NCERT Solutions | Class 11 Rajniti Vigyan Chapter 6

NCERT Solutions | Class 11 Rajniti Vigyan भारत का संविधान : सिद्धान्त और व्यवहार (Indian Constitution at Work) Chapter 6 | Judiciary (न्यायपालिका) 

NCERT Solutions for Class 11 Rajniti Vigyan भारत का संविधान : सिद्धान्त और व्यवहार (Indian Constitution at Work) Chapter 6 Judiciary (न्यायपालिका)

CBSE Solutions | Rajniti Vigyan Class 11

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NCERT | Class 11 Rajniti Vigyan भारत का संविधान : सिद्धान्त और व्यवहार (Indian Constitution at Work)

NCERT Solutions Class 11 Rajniti Vigyan
Book: National Council of Educational Research and Training (NCERT)
Board: Central Board of Secondary Education (CBSE)
Class: 11
Subject: Rajniti Vigyan
Chapter: 6
Chapters Name: Judiciary (न्यायपालिका)
Medium: Hindi

Judiciary (न्यायपालिका) | Class 11 Rajniti Vigyan | NCERT Books Solutions

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NCERT Solutions For Class 11 Political Science Indian Constitution at Work Chapter 6 Judiciary

पाठ्य-पुस्तक के प्रश्नोत्तर

प्रश्न 1.

न्यायपालिका की स्वतन्त्रता को सुनिश्चित करने के विभिन्न तरीके कौन-कौन से हैं? निम्नलिखित में जो बेमेल हो उसे छाँटें-
(क) सर्वोच्च न्यायालय के अन्य न्यायाधीशों की नियुक्ति में सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश से सलाह ली जाती है।
(ख) न्यायाधीशों को अमूमन अवकाश-प्राप्ति की आयु से पहले नहीं हटाया जाता।
(ग) उच्च न्यायालय के न्यायाधीश का तबादला दूसरे उच्च न्यायालय में नहीं किया जा सकता।
(घ) न्यायाधीशों की नियुक्ति में संसद की दखल नहीं है।

उत्तर :

उपर्युक्त कथनों में (ग) बेमेल कथन है जिसमें यह कहा गया है कि उच्च न्यायालय के न्यायाधीश का तबादला दूसरे उच्च न्यायालय में नहीं किया जा सकता।

प्रश्न 2.

क्या न्यायपालिका की स्वतन्त्रता का अर्थ यह है कि न्यायपालिका किसी के प्रति जवाबदेह नहीं है। अपना उत्तर अधिकतम 100 शब्दों में लिखें।

उत्तर :

न्यायपालिका की स्वतन्त्रता से आशय यह बिल्कुल नहीं है कि न्यायपालिका किसी के प्रति जवाबदेह न हो, न्यायपालिका भी संविधान को ही भाग है, वह संविधान के ऊपर नहीं है। न्यायपालिका भी संविधान के अनुसार ही कार्य करेगी। न्यायपालिका की स्वतन्त्रता का अर्थ यह है कि न्यायपालिका बिना किसी अनावश्यक हस्तक्षेप के अपना कार्य करे व इसके निर्णयों को सम्मानपूर्वक स्वीकार किया जाए। न्यायपालिका की स्वतन्त्रता का अर्थ यह भी है कि न्यायाधीश अपनी नियुक्ति के लिए, सेवाकाल के लिए, सेवाशर्ती व सेवा सुविधाओं के लिए कार्यपालिका व विधायिका पर निर्भर न हो। न्यायाधीश को हटाने का तरीका भी पक्षपातरहित हो। भारत में न्यायपालिका स्वतन्त्र है तथा उसे सम्मानजनक स्थान प्राप्त है।

प्रश्न 3.

न्यायपालिका की स्वतन्त्रता को बनाए रखने के लिए संविधान के विभिन्न प्रावधान कौन-कौन से हैं?

