NCERT Solutions | Class 11 Rajniti Vigyan Chapter 9

NCERT Solutions | Class 11 Rajniti Vigyan राजनीतिक सिद्धान्त (Political Theory) Chapter 9 | Peace (शांति) 

NCERT Solutions for Class 11 Rajniti Vigyan राजनीतिक सिद्धान्त (Political Theory) Chapter 9 Peace (शांति)

CBSE Solutions | Rajniti Vigyan Class 11

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NCERT | Class 11 Rajniti Vigyan राजनीतिक सिद्धान्त (Political Theory)

NCERT Solutions Class 11 Rajniti Vigyan
Book: National Council of Educational Research and Training (NCERT)
Board: Central Board of Secondary Education (CBSE)
Class: 11
Subject: Rajniti Vigyan
Chapter: 9
Chapters Name: Peace (शांति)
Medium: Hindi

Peace (शांति) | Class 11 Rajniti Vigyan | NCERT Books Solutions

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NCERT Solutions For Class 11 Political Science Political theory Chapter 9 Peace

पाठ्य-पुस्तक के प्रश्नोत्तर

प्रश्न 1.

क्या आप जानते हैं कि एक शान्तिपूर्ण दुनिया की ओर बदलाव के लिए लोगों के सोचने के तरीके में बदलाव जरूरी है? क्या मस्तिष्क शान्ति को बढ़ावा दे सकता है? क्या मानव मस्तिष्क पर केन्द्रित रहना शान्ति स्थापना के लिए पर्याप्त है?

उत्तर :

संयुक्त राष्ट्र शैक्षणिक, वैज्ञानिक एवं सांस्कृतिक संगठन (यूनिसेफ) के संविधान ने उचित टिप्पणी की है कि चूंकि युद्ध का आरम्भ लोगों के दिमाग से होता है, इसलिए शान्ति के बचाव भी लोगों के दिमाग में ही रचे जाने चाहिए।’ इस कथन से स्पष्ट है कि शान्तिपूर्ण दुनिया के लिए लोगों के सोचने के तरीके में बदलाव जरूरी है। मस्तिष्क शान्ति को बढ़ावा दे सकता है। इस दिशा में करुणा जैसे अनेक पुरातन आध्यात्मिक सिद्धान्त और ध्यान बिल्कुल उपयुक्त हैं।

हिंसा का आरम्भ केवल किसी व्यक्ति के मस्तिष्क से नहीं होता, वरन् इसकी जड़े कुछ सामाजिक संरचनाओं में भी होती हैं। न्यायपूर्ण और लोकतान्त्रिक समाज की रचना सरंचनात्मक हिंसा को निर्मूल करने के लिए अनिवार्य है। शान्ति, जिसे सन्तुष्ट लोगों के समरस सह-अस्तित्व के रूप में समझा जाता है, ऐसे ही समाज की उपज हो सकती है। शान्ति एक बार में हमेशा के लिए प्राप्त नहीं की जा सकती है। शान्ति कोई अन्तिम स्थिति नहीं बल्कि ऐसी प्रक्रिया है, जिसमें व्यापकतम अर्थों में मानव-कल्याण की स्थापना के लिए आवश्यक नैतिक और भौतिक संसाधनों के सक्रिय क्रिया-कलाप सम्मिलित होते हैं। स्पष्ट है कि मानव मस्तिष्क पर केन्द्रित रहना शान्ति स्थापना के लिए पर्याप्त नहीं है।

प्रश्न 2.

राज्य को अपने नागरिकों के जीवन और अधिकारों की रक्षा अवश्य ही करनी चाहिए। हालाँकि कई बार राज्य के कार्य इसके कुछ नागरिकों के विरुद्ध हिंसा के स्रोत होते हैं। कुछ उदाहरणों की मदद से इस पर टिप्पणी कीजिए।

उत्तर :

राज्य को अपने नागरिकों के जीवन और अधिकारों की रक्षा अवश्य करनी चाहिए। इसके लिए राज्यों ने बल प्रयोग के अपने उपकरणों को मजबूत किया है। राज्य से अपेक्षा यह थी कि वह सेना या पुलिस का प्रयोग अपने नागरिकों की सुरक्षा के लिए करेगा लेकिन वास्तव में इन दोनों शक्तियों का प्रयोग अपने ही नागरिकों के विरोध के स्वर को दबाने के लिए किया गया है। इसके सबसे उत्कृष्ट उदाहरण म्यांमार, पाकिस्तान, बांग्लादेश हैं। यहाँ सेना ने नागरिक की आवाज को हमेशा दबाया है। म्यांमार व पाकिस्तान में तो सैनिक तानाशाही स्पष्ट दिखाई देती है।

समस्याओं का दीर्घकालिक समाधान सार्थक लोकतन्त्रीकरण और अधिक नागरिक स्वतन्त्रता की एक कारगर पद्धति में है। इसके माध्यम से राज्यसत्ता को अधिक जवाबदेह बनाया जा सकता है। रंगभेद की समाप्ति के पश्चात् दक्षिण अफ्रीका में यही पद्धति अपनाई गई, जो अद्यतन राजनीतिक सफलता का एक प्रमुख उदाहरण है।

प्रश्न 3.

शान्ति को सर्वोत्तम रूप में तभी पाया जा सकता है जब स्वतन्त्रता, समानता और न्याय कायम हो। क्या आप सहमत हैं?

उत्तर :

शान्ति को सर्वोत्तम रूप में तभी पाया जा सकता है जब स्वतन्त्रता, समानता और न्याय पूर्ण से राज्य में स्थापित हों। शान्ति एक स्थायी भाव है। शान्ति विकास के लिए भी आवश्यक है। यदि देश में नागरिकों को स्वतन्त्रता प्राप्त नहीं होगी तो वे कुण्ठित रहेंगे। यही कुण्ठा अशान्ति या हिंसा को जन्म देगी। इसी प्रकार समानता का भाव न होने से वैमनस्यता, ईष्र्या, द्वेष के भाव जन्मेंगे। यह भी अशान्ति के कारक हैं, इसलिए राष्ट्र में समानता भी आवश्यक है। न्याय एक ऐसी संस्था है जो शान्तिपूर्ण वातावरण स्थापित करने में अत्यन्त सहायक है।

प्रश्न 4.

हिंसा के माध्यम से दूरगामी न्यायोचित उद्देश्यों को नहीं पाया जा सकता। आप इस कथन के बारे में क्या सोचते हैं?

