृग मरीचिका बन चुके हैं। मुफ्त कानूनी सहायता के निदेशक तत्त्व के बावजूद न्याय-प्रणाली बहुत महँगी है। कुटीर उद्योग-धन्धों को बड़े औद्योगिक कारखानों ने वैज्ञानिक प्रगति के नाम पर निगल लिया है। मद्यनिषेध को राजस्व-प्राप्ति हेतु बलि का बकरा बना दिया गया है।
राज्य के नीति-निदेशक सिद्धान्तों को न्याययोग्य या वादयोग्य क्यों नहीं पाया गया – प्रश्न यह उत्पन्न होता है कि जब राज्य-नीति के निदेशक सिद्धान्त भारतीय नागरिकों के जीवन के विकास तथा लोकतन्त्र की सफलता के लिए इतने महत्त्वपूर्ण हैं तो इन्हें भी मौलिक अधिकारों की तरह वादयोग्य क्यों नहीं बनाया गया? ऐसा होने पर कोई भी सरकार इन्हें अनदेखा नहीं कर सकती थी। परन्तु ऐसा करना सम्भव नहीं था क्योंकि इन्हें लागू करने में धन की बड़ी आवश्यकता थी और देश जब स्वतन्त्र हुआ तो आर्थिक दशा अच्छी नहीं थी। इसलिए यह बात सरकार पर ही छोड़ दी गई कि जैसे-जैसे सरकार के पास धन तथा दूसरे साधन उपलब्ध होते जाएँ, वह इन्हें थोड़ा-थोड़ा करके लागू करती जाए। मौलिक अधिकारों की तरह इन निदेशक सिद्धान्तों को पूर्ण रूप से उस समय लागू करना व्यावहारिक कदम नहीं था।
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