उत्तर :

न्यायपालिका की स्वतन्त्रता को बनाए रखने के लिए भारतीय संविधान में निम्नलिखित प्रावधान हैं-

  1. न्यायाधीशों की नियुक्ति में संसद व विधानसभाओं की कोई भूमिका नहीं है।
  2. न्यायाधीशों की नियुक्ति के लिए निश्चित योग्यताएँ व अनुभव दिए गए हैं।
  3. न्यायपालिका अपने वेतन, भत्तों व अन्य आर्थिक सुविधाओं के लिए कार्यपालिका अथवा संसद पर निर्भर नहीं है। उनके खर्चे से सम्बन्धित बिल पर बहस व मतदान नहीं होता।
  4. न्यायाधीशों का सेवाकाल लम्बा व सुनिश्चित होता है यद्यपि कुछ परिस्थितियों में इनको हटाया भी जा सकती है परन्तु महाभियोग की प्रक्रिया काफी लम्बी व मुश्किल होती है।
  5. न्यायाधीशों के कार्यों व निर्णयों के आधार पर उनकी व्यक्तिगत आलोचना नहीं की जा सकती।
  6. जो न्यायालय की व इसके निर्णयों की अवमानना करते हैं, न्यायालय उन्हें दण्डित कर सकता है।
  7. न्यायालय के निर्णय बाध्यकारी होते हैं।

प्रश्न 4.

नीचे दी गई समाचार-रिपोर्ट पढे और उनमें निम्नलिखित पहलुओं की पहचान करें
(क) मामला किसे बारे में है?
(ख) इस मामले में लाभार्थी कौन है?
(ग) इस मामले में फरियादी कौन है?
(घ) सोचकर बताएँ कि कम्पनी की तरफ से कौन-कौन से तर्क दिए जाएँगे?
(ङ) किसानों की तरफ से कौन-से तर्क दिए जाएँगे?
सर्वोच्च न्यायालय ने रिलायंस से दहानु के किसानों को 300 करोड़ रुपये देने को कहा – निजी कारपोरेट ब्यूरो, 24 मार्च 2005
मुंबई – सर्वोच्च न्यायालय ने रिलायंस एनर्जी से मुंबई के बाहरी इलाके दहानु में चीकू फल उगाने वाले किसानों को 300 करोड़ रुपये देने के लिए कहा है। चीकू उत्पादक किसानों ने अदालत में रिलायंस के ताप-ऊर्जा संयंत्र से होने वाले प्रदूषण के विरुद्ध अर्जी दी थी। अदालत ने इसी मामले में अपना फैसला सुनाया है।
दहानु मुंबई से 150 किमी दूर है। एक दशक पहले तक इस इलाके की अर्थव्यवस्था खेती और बागवानी के बूते आत्मनिर्भर थी और दहानु की प्रसिद्धि यहाँ के मछली-पालन तथा जंगलों के कारण थी। सन् 1989 में इस इलाके में ताप-ऊर्जा संयंत्र चालू हुआ और इसी के साथ शुरू हुई इस इलाके की बर्बादी। अगले साल इस उपजाऊ क्षेत्र की फसल पहली दफा मारी गई। कभी महाराष्ट्र के लिए फलों का टोकरा रहे दहानु की अब 70 प्रतिशत फसल समाप्त हो चुकी है। मछली पालन बंद हो गया है और जंगल विरल होने लगे हैं। किसानों और पर्यावरणविदों का कहना है कि ऊर्जा संयंत्र से निकलने वाली राख भूमिगत जल में प्रवेश कर जाती है और पूरा पारिस्थितिकी-तंत्र प्रदूषित हो जाता है। दहानु तालुका पर्यावरण सुरक्षा प्राधिकरण ने ताप-ऊर्जा संयंत्र को प्रदूषण नियंत्रण की इकाई स्थापित करने का आदेश दिया था ताकि सल्फर का उत्सर्जन कम हो सके। सर्वोच्च न्यायालय ने भी प्राधिकरण के आदेश के पक्ष में अपना फैसला सुनाया था। इसके बावजूद सन् 2002 तक प्रदूषण नियंत्रण का संयंत्र स्थापित नहीं हुआ। सन् 2003 में रिलायंस ने ताप-ऊर्जा संयंत्र को हासिल किया और सन् 2004 में उसने प्रदूषण-नियंत्रण संयंत्र लगाने की योजना के बारे में एक खाका प्रस्तुत किया। प्रदूषण नियंत्रण संयंत्र चूँकि अब भी स्थापित नहीं हुआ था, इसलिए दहानु तालुका पर्यावरण सुरक्षा प्राधिकरण ने रिलायंस से 300 करोड़ रुपये की बैंक-गारंटी देने को कहा।