उत्तर :

अधिकांश लोग यह सोचते हैं कि हिंसा एक बुराई है लेकिन कभी-कभी यह शान्ति लाने के लिए अनिवार्य होती है। यह तर्क प्रस्तुत किया जा सकता है कि तानाशाहों और उत्पीड़कों को जबरन हटाकर ही उन्हें, जनता को निरन्तर नुकसान पहुँचाने से रोका जा सकता है। या फिर, उत्पीड़ित लोगों के मुक्ति संघर्षों को हिंसा के कुछ प्रयोग के बाद भी न्यायपूर्ण ठहराया जा सकता है। लेकिन अच्छे उद्देश्य से भी हिंसा का सहारा लेना आत्मघाती हो सकता है। एक बार प्रारम्भ हो जाने पर इसकी प्रवृत्ति नियन्त्रण से बाहर हो जाने की होती है और इसके कारण यह अपने पीछे मौत और बरबादी की एक श्रृंखला छोड़ जाती है।

शान्तिवादी को उद्देश्य लड़ाकुओं की क्षमता को कम करके आँकना नहीं है, वरन् प्रतिरोध के अहिंसक स्वरूप पर जोर देना है। संघर्ष का एक प्रमुख तरीका सविनय अवज्ञा है और उत्पीड़न की संरचना की नींव हिलाने में इसका अच्छा प्रयोग हो रहा है। भारतीय स्वतन्त्रता आन्दोलन के दौरान गांधी जी द्वारा सत्याग्रह का प्रयोग एक अच्छा उदाहरण है। गांधी जी ने न्याय को अपना आधार बनाया और विदेशी शासकों के अन्त:करण को आवाज दी। जब उससे काम न चला तो उन पर नैतिक और राजनैतिक दवाब बनाने के लिए उन्होंने जन-आन्दोलन आरम्भ किया, जिसमें अनुचित कानूनों को अहिंसक रूप में खुलेआम तोड़ना सम्मिलित है। उनसे प्रेरणा लेकर मार्टिन लूथर किंग ने अमेरिका में काले लोगों के साथ भेदभाव के विरुद्ध सन् 1960 में इसी प्रकार का संघर्ष प्रारम्भ किया था। उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट है कि हिंसा के माध्यम से दूरगामी न्यायोचित उद्देश्यों को नहीं पाया जा सकता।

प्रश्न 5.

विश्व में शान्ति स्थापना के जिन दृष्टिकोणों की अध्याय में चर्चा की गई है? उनके बीच क्या अन्तर है?

उत्तर :

शान्ति के क्रियाकलापों में सद्भावनापूर्ण सामाजिक सम्बन्ध के सृजन और सम्वर्द्धन के अविचल प्रयास सम्मिलित होते हैं, जो मानव कल्याण और खुशहाली के लिए प्रेरक होते हैं। शान्ति के मार्ग में अन्याय से लेकर उपनिवेशवाद तक अनेक अवरोध हैं, लेकिन उन्हें हटाने में बेलाग हिंसा के प्रयोग का लालच अनैतिक और अत्यधिक जोखिमपूर्ण दोनों हैं। नस्ल संहार, आतंकवाद और पूर्ण युद्ध के योग में, जो नागरिक और योद्धा के बीच की रेखा को धूमिल करता है, शान्ति की खोज को राजनीतिक कार्यवाहियों के समाधान और साध्ये, दोनों को ही रूपायित करना चाहिए।

परीक्षोपयोगी प्रश्नोत्तर

बहुविकल्पीय प्रश्न

प्रश्न 1.

फ्रेड्रिक नीत्शे किस देश का दार्शनिक था?
(क) जर्मनी
(ख) फ्रांस
(ग) जापान
(घ) भारत

उत्तर :

(क) जर्मनी।

प्रश्न 2.

विश्व की सर्वोच्च महाशक्ति कहलाता है-
(क) रूस
(ख) संयुक्त राज्य अमेरिका
(ग) फ्रांस
(घ) चीन

उत्तर :

(ख) संयुक्त राज्य अमेरिका।

प्रश्न 3.

भ्रूण हत्यारूपी हिंसा किनसे संबंधित है?
(क) महिलाओं से
(ख) पुरुषों से
(ग) विचारों से
(घ) उपर्युक्त कोई नहीं

उत्तर :

(क) महिलाओं से।

प्रश्न 4.

दक्षिण अफ्रीका में रंगभेद को लेकर हिंसा कब तक होती रही?
(क) 1997
(ख) 1996
(ग) 1992
(घ) 1998

उत्तर :

(ग) 1992.

प्रश्न 5.

भारत में अंहिसा का पुजारी किसे कहा जाता है?
(क) महात्मा गांधी को
(ख) जवाहरलाल नेहरू को
(ग) लाला लाजपतराय को
(घ) रवींद्रनाथ टैगोर को

उत्तर :

(ग) महात्मा गांधी को।

प्रश्न 6.

रवांडा कहाँ है?
(क) एशिया में
(ख) अफ्रीका में
(ग) ऑस्ट्रेलिया में
(घ) भारत में

उत्तर :

(ख) अफ्रीका में।

प्रश्न 7.

फिलिस्तीनी संघर्ष किसके विरुद्ध है?
(क) इजराइल के
(ख) ईरान के
(ग) इराक के
(घ) संयुक्त अरब अमीरात के

उत्तर :

(क) इजराइल के।

अतिलघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.

शांति के विषय में नकारात्मक विचार रखने वाले दो विचारकों के नाम लिखिए।

उत्तर :

  1. फेड्रिक नीत्शे,
  2. विल्फ्रेडो पैरेटो।

प्रश्न 2.

द्वितीय विश्वयुद्ध में अमेरिका द्वारा जापान के किन नगरों पर परमाणु बम गिराए गए थे?

उत्तर :

  1. हिरोशिमा,
  2. नागासाकी।

प्रश्न 3.

क्यूबाई मिसाइल संकट का समाधान कैसे हुआ?

उत्तर :

क्यूबाई मिसाइल संकट का समाधान सोवियत संघ द्वारा अपनी मिसाइलें क्यूबा से हटा लेने के बाद हुआ।

प्रश्न 4.

हिंसा या अशांति के कारण कौन-से हो सकते हैं?

उत्तर :

जातिभेद, वर्गभेद, पितृसत्ता, उपनिवेशवाद, नस्लवाद, साम्प्रदायिकता आदि अशांति के कारण हो सकते हैं।

प्रश्न 5.

टिकाऊ शांति किस प्रकार प्राप्त की जा सकती है?