उत्तर :

(क) मामला दहानु मुंबई क्षेत्र के चीकू पैदा करने वाले उन किसानों को मुआवजा देने के बारे में है जिनका थर्मल पावर प्लांट के नुकसानदायक रिसाव के कारण भारी नुकसान हुआ है।
(ख) इस मामले में दहानु क्षेत्र के चीकू उत्पादन करने वाले किसान लाभान्वित हुए हैं।
(ग) इस मामले में दहानु क्षेत्र के चीकू उत्पादन करने वाले किसान फरियादी हैं।
(घ) रिलायंस कम्पनी ने न्यायालय में तर्क दिया कि थर्मल पावर प्लांट के नुकसानदायक रिसाव को नियन्त्रित करने के लिए एक प्रदूषण नियन्त्रक बोर्ड का गठन किया जाना चाहिए।
(ङ) किसानों ने पर्यावरणविदों के सहयोग से कहा था कि ऊर्जा संयंत्र से निकलने वाली राख से भूमिगत जल प्रभावित हुआ है।

प्रश्न 5.

नीचे की समाचार-रिपोर्ट पढे और चिह्नित करें कि रिपोर्ट में किस-किस स्तर की सरकार सक्रिय दिखाई देती है?
(क) सर्वोच्च न्यायालय की भूमिका की निशानदेही करें।
(ख) कार्यपालिका और न्यायपालिका के कामकाज की कौन-सी बातें आप इसमें पहचान सकते हैं?
(ग) इस प्रकरण से सम्बद्ध नीतिगत मुद्दे, कानून बनाने से सम्बन्धित बातें, क्रियान्वयन तथा कानून की व्याख्या से जुड़ी बातों की पहचान करें।

सीएनजी – मुद्दे पर केन्द्र और दिल्ली सरकार एक साथ
स्टाफ रिपोर्टर, द हिंदू, सितंबर 23, 2001 राजधानी के सभी गैर-सीएनजी व्यावसायिक वाहनों को यातायात से बाहर करने के लिए केन्द्र और दिल्ली सरकार संयुक्त रूप से सर्वोच्च न्यायालय का सहारा लेंगे। दोनों सरकारों में इस बात की सहमति हुई है। दिल्ली और केन्द्र की सरकार ने पूरी परिवहन व्यवस्था को एकल ईंधन-प्रणाली से चलाने के बजाय दोहरे ईंधन-प्रणाली से चलाने के बारे में नीति बनाने का फैसला किया है क्योंकि ईंधन-प्रणाली खतरों से भरी है और इसके परिणामस्वरूप विनाश हो सकता है।