उत्तर :

न्यायपूर्ण और टिकाऊ शांति अप्रकट शिकायतों और संघर्षों के कारणों को साफ-साफ व्यक्त करने और बातचीत द्वारा हल करने के माध्यम से ही प्राप्त की जा सकती है।

लघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.

नीत्शे और पैरेटो के शांति संबंधी विचार लिखिए।

उत्तर :

अतीत के अनेक महत्त्वपूर्ण विचारकों ने शांति के बारे में नकारात्मक ढंग से लिखा है। जर्मन दार्शनिक फेड्रिक नीत्शे युद्ध को महिमामण्डित करने वाले विचारक थे। नीत्शे ने शांति का महत्त्व नहीं दिया, क्योंकि उसको मानना था कि केवल संघर्ष ही सभ्यता की उन्नति का मार्ग प्रशस्त कर सकता है। इसी प्रकार अन्य अनेक विचारकों ने शांति को व्यर्थ बताया है और संघर्ष की प्रशंसा. व्यक्तिगत बहादुरी और सामाजिक जीवंतता के वाहक के रूप में की है। इटली के समाज सिद्धांतकार विल्फ्रेडो पैरेटो (1843-1923) का दावा था कि अधिकांश समाजों में शासक वर्ग का निर्माण सक्षम और अपने लक्ष्यों को पाने के लिए शक्ति का प्रयोग करने के लिए तैयार लोगों से होता है। उसने ऐसे लोगों का वर्णन शेर के रूप में किया है।

प्रश्न 2.

‘शिकायतें किस प्रकार अशांति को जन्म देती हैं?

उत्तर :

हिंसा का शिकार व्यक्ति जिन मनोवैज्ञानिक और भौतिक हानियों से गुजरता है वे उसके भीतर शिकायतें उत्पन्न करती हैं। ये शिकायतें पीढ़ियों तक बनी रहती हैं। ऐसे समूह कभी-कभी किसी घटना अथवा टिप्पणी से उत्तेजित होकर संघर्ष (हिंसा) शुरू कर देते हैं। दक्षिण एशिया में विभिन्न समुदायों द्वारा एक-दूसरे के विरुद्ध मन में रखी पुरानी शिकायतों के उदाहरण हमारे सामने हैं, जैसे सन् 1947 में भारत के विभाजन के दौरान भड़की हिंसा से पैदा हुई शिकायते।

न्यायपूर्ण और टिकाऊ शांति अप्रकट शिकायतें और संघर्ष के कारणों को साफ-साफ व्यक्त करने और बातचीत द्वारा हल करने के माध्यम से ही प्राप्त की जा सकती हैं। इसलिए भारत और पाकिस्तान के बीच समस्याओं का हल करने के वर्तमान प्रयासों में प्रत्येक वर्ग के लोगों के बीच अधिक सम्पर्क को प्रोत्साहित करना भी शामिल है।

प्रश्न 3.

मार्टिन लूथर किंग के नागरिक अधिकार के क्षेत्र में योगदान की संक्षिप्त विवेचना कीजिए।

उत्तर :

  1. मार्टिन लूथर किंग ने अमेरिका में रंगभेद तथा जाति-विभेद की नीति के विरुद्ध अहिंसात्मक आंदोलन प्रारम्भ किया। उसके प्रयत्नों के परिणामस्वरूप बसों तथा भोजनालयों में काले लोगों के साथ किए जाने वाले भेदभाव को समाप्त किया गया।
  2. उन्होंने काले लोगों के लिए सिविल अधिकार प्राप्त करने की दिशा में सराहनीय कार्य किया। उनके प्रयासों से सिविल अधिकारों को कानूनी अधिकार मान लिया गया तथा काले लोगों को मताधिकार प्राप्त हो गया। इसके लिए लूथर किंग को अपने जीवन का बलिदान देना पड़ा।

दीर्घ लघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.

‘शान्तिवाद के विषय में आप क्या जानते हैं? संक्षेप में लिखिए।

उत्तर :

‘शान्तिवाद’ विवादों को सुलझाने के हथियार के रूप में युद्ध अथवा हिंसा के बजाय शान्ति का उपदेश देता है। इसमें विचारों की अनेक छवियाँ सम्मिलित हैं। इसके क्षेत्र में कूटनीति को अन्तर्राष्ट्रीय विवादों का समाधान करने में प्राथमिकता देने से लेकर किसी भी हालत में हिंसा और शक्ति के प्रयोग के पूर्ण निषेध तक आते हैं। शान्तिवाद सिद्धान्तों पर भी आधारित हो सकती है और व्यावहारिकता पर भी।

सैद्धान्तिक शान्तिवाद का जन्म इस विश्वास से होता है कि युद्ध सुविचारित घातक हथियार, हिंसा या किसी प्रकार की जोर-जबरदस्ती नैतिक रूप से गलत है। व्यावहारिक शान्तिवाद ऐसे किसी चरम सिद्धान्त का अनुसरण नहीं करता है। व्यावहारिक शान्तिवाद मानता है कि विवादों के समाधान में युद्ध से बेहतर तरीके भी हैं या फिर यह समझता है कि युद्ध पर लागत अधिक आती है, लाभ कम होते हैं। युद्ध से बचने के पक्षधर लोगों के लिए ‘श्वेत कपोत’ जैसे अनौपचारिक शब्दों का प्रयोग होता है। शब्द सुलह-समझौते के पक्षधरों की सौम्य प्रकृति की ओर इशारा करते हैं। कुछ लोग सुलह-समझौते के पक्षधरों को शान्तिवादी के वर्ग में नहीं रखते, क्योंकि वे कतिपय परिस्थितियों में युद्ध को औचित्यपूर्ण मान सकते हैं।

‘बाज’ या युद्ध-पिपासु लोग कपोत प्रकृति के विपरीत होते हैं। युद्ध का विरोध करने वाले कुछ शान्तिवादी सभी प्रकार की जोर-जबरदस्ती जैसे शारीरिक बल प्रयोग या सम्पत्ति की बरबादी के विरोधी नहीं होते। उदाहरणस्वरूप, असैन्यवादी साधारणतया हिंसा के बजाय आधुनिक राष्ट्र-राज्यों की सैनिक संस्थाओं के विशेष रूप से विरोधी होते हैं। अन्य शान्तिवादी अंहिसा के सिद्धान्तों का अनुसरण करते हैं, क्योंकि वे केवल अहिंसक कार्यवाही के स्वीकार्य होने का विश्वास करते हैं।

प्रश्न 2.