राजधानी के निजी वाहन धारकों द्वारा सीएनजी के इस्तेमाल को हतोत्साहित करने का भी फैसला किया गया है। दोनों सरकारें राजधानी में 0.05 प्रतिशत निम्न सल्फर डीजल से बसों को चलाने की अनुमति देने के बारे में दबाव डालेंगी। इसके अतिरिक्त अदालत से कहा जाएगा कि जो व्यावसायिक वाहन यूरो-दो मानक को पूरा करते हैं उन्हें महानगर में चलने की अनुमति दी जाए। हालाँकि केन्द्र और दिल्ली अलग-अलग हलफनामा दायर करेंगे लेकिन इनमें समान बिन्दुओं को उठाया जाएगा। केन्द्र सरकार सीएनजी के मसले पर दिल्ली सरकार के पक्ष को अपना समर्थन देगी। दिल्ली की मुख्यमंत्री शीला दीक्षित और केन्द्रीय पेट्रोलियम एवं प्राकृतिक गैस मंत्री श्रीराम नाइक के बीच हुई बैठक में ये फैसले लिए गए। श्रीमती शीला दीक्षित ने कहा कि केन्द्र सरकार अदालत से विनती करेगी कि डॉ० आर०ए० मशेलकर की अगुवाई में गठित उच्चस्तरीय समिति को ध्यान में रखते हुए अदालत बसों को सीएनजी में बदलने की आखिरी तारीख आगे बढ़ा दे क्योकि 10,000 बसों को निर्धारित समय में सीएनजी में बदल पाना असंभव है। डॉ० मशेलकर की अध्यक्षता में गठित समिति पूरे देश के लिए ऑटो ईंधन नीति का सुझाव देगी। उम्मीद है कि यह समिति छ: माह में अपनी रिपोर्ट पेश करेगी।
मुख्यमंत्री ने कहा कि अदालत के निर्देशों पर अमल करने के लिए समय की जरूरत है। इस मसले पर समग्र दृष्टि अपनाने की बात कहते हुए श्रीमती दीक्षित ने बताया-सीएनजी से चलने वाले वाहनों की संख्या, सीएनजी की आपूर्ति करने वाले स्टेशनों पर लगी लंबी कतार की समाप्ति, दिल्ली के लिए पर्याप्त मात्रा में सीएनजी ईंधन जुटाने तथा अदलात के निर्देशों को अमल में लाने के तरीके और साधनों पर एक साथ ध्यान दिया जाएगा।

सर्वोच्च न्यायालय ने ……….. सीएनजी के अतिरिक्त किसी अन्य ईंधन से महानगर में बसों को चलाने की अपनी मनाही में छूट देने से इनकार कर दिया था लेकिन अदालत का कहना था कि टैक्सी और ऑटो-रिक्शा के लिए भी सिर्फ सीएनजी इस्तेमाल किया जाए, इस बात पर उसने कभी जोर नहीं डोला। श्रीराम नाइक का कहना था कि केन्द्र सरकार सल्फर की कम मात्रा वाले डीजल से बसों को चलाने की अनुमति देने के बारे में अदालत से कहेगी, क्योंकि पूरी यातायात व्यवस्था को सीएनजी पर निर्भर करना खतरनाक हो सकता है। राजधानी में सीएनजी की आपूर्ति पाइपलाइन के जरिए होती है। और इसमें किसी किस्म की बाधा आने पर पूरी सार्वजनिक यातायात प्रणाली अस्त-व्यस्त हो जाएगी।

उत्तर :

इस केस में केन्द्रीय सरकार और दिल्ली की राज्य सरकार सक्रिय दिखाई देती हैं।
(क) यातायात के लिए प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड द्वारा निश्चित मापदण्डों के आधार पर केस को तय करने में सर्वोच्च न्यायालय की महत्त्वपूर्ण भूमिका होगी।
(ख) कार्यपालिका प्रदूषण नियंत्रण की नीति तय करेगी तथा न्यायपालिका यह तय करेगी कि कार्यपालिका की नीति (प्रदूषण नियंत्रण) का कितनी उल्लंघन हुआ है।
(ग) इस प्रकरण में राज्य सरकार का नीतिगत निर्णय यह है कि दिल्ली में CNG के प्रयोग की बसें चलेंगी। इस पर दिल्ली सरकार कानून बनाएगी। नीति वे कानून के निर्माण के सम्बन्ध में यह निर्णय लिया गया कि ऐसा करते समय पर्यावरण प्रदूषण से सुरक्षा को मुख्य रूप से ध्यान में रखा जाए।

प्रश्न 6.

देश के मुख्य न्यायाधीश की नियुक्ति में राष्ट्रपति की भूमिको को आप किस रूप में देखते हैं? (एक काल्पनिक स्थिति का ब्योरा दें और छात्रों से उसे उदाहरण के रूप में लागू करने को कहें)।

उत्तर :

सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश की नियुक्ति राष्ट्रपति द्वारा की जाती है। राष्ट्रपति यह नियुक्ति प्रधानमन्त्री की सलाह पर करता है। साधारणतया सर्वोच्च न्यायालय में सर्वाधिक वरिष्ठ न्यायाधीश को ही मुख्य न्यायाधीश नियुक्त किया जाता है, परन्तु अनेक अवसर ऐसे आए हैं जब मुख्य न्यायाधीश की नियुक्ति में वरिष्ठता के सिद्धान्त का उल्लंघन हुआ है। मुख्य न्यायाधीश की नियुक्ति में राष्ट्रपति की अपनी कोई विशेष भूमिका नहीं है।

प्रश्न 7.

निम्नलिखित कथन इक्वाडोर के बारे में है। इस उदाहरण और भारत की न्यायपालिका के बीच आप क्या समानता अथवा असमानता पाते हैं। सामान्य कानूनों की कोई संहिता अथवा पहले सुनाया गया कोई न्यायिक फैसला मौजूद होता तो पत्रकार के अधिकारों को स्पष्ट करने में मदद मिलती। दुर्भाग्य से इक्वाडोर की अदालत इस रीति से काम नहीं करती। पिछले मामलों में उच्चतर अदालत के न्यायाधीशों ने जो फैसले दिए हैं उन्हें कोई न्यायाधीश उदाहरण के रूप में मानने के लिए बाध्य नहीं है। संयुक्त राज्य अमेरिका के विपरीत इक्वाडोर (अथवा दक्षिण अमेरिका में किसी और देश में जिस न्यायाधीश के सामने अपील की गई है उसे । अपना फैसला और उसको कानूनी आधार लिखित रूप में नहीं देना होता। कोई न्यायाधीश आज एक मामले में कोई फैसला सुनाकर कल उसी मामले में दूसरा | फैसला दे सकता है और इसमें उसे यह बताने की जरूरत नहीं कि वह ऐसा क्यों कर रहा है।

उत्तर :

भारतीय न्याय-प्रणाली में किसी विषय पर उच्च न्यायालयों द्वारा दिए गए निर्णय आगे आने वाले निर्णयों के लिए मार्गदर्शक होते हैं जो बाध्यकारी भी होते हैं यह स्थिति इक्वाडोर के उदाहरण से भिन्न है क्योंकि वहाँ न्यायाधीश उसी विषय पर दिए गए निर्णय को मानने के लिए बाध्य नहीं होता। भारतीय न्याय व्यवस्था व इक्वाडोर की न्याय व्यवस्था में एक समानता यह है कि भारत व इक्वाडोर में न्यायाधीश नवीन परिस्थिति में अपना प्रथम निर्णय किसी विषय पर बदल सकते हैं।

प्रश्न 8.

निम्नलिखित कथनों को पढ़िए और सर्वोच्च न्यायालय द्वारा अमल में लाए जाने वाले विभिन्न क्षेत्राधिकार; मसलन-मूल, अपील और परामर्शकारी-से इनका मिलान कीजिए-
(क) सरकार जानना चाहती थी कि क्या यह पाकिस्तान-अधिगृहीत जम्मू-कश्मीर के निवासियों की नागरिकता के सम्बन्ध में कानून पारित कर सकती है।
(ख) कावेरी नदी के जल विवाद के समाधान के लिए तमिलनाडु सरकार अदालत की शरण लेना चाहती है।
(ग) बाँध-स्थल से हटाए जाने के विरुद्ध लोगों द्वारा की गई अपील को अदालत ने ठुकरा दिया।

उत्तर :

(क) परामर्श सम्बन्धी अधिकार।
(ख) प्रारम्भिक क्षेत्राधिकार।
(ग) अपीलीय क्षेत्राधिकार।

प्रश्न 9.