शान्ति स्थापित करने में समकालीन चुनौतियाँ कौन-सी हैं? संक्षेप में लिखिए।

उत्तर :

वर्तमान विश्व में शक्तिशाली राष्ट्रों ने अपनी सम्प्रभुता का प्रभावपूर्ण प्रदर्शन किया है और क्षेत्रीय सत्ता संरचना तथा अन्तर्राष्ट्रीय व्यवस्था को भी अपनी प्राथमिकताओं और धारणाओं के आधार पर बदलना चाहा है। इसके लिए उन्होंने सीधी सैन्य कार्यवाही को भी सहारा लिया है और विदेशी क्षेत्रों पर कब्जा कर लिया है। इस प्रकार के आचरण का प्रत्यक्ष उदाहरण अफगानिस्तान और इराक में अमेरिका ताजा हस्तक्षेप है। इस प्रक्रिया से उपजे युद्ध में बहुत लोगों की जानें गईं।

आतंकवाद के उदय का एक कारण आक्रामक राष्ट्रों का स्वार्थपूर्ण आचरण भी रहा है। प्रायः आधुनिक हथियारों और उन्नत तकनीक का दक्ष और निर्मम प्रयोग करके आतंकवादी इन दिनों शान्ति के लिए बड़ा खतरा बनते जा रहे हैं। 11 सितम्बर, 2001 को आतंकवादियों द्वारा अमेरिका के न्यूयार्क स्थित विश्व व्यापार केन्द्र को ध्वस्त किया जाना इस अमंगलकारी वास्तविकता की उल्लेखनीय अभिव्यक्ति है। इन ताकतों द्वारा अति विध्वंसक जैविक, रासायनिक अथवा परमाण्विक हथियारों के प्रयोग की आशंका दहला देने वाली है।

वैश्विक समुदाय धौंस जमाने वाली ताकतों की लोलुपता और आतंकवादियों की गुरिल्ला युक्तियों को रोकने में असफल है। वह नस्ल संहार का मूक दर्शन बना रहता है। यह स्थिति रवांडा में दिखाई देती है। इस अफ्रीकी देश में सन् 1994 में लगभग 5 लाख तुत्सी लोगों को हुतू लोगों ने मार डाला। हत्याकाण्ड के आरम्भ होने के पूर्व गुप्त सूचना प्राप्त होने और इसके भड़कने पर अन्तर्राष्ट्रीय मीडिया में घटना का विवरण आने के बावजूद कोई अन्तर्राष्ट्रीय हस्तक्षेप नहीं हुआ। संयुक्त राष्ट्र ने रवांडा के खून-खराबे को रोकने के लिए शान्ति अभियान चलाने से मना कर दिया।

इसका आशय यह नहीं कि शान्ति एक चुका हुआ सिद्धान्त है। दूसरे विश्वयुद्ध के पश्चात् जापान और कोस्यरिका जैसे देशों ने सैन्यबल नहीं रखने का निर्णय लिया। विश्व के अनेक भागों में परमाण्विक हथियार से मुक्त क्षेत्र बने हैं, जहाँ आण्विक हथियारों को विकसित और तैनात करने पर एक अन्तर्राष्ट्रीय मान्यता प्राप्त समझौते के अन्तर्गत पाबन्दी लगी है। आज इस तरह के छह क्षेत्र हैं जिसमें ऐसा हुआ है या इसकी प्रक्रिया चल रही है। इसका विस्तार दक्षिण ध्रुवीय क्षेत्र, लैटिन अमेरिका और कैरेबियन क्षेत्र, दक्षिण-पूर्वी एशिया, अफ्रीका, दक्षिण प्रशान्त क्षेत्र और मंगोलिया तक है। तत्कालीन सोवियत संघ के सन् 1991 में विघटन से अति शक्तिशाली देशों के बीच सैनिक प्रतिद्वन्द्विता (विशेषकर परमाण्विक प्रतिद्वन्द्विता) पर पूर्णविराम लग गया और अन्तर्राष्ट्रीय शान्ति के लिए प्रमुख खतरा समाप्त हो गया।

दीर्घ उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.

संरचनात्मक हिंसा के विविध रूप कौन-से हैं? संक्षेप में लिखिए।

उत्तर :

संरचनात्मक हिंसा के विविध रूप निम्नलिखित हैं-

1. अस्पृश्यता- परम्परागत जाति व्यवस्था कुछ विशिष्ट समूह के लोगों को अस्पृश्य मानकर व्यवहार करती थी। स्वतन्त्र भारत के संविधान द्वारा गैर-कानूनी घोषित किए जाने तक अस्पृश्यता के प्रचलन ने उन्हें सामाजिक बहिष्कार और अत्यधिक वंचना का शिकार बना रखा था। भयावह रीति-रिवाजों के इन घावों को देश अभी तक सह रहा है। हालाँकि वर्ग आधारित समाज व्यवस्था अधिक लचीली दिखती है, लेकिन इसने भी काफी असमानती और उत्पीड़न को जन्म दिया है। विकासशील देशों की अधिकांश कार्यशील जनसंख्या असंगठित क्षेत्र से सम्बद्ध है, जिसमें पारिश्रमिक और काम की दशा बहुत खराब है।

2. स्त्री हिंसा- समाज में पितृसत्ता के आधार पर जिन सामाजिक संगठनों का निर्माण होता है, उनकी परिणति महिलाओं को व्यवस्थित रूप से अधीन बनाने और उनके साथ भेदभाव करने में होती है। इसकी अभिव्यक्ति कन्या भ्रूण हत्या, लड़कियों को पर्याप्त पोषण और शिक्षा न देना, बाल-विवाह, पत्नी को पीटना, दहेज से जुड़े अपराध, कार्यस्थल पर यौन उत्पीड़न, बलात्कार, हत्या के रूप में होती है। भारत में निम्न लिंगानुपात (प्रति 1000 पुरुषों पर 933 स्त्रियाँ) पितृसत्ता विध्वंस का मर्मस्पर्शी सूचक है।

3. गुलामी का जीवन- उपनिवेशवादी विदेशी शासन के फलस्वरूप लोगों पर प्रत्यक्ष और दीर्घकाल के लिए गुलामी थोप दी गई थी। अब ऐसा होना लगभग असम्भव है। पर इजरायली प्रभुत्व के विरुद्ध जारी फिलिस्तीनी संघर्ष दिखाता है कि इसका अस्तित्व पूरी तरह समाप्त नहीं हुआ है। इसके अतिरिक्त, यूरोपीय उपनिवेशवादी देशों के पूर्ववर्ती उपनिवेशों को अभी भी बहुआयामी शोषण के उन प्रभावों से पूरी तरह उभरना शेष है, जिसे उन्होंने औपनिवेशिक काल में झेला।