जनहित याचिका किस तरह गरीबों की मदद कर सकती है?

उत्तर :

संविधान द्वारा भारत के नामरिकों को यह अधिकार दिया गया है कि यदि नागरिकों को राज्य के कानूनों द्वारा कोई हानि पहुँचती है तो वे उच्चतम न्यायालय तथा उच्च न्यायालय में विभिन्न प्रकार की याचिकाएँ प्रस्तुत कर सकते हैं। जनहित याचिका का तात्पर्य यह है कि लोकहित के किसी भी मामले में कोई भी व्यक्ति या समूह जिसने व्यक्तिगत अथवा सामूहिक रूप से सरकार के हाथों किसी भी प्रकार से हानि उठाई हो, अनुच्छेद 21 तथा 32 के अन्तर्गत उच्चतम न्यायालय तथा अनुच्छेद 226 के अनुसार उच्च न्यायालय की शरण ले सकता है।

उच्चतम न्यायालय ने यह स्पष्ट कर दिया है कि गरीब, अपंग अथवा सामाजिक एवं आर्थिक दृष्टि से पिछड़े लोगों के मामले में आम जनता का कोई आदमी न्यायालय के समक्ष ‘वाद’ ला सकता है। न्यायाधीश कृष्णा अय्यर के अनुसार ‘वाद कारण तथा पीड़ित व्यक्ति की संकुचित धारणा का स्थान अब ‘वर्ग कार्यवाही तथा लोकहित में कार्यवाही ने ले लिया है। जनहित याचिका की विशेष बात यह है कि न्यायालय अपने समस्त तकनीकी तथा कार्यवाही सम्बन्धी नियमों की परवाह किए बिना एक सामान्य पत्र के आधार पर भी कार्यवाही कर सकेगा। जनहित याचिकाओं का महत्त्व-जनहित याचिकाओं के महत्त्व को देखते हुए जनता में इसके प्रति काफी रुचि बढ़ी है।

जनहित याचिकाओं का महत्त्व निम्नवत् है-
1. सामान्य जनता की आसान पहुँच – जनहित याचिकाओं द्वारा आम नागरिक भी व्यक्तिगत अथवा सामूहिक रूप से न्याय के लिए न्यायालय के दरवाजे खटखटा सकता है। जनहित याचिकाओं के लिए किन्हीं विशेष कानूनी प्रावधानों के चक्कर में उलझना नहीं पड़ता है। व्यक्ति सीधे उच्च न्यायालय अथवा उच्चतम न्यायालय में अपना वाद प्रस्तुत कर सकता है।
2. शीर्घ निर्णय – जनहित याचिकाओं पर न्यायालय तुरन्त न्यायिक प्रक्रिया को प्रारम्भ कर देता है। तथा उन पर जल्दी ही सुनवाई होता है। उच्चतम न्यायालय ने अनुच्छेद 21 तथा 32 की राज्य द्वारा अवज्ञा के मामलों को बहुत ही गम्भीरता से लिया है। जनहित याचिकाओं पर तुरन्त सुनवाई के कारण बहुत जल्दी निर्णय लिया जाता है।
3. प्रभावी राहत – अधिकांश जनहित याचिकाओं में यह देखने को मिलती है कि इसमें पीड़ित पक्ष को बहुत अधिक राहत हो जाती है तथा प्रतिवादी को सजा देने का भी प्रावधान है।
4. कम व्यय – जनहित याचिकाओं में याचिका प्रस्तुत करने वाले व्यक्ति का खर्चा बहुत कम होता है क्योंकि इसमें सामान्य न्यायिक प्रक्रिया से गुजरना नहीं पड़ता है। यदि न्यायालय याचिका को निर्णय के लिए स्वीकार कर लेता है तो उस पर तुरन्त कार्यवाही के कारण निर्णय हो जाता है। इससे पीड़ित पक्ष को कम खर्च में शीघ्र न्याय प्राप्त हो जाता है।

प्रश्न 10.