4. रंगभेद और साम्प्रदायिकता- रंगभेद और साम्प्रदायिकता में एक सम्पूर्ण नस्लगत समूह अथवा समुदाय पर लांछन लगाना और उनका दमन करना सम्मिलित रहता है। हालाँकि मानवता को विभिन्न नस्लों के आधार पर विभाजित कर सकने की अवधारणा वैज्ञानिक रूप से अप्रमाणिक है लेकिन अनेक बार इसका उपयोग मानव विरोधी कुकृत्यों को उचित ठहराने में किया ही जाता है। सन् 1865 तक अमेरिका में अश्वेत लोगों को गुलाम बनाने की प्रथा; हिटलर के समय जर्मनी में यहूदियों का कत्लेआम तथा दक्षिण अफ्रीका की गोरी सरकार की सन् 1992 तक अपनी बहुसंख्यक अश्वेत आबादी के साथ निम्न दर्जे के नागरिकों जैसा व्यवहार करने वाली रंगभेद की नीति इसके सर्वोत्तम उदाहरण हैं। पश्चिमी देशों में नस्ली भेदभाव गोपनीय रूप से अभी भी जारी है। अब इसका प्रयोग प्राय: एशिया, अफ्रीका और लैटिन अमेरिका के विभिन्न देशों के आप्रवासियों के विरुद्ध होता है। साम्प्रदायिकता को नस्लवाद को दक्षिण एशियाई प्रतिरूप स्वीकारा जा सकता है। जहाँ शिकार अल्पसंख्यक धार्मिक समूह हुआ करते हैं।

हिंसा का शिकार व्यक्ति जिन मनोवैज्ञानिक और भौतिक हानियों से गुजरता है ये हानियाँ उसके भीतर शिकायतें उत्पन्न करती हैं। ये शिकायतें पीढ़ियों तक बनी रहती हैं। ऐसे समूह कभी-कभी किसी घटना या टिप्पणी से भी उत्तेजित होकर संघर्षों के ताजा दौर की शुरूआत कर सकते हैं। दक्षिण एशिया में विभिन्न समुदायों द्वारा एक-दूसरे के विरुद्ध लम्बे समय से मन में रखी पुरानी शिकायतों के उदाहरण हमारे सामने हैं; जैसे-सन् 1947 में भारत के विभाजन के दौरान भड़की हिंसा से उपजी शिकायतें आज भी लोगों में टीस पैदा करती हैं।

न्यायपूर्ण और टिकाऊ शान्ति अप्रकट शिकायतें और संघर्ष के कारणों को साफ-साफ प्रकट करने और बातचीत द्वारा हल करने के माध्यम से ही प्राप्त की जा सकती हैं। इसीलिए भारत और पाकिस्तान के बीच की समस्याओं का हल करने के वर्तमान प्रयासों में प्रत्येक वर्ग के लोगों
के बीच अधिक सम्पर्क को प्रोत्साहित करना भी सम्मिलित है।

प्रश्न 2.

शान्ति स्थापित करने के विभिन्न तरीकों की विवेचना कीजिए।

उत्तर :

शान्ति स्थापित करने और बनाए रखने के लिए विभिन्न रणनीतियाँ अपनाई गई हैं। इन रणनीतियों को आकार देने के लिए तीन तरीकों ने सहायता दी है जो निम्नलिखित हैं-

1. प्रथम तरीका राष्ट्रों को केन्द्रीय स्थान प्रदान करता है, उनकी सम्प्रभुता का सम्मान करता है। उनके बीच प्रतिद्वन्द्विता को जीवन्त सत्य मानता है। उसकी प्रमुख प्रतिद्वन्द्विता के उपयुक्त प्रबन्धन तथा संघर्ष की आशंका का शमन सत्ता-सन्तुलन की पारस्परिक व्यवस्था के माध्यम से करने की होती है। कहा जाता है कि वैसा एक सन्तुलन 19वीं सदी में प्रचलित था, जब प्रमुख यूरोपीय देशों ने सम्भावित आक्रमण को रोकने और बड़े पैमाने पर युद्ध से बचने के लिए अपने सत्ता संघर्षों में गठबन्धन बनाते हुए तालमेल किया।

2. दूसरा तरीका भी राष्ट्रों की गहराई तक जमी आपसी प्रतिद्वन्द्विता की प्रकृति को स्वीकार करता है, लेकिन इसका जोर सकारात्मक उपस्थिति और परस्पर निर्भरता की सम्भावनाओं पर है। यह विभिन्न देशों के बीच विकासमान सामाजिक आर्थिक सहयोग को रेखांकित करता है। अपेक्षा रहती है कि वैसे सहयोग राष्ट्र की सम्प्रभुता को नरम करेंगे और अन्तर्राष्ट्रीय समझदारी को प्रोत्साहित करेंगे। परिणामस्वरूप वैश्विक संघर्ष कम होंगे, जिससे शान्ति की अच्छी सम्भावनाएँ। बनेंगी। इस पद्धति के पक्षकारों द्वारा अक्सर दिया जाने वाला एक उदाहरण द्वितीय विश्वयुद्ध के पश्चात् के यूरोप का है, जो आर्थिक एकीकरण से राजनीतिक एकीकरण की ओर बढ़ता गया है।

3. तीसरी पद्धति राष्ट्र आधारित व्यवस्था को मानव इतिहास की समाप्तप्राय अवस्था स्वीकारती है। यह अधिराष्ट्रीय व्यवस्था को मनोचित्र बनाती है और वैश्विक समुदाय के अभ्युदय को शान्ति की विश्वसनीय गारण्टी मानती है। वैसे समुदाय के बीज राष्ट्रों की सीमाओं के आर-पार बढ़ती आपसी अन्त:क्रियाओं और संश्रयों में दिखते हैं जिसमें बहुराष्ट्रीय निगम और जनान्दोलन जैसे विविध गैर-सरकारी कर्ता सम्मिलित हैं। इस तरीके के प्रस्तावक और समर्थक तर्क देते हैं कि वैश्वीकरण की चल रही प्रक्रिया राष्ट्रों को पहले से ही घट गई प्रधानता और सम्प्रभुता को और अधिक क्षीण कर रही है, जिसके फलस्वरूप विश्व-शान्ति स्थापित होने की परिस्थितियाँ बन रही हैं।

यह कहा जा सकता है कि संयुक्त राष्ट्र तीनों की पद्धतियों के प्रमुख तत्त्वों को साकार कर सकता है। सुरक्षा परिषद्, जो स्थायी सदस्यता और पाँच प्रमुख राष्ट्रों को निषेधाधिकार (अन्य सदस्यों द्वारा समर्थित प्रस्ताव को भी गिरा देने का अधिकार) देता है, प्रचलित अन्तर्राष्ट्रीय श्रेणीबद्धता को ही व्यक्त करता है। आर्थिक-सामाजिक परिषद् अनेक क्षेत्रों में राष्ट्रों के बीच सहयोग को प्रोत्साहित करता है। मानवाधिकार आयोग अन्तर्राष्ट्रीय मानदण्डों को आकार देना
और लागू करना चाहता है।

प्रश्न 3.

अन्तर्राष्ट्रीय शान्ति तथा सुरक्षा बनाए रखने के लिए शान्तिपूर्ण समाधान की प्रक्रियाओं की संक्षेप में विवेचना कीजिए।
या
“संयुक्त राष्ट्र संघ का मूल उद्देश्य चार्टर के अनुसार अन्तर्राष्ट्रीय शान्ति तथा सुरक्षा को बनाए रखना है।” विवेचना कीजिए।

उत्तर :

संयुक्त राष्ट्र संघ की स्थापना इस दृष्टि से की गई थी कि वह विश्व में शान्ति तथा सुरक्षा को बनाए रखेगा। चार्टर के अन्तर्गत यह दायित्व सुरक्षा परिषद् को सौंपा गया और विशेष परिस्थिति में महासभा भी इस कार्य में अपना योगदान दे सकती है। संयुक्त राष्ट्र संघ के सदस्य चार्टर के अनुच्छेद 2 के अनुसार इस बात के लिए वचनबद्ध हैं कि वे वर्तमान चार्टर के अनुसार सुरक्षा परिषद् के सभी निर्णयों को स्वीकार करेंगे तथा उनका पालन करेंगे। चार्टर के अध्याय 6 तथा 7 में उन प्रक्रियाओं का उल्लेख किया गया है, जिसके द्वारा अन्तर्राष्ट्रीय विवादों के समाधान के प्रयास किए जाएँगे। चार्टर की वर्तमान व्यवस्था के अनुसार अन्तर्राष्ट्रीय विवादों के समाधान तथा अन्तर्राष्ट्रीय शान्ति और सुरक्षा स्थापित करने के लिए कुछ विशिष्ट प्रक्रियाएँ प्रयोग में लाई जाती हैं।

शान्तिपूर्ण समाधान की प्रक्रियाएँ

संयुक्त राष्ट्र संघ के चार्टर में अनुच्छेद 33 से 38 तक अन्तर्राष्ट्रीय विवादों के शान्तिपूर्ण समाधान की प्रक्रियाओं का उल्लेख किया गया है। विवादों के शान्तिपूर्ण समाधान के लिए अनुच्छेद 33 में जो उपाय बताए गए हैं, वे सभी यह स्पष्ट करते हैं कि अन्तर्राष्ट्रीय जगत में सभी विवादों की प्रकृति समान नहीं । हो सकती और न ही किसी एक उपाय द्वारा सभी विवादों का समाधान सम्भव है। पिछले वर्षों में संयुक्त राष्ट्र संघ के समक्ष प्रस्तुत विवादों के तीन रूप रहे हैं-
1. तथ्यमूलक विवाद- इन विवादों में एक पक्ष दूसरे पक्ष पर अनुचित कार्यवाही करने का दोष लगाते हैं। उदाहरणार्थ-1960 में रूस द्वारा अमेरिका के R.B.-47 विमान को मार गिराना तथ्यमूलक विवाद था।
2. कानून सम्बन्धी विवाद- इन विवादों में वैधानिक अधिकारों तथा कर्तव्यों के प्रश्न निहित होते हैं। आयरलैण्ड तथा ब्रिटेन का विवाद कानून संबंधी विवाद था।
3. नीति संबंधी विवाद- इस प्रकार के विवाद वे होते हैं जिनमें विवादी पक्षों की नीतियों से संघर्ष की स्थिति उत्पन्न हो जाती है। बर्लिन की स्थिति संबंधी समस्या नीति संबंधी विवाद था जिसमें तत्कालीन सोवियत संघ तथा मित्र राष्ट्रों की नीतियों में टकराहट थी।

अंतर्राष्ट्रीय संबंधों तथा संयुक्त राष्ट्र के विवादों के शांतिपूर्ण समाधान की दिशा में निम्नलिखित उपाय किए जाते हैं-

1. वार्ता- वार्ता का साधन कूटनीतिक माना जाता है। विवादी पक्षों के बीच वार्ता या तो शीर्ष स्तर | पर सीधे राज्याध्यक्षों के बीच होती है या उनके द्वारा नियुक्त अभिकर्ताओं द्वारा। यह वार्ता सुविधानुसार सम्पन्न होती है।

2. जाँच- अनुच्छेद 34 तथा 36 के अंतर्गत यह व्यवस्था है कि सुरक्षा परिषद् किसी ऐसे विवाद या स्थिति की जाँच-पड़ताल कर सकती है जो अंतर्राष्ट्रीय संघर्ष का रूप धारण कर सकता हो या जिससे दूसरा गंभीर विवाद उठ खड़ा होने की आशंका हो।

3. सौमनस्य या संराधन- विवादों के समाधान का एक प्रभावशाली साधन सौमनस्य है। इसमें विभिन्न उपायों का प्रयोग किया जाता है। इन उपायों को तीसरा पक्ष दो या दो से अधिक राज्यों के विवादों को शांतिपूर्ण ढंग से निर्णीत करने के लिए अपनाते हैं। इस दृष्टि से संराधन की प्रक्रिया में तथ्यों की जाँच, मध्यस्थता तथा वाद-विवाद के लिए प्रस्ताव का प्रेक्षण किया जाता है।

4. वाद-विवाद- सुरक्षा परिषद् या महासभा किसी भी प्रकार की सिफारिश करने से पहले विवादी पक्षों को लिखित या मौखिक रूप से अपने दावे प्रस्तुत करने के लिए भी आमंत्रित करती है। वहाँ वे अपनी शिकायतों को निष्पक्ष रूप में रखते हैं और द्विपक्षीय कूटनीति के माध्यम से ऐसी स्थिति में पहुँच सकते हैं जहाँ विवाद के समाधान के लिए कोई समझौता हो सके।

5. सत्सेवा तथा मध्यस्थता- जब कभी कोई विवाद वार्ता या अन्य किसी तरीके से सुलझाए नहीं जा सकते, तब तीसरा मित्र राज्य अपनी सत्सेवा या मध्यस्थता द्वारा मतभेदों को मैत्रीपूर्ण ढंग से दूर करने में सहायता कर सकता है। यह दशा उस समय उत्पन्न होती है जब विवाद में उलझे पक्ष स्वार्थान्ध भाव का परिचय देते हैं। तीसरा राज्य अपने प्रभाव द्वारा सत्सेवा के इस कार्य का सम्पादन करता है तथा दोनों पक्षों के बीच शांतिपूर्ण समझौता करा देता है।

6. न्यायिक समाधान- विवादों को न्यायिक समाधान अंतर्राष्ट्रीय न्यायालय के माध्यम से होता है। अंतर्राष्ट्रीय न्यायालय के निर्णयों की मान्यता के बारे में संयुक्त राष्ट्र संघ के चार्टर में अनुच्छेद 94 में यह स्पष्ट व्यवस्था दी गई है कि “संघ का प्रत्येक सदस्य प्रतिज्ञा करता है कि वह किसी मामले में विवादी होने पर अंतर्राष्ट्रीय न्यायालय के निर्णय को मानेगा।” संयुक्त राष्ट्र संघ के सभी सदस्य अपने आप ही अंतर्राष्ट्रीय न्यायालय की संविधि के सदस्य बन जाते हैं। इसके लिए प्रत्येक मामले में महासभा सुरक्षा परिषद् की संस्तुति पर आवश्यक शर्तों का , निधारण करती है। यद्यपि न्यायालय का आवश्यक तथा सार्वभौम क्षेत्राधिकारी नहीं है तथापि इसके निर्णय उन पक्षों पर बाध्यकारी होते हैं जो इसके न्यायाधिकरण को स्वेच्छा से स्वीकार करते हैं।

7. पंच निर्णय- साधारण रूप से वार्ता, सौमनस्य, मध्यस्थता, जाँच आदि उपाय निर्णयेत्तर कहलाते हैं, क्योंकि विवादी पक्ष इस बात के लिए बाध्य नहीं होते कि इन उपायों द्वारा दिए गए। सुझावों या निर्णयों को स्वीकार करें। इन्हें प्रभावशाली बनाने के लिए कुछ अन्य उपाय भी किए जाते हैं जिनके निर्णयों को दोनों पक्षों द्वारा मानना आवश्यक होता है। ये निर्णयात्मक उपाय पंच निर्णय तथा न्यायिक निर्णय कहलाते हैं।

8. मध्यस्थ या प्रतिनिधि- कुछ विवाद ऐसे होते हैं जिनके समाधान में सुरक्षा परिषद् महासभा या आयोग की अपेक्षा एक अकेला व्यक्ति, मध्यस्थ या प्रतिनिधि के रूप में अधिक उपयोगी सिद्ध होता है। सुरक्षा परिषद्, महासभा के सभापतियों तथा महासचिव ने इस दृष्टि से अनेक अवसरों पर प्रभावशाली भूमिका निभाई है। किसी तटस्थ स्थान पर अथवा विपक्षी दलों की राजधानियों में या विवाद-स्थल पर संयुक्त राष्ट्रीय मध्यस्थ या प्रतिनिधि ने विवाद के समाधान या मतभेदों को समाप्त करने की दिशा में अपनी महती उपयोगिता सिद्ध की है।

9. अवरोधक कूटनीति- अवरोधक कूटनीति का उपाय शांतिपूर्ण समाधान का रूपक है जिसका उद्देश्य विवाद में तनाव को कम करना तथा स्थिति को बिगड़ने से बचाने का होता है। वर्तमान में महासभा में निर्गुट राष्ट्र शांति स्थापित करने में जो नई भूमिका निभा रहे हैं तथा शीतयुद्ध के क्षेत्र को सीमित करते जा रहे हैं, वे अवरोधक कूटनीति की ही विशेषताएँ हैं। इस प्रकार अपने सीमित साधनों तथा परिस्थितियों के अंतर्गत तथा राष्ट्रों के प्रभुसत्ता सिद्धान्त को ध्यान में रखते हुए संयुक्त राष्ट्र संघ ने विवादों के शांतिपूर्ण समाधान के लिए अनेक उल्लेखनीय प्रयास किए हैं जिनमें से बहुतों में उसको सफलता प्राप्त हुई तथा महाशक्तियों के अवरोध:के कारण अनेक बार उसे विफल भी होना पड़ा है।

प्रश्न 4.

अंतर्राष्ट्रीय शांति तथा सुरक्षा बनाए रखने के लिए संयुक्त राष्ट्र संघ द्वारा की जाने वाली बाध्यकारी कार्यवाही की संक्षिप्त विवेचना कीजिए।

उत्तर :

बाध्यकारी कार्यवाही
संयुक्त राष्ट्र संघ के चार्टर के अध्याय 7 में यह व्यवस्था की गई है कि यदि विश्व-शांति तथा सुरक्षा के लिए संकट उत्पन्न हो या शांति भंग से अथवा विश्व के किसी भी क्षेत्र में सशस्त्र आक्रमण होने की स्थिति उत्पन्न हो या हो गई हो तो संयुक्त राष्ट्र संघ शांति स्थापनार्थ बल प्रयोग कर सकता है। वह प्रतिरोधात्मक उपायों का आश्रय भी ले सकता है। यह बल प्रयोग संघ दो प्रकार से करता है-

  1. जिसमें सशस्त्र सेना के प्रयोग की आवश्यकता नहीं होती एवं
  2. जिसमें सशस्त्र सैन्य बल का प्रयोग आवश्यक हो जाता है।

अनुच्छेद 39 के अनुसार सुरक्षा परिषद् ही यह निर्णय करती है कि किन कार्यों द्वारा शांति भंग की दशा में आक्रमण की संक्रिया की जा सकती है। इस अनुच्छेद के अनुसार परिषद् सिफारिश तथा निर्णय दोनों प्रकार के कार्य करती है। अनुच्छेद 40 में यह व्यवस्था है कि किसी स्थिति को बिगड़ने से बचाने के लिए सुरक्षा परिषद् अपनी सिफारिशें करने अथवा किसी कार्यवाही का निश्चय करने से पूर्व विवादी पक्षों से ऐसे अस्थायी कदम उठाने की माँग करेगी, जिन्हें वह आवश्यक समझती हो। इन अस्थायी कार्यों से विवादी पक्ष के अधिकारों, दावों या उनकी हैसियत को किसी प्रकार की हानि नहीं होगी। यदि कोई पक्ष इस प्रकार के अस्थायी कदम नहीं उठाता है तो सुरक्षा परिषद् इसकी ओर भी ध्यान रखेगी।

बल प्रयोग के दोनों उपाय सुरक्षा परिषद् के निर्णय के अनुसार संयुक्त राष्ट्र संघ के सभी सदस्यों को मानने पड़ते हैं। इसका संचालन भी सुरक्षा परिषद् ही करती है। चार्टर में कहीं ‘आक्रमण’, ‘शांति भंग’, ‘शांति का संकट’, ‘घरेलू मामला’ आदि वाक्यों को स्पष्ट नहीं किया गया है। यदि एक राष्ट्र की दृष्टि । में कोई आक्रमण होता है तो दूसरे राष्ट्र की दृष्टि में वही ‘घरेलू मामला हो सकता है। इस प्रकार के सभी मामलों के निर्णय के लिए परिषद् के 5 स्थायी सदस्यों के मतों सहित कुल 9 सदस्यों के स्वीकारात्मक मत आवश्यक होते हैं। परन्तु राजनीतिक गुटबन्दी के कारण इस प्रकार का निर्णय लेना कठिन कार्य हो जाता है। यही कारण है कि सुरक्षा परिषद् ऐसे मामलों में तत्क्षण कोई निर्णय नहीं ले पाती है।

एक बार यह निश्चित हो जाने पर कि किसी देश के लिए युद्ध जैसी परिस्थितियाँ या किसी देश पर हुआ आक्रमण विश्व शांति के लिए संकट है तो इस स्थिति में सुरक्षा परिषद् तुरंत कार्यवाही कर सकती है। इस प्रकार की कार्यवाही में सैनिक तथा असैनिक दोनों प्रकार की अनुशास्तियाँ निहित हैं। और संघ के सभी सदस्य परिषद् के निर्णय पर अमल करने के लिए, संघ के विधानानुसार बाध्य हैं। जब विवाद में,सशस्त्र संघर्ष उत्पन्न हो जाता है तो संयुक्त राष्ट्र संघ जैसे अंतर्राष्ट्रीय संगठन के सामने गंभीर चुनौती उत्पन्न हो जाती है। सिद्धांततः चार्टर के अनुच्छेद 7 के अनुसार विवादी पक्षों पर अनुशास्तियाँ स्थापित करने की व्यवस्था है, तथापि संयुक्त राष्ट्र संघ सामान्यतया दमनकारी या प्रतिरोध के उपायों से दूर रहने का प्रयत्न करता है तथा कूटनीतिक, राजनीतिक या वैधानिक उपायों से समस्या को सुलझाने का प्रयास करता है। सशस्त्र संघर्ष को विराम देने के लिए वैसे तो चार्टर में स्पष्टतः युद्ध विराम आदेश के विषय में कुछ नहीं कहा गया है, तथापि अनुच्छेद 40 के बारे में विस्तार से लिखा गया है।

अनेक मामलों में विवादी पक्ष युद्ध विराम के लिए तैयार हो जाते हैं। परन्तु इस बात की भी प्रबल सम्भावना रहती है कि विवादी राष्ट्रों द्वारा सुरक्षा के आदेशों या सिफारिशों को ठुकरा दिया जाए। इण्डोनेशिया और डचों, यहूदियों और अरबों, साइप्रस के यूनानियों तथा तुर्को और दो अवसरों पर भारतीयों तथा पाकिस्तानियों के बीच युद्ध रोकने में सुरक्षा परिषद् की युद्ध विराम की आज्ञाएँ प्रभावी मानी गईं।

अनुच्छेद 41 के अंतर्गत यह व्यवस्था है कि सुरक्षा परिषद् अपने निर्णयों पर अमल करने के लिए कोई भी कार्यवाही कर सकती है, जिसमें सशस्त्र सेना का प्रयोग न हो। यह संघ-सदस्यों में इस प्रकार की कार्यवाही करने की माँग कर सकती है। इन कार्यवाहियों के अनुसार आर्थिक संबंध पूर्णरूपेण या आंशिक रूप से समाप्त किए जा सकते हैं। समुद्र, वायु, डाक-तार, रेडियो और यातायात के अन्य साधनों पर प्रतिबंध लगाया जा सकता है और कूटनीतिक संबंधों को समाप्त किया जा सकता है।

अनुच्छेद 42 में चर्चा की गई है कि शांति तथा सुरक्षा के लिए की जाने वाली कार्यवाहियाँ यदि अपर्याप्त सिद्ध हो गई हों तो जल, थल और वायु सेनाओं द्वारा आवश्यक कार्यवाही की जा सकती है। इस कार्यवाही में विरोध प्रदर्शन माकेबन्दी तथा संघ के सदस्य राष्ट्रों की जल, थल तथा वायु सेनाओं द्वारा की जाने वाली कोई भी कार्यवाही सम्मिलित है।

अनुच्छेद 43 के अनुसार परिषद् इस बात को निश्चित करती है कि उपयुक्त कार्यवाही संघ के कुछ सदस्यों द्वारा की जाए या सभी सदस्यों द्वारा। जो कार्य किया जाए वह स्वतन्त्र रूप से हो या प्रत्यक्ष हो या फिर उसे क्रियान्वित करने के लिए अंतर्राष्ट्रीय संस्थाओं की सहायता ली जाए। सदस्य राष्ट्रों को यह कर्तव्य है कि वे सुरक्षा परिषद् के माँगने पर तथा विशेष समझौते के अनुसार अपनी सशस्त्र सेनाएँ, सहायता तथा अन्य सुविधा उपलब्ध कराएँगे। संघ की व्यवस्था के अनुसार जिस प्रकार के समझौतों द्वारा यह निश्चिय किया जाना था कि संघ का प्रत्येक सदस्य कितनी सहायता देगा, सेनाओं की उपलब्धता क्या होगी, ये अविलम्ब कार्यवाही करने के लिए कैसे तैयार होंगी तथा प्रत्येक सदस्य किस प्रकार अन्य सुविधाएँ प्रदान करेगा-परन्तु ऐसे समझौते अभी तक हुए नहीं हैं। उस दशा में अनुच्छेद में यह कहा गया है-“जब सुरक्षा परिषद् बल प्रयोग करने का निश्चय कर ले तो किसी ऐसे सदस्य से, जिसे इसमें प्रतिनिधित्व प्राप्त नहीं है, सशस्त्र सेनाएँ जुटाने के लिए कहने से पूर्व वह उस देश को, यदि संबंधित देश चाहे तो उसकी सशस्त्र सेनाओं के प्रयोग से संबंधित निर्णयों में भाग लेने को आमंत्रित करेगी।”

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