क्या आप मानते हैं कि न्यायिक सक्रियता से न्यायपालिका और कार्यपालिका में विरोध पनप सकता है? क्यों?

उत्तर :

भारतीय न्यायपालिका को न्यायिक पुनरवलोकन की शक्ति प्राप्त है जिसके आधार पर न्यायपालिका विधायिका द्वारा पारित कानूनों तथा कार्यपालिका द्वारा जारी आदेशों की संवैधानिक वैधता की जाँच कर सकती है, अगर ये संविधान के विपरीत पाए जाते हैं तो न्यायपालिका उन्हें अवैध घोषित कर सकती है। परन्तु न्यायपालिका नीतिगत विषय पर टिप्पणी नहीं कर सकती। विगत कुछ वर्षों में न्यायपालिका ने अपनी इस सीमा को तोड़ा है व कार्यपालिका के कार्यों में निरन्तर हस्तक्षेप व बाधा कर रही है जिसे राजनीतिक क्षेत्रों में न्यायिक सक्रियता कहा जाता है जिसके परिणामस्वरूप कार्यपालिका व न्यायपालिका में टकराव उत्पन्न हो गया है।

प्रश्न 11.

न्यायिक सक्रियता मौलिक अधिकारों की सुरक्षा में किस रूप में जुड़ी है? क्या इससे मौलिक अधिकारों के विषय-क्षेत्र को बढ़ाने में मदद मिली है?

उत्तर :

न्यायिक सक्रियता मौलिक अधिकारों की सुरक्षा से पूर्ण रूप से जुड़ी है। इसने मौलिक अधिकारों के विषय-क्षेत्र को भी काफी विस्तृत कर दिया है। न्यायपालिका ने जीने के अधिकार का अर्थ यह लिया है–सम्मानपूर्ण जीवन, शुद्ध वायु, शुद्ध पानी तथा शुद्ध वातावरण में जीने का अधिकार। इसीलिए न्यायपालिका में पर्यावरण को साफ-सुथरा रखने, प्रदूषण को रोकने, नदियों को साफ-सुथरा रखे जाने, उद्योगों को आवासीय क्षेत्र से बाहर निकाले जाने, आवासीय क्षेत्रों से दुकानों को हटाए जाने आदि के कितने ही आदेश दिए हैं। इस प्रकार न्यायपालिका ने न्यायिक सक्रियता द्वारा नागरिकों के मौलिक अधिकारों के क्षेत्र को काफी व्यापक बनाया है।

परीक्षोपयोगी प्रश्नोत्तर

बहुविकल्पीय प्रश्न

प्रश्न 1.

सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश की नियुक्ति कौन करता है?
(क) संसद
(ख) प्रधानमन्त्री
(ग) राष्ट्रपति
(घ) मन्त्रिपरिषद्

उत्तर :

(ग) राष्ट्रपति।

प्रश्न 2.

भारत का सर्वोच्च न्यायालय कहाँ स्थित है?
(क) इलाहाबाद में
(ख) नयी दिल्ली में
(ग) मुम्बई में
(घ) चेन्नई में

उत्तर :

(ख) नयी दिल्ली में।

प्रश्न 3.

सर्वोच्च न्यायालय का न्यायाधीश अपने पद पर कार्यरत रहता है –
या
सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीश की अवकाश प्राप्त करने की आयु है –
(क) 58 वर्ष की आयु तक
(ख) 60 वर्ष की आयु तक
(ग) 65 वर्ष की आयु तक
(घ) 62 वर्ष की आयु तक

उत्तर :

(ग) 65 वर्ष की आयु तक

प्रश्न 4.

भारत में संविधान का संरक्षक कौन है?
(क) राष्ट्रपति
(ख) प्रधानमन्त्री
(ग) सर्वोच्च न्यायालय
(घ) संसद

उत्तर :

(ग) सर्वोच्च न्यायालय

प्रश्न 5.

उच्चतम न्यायालय में मुख्य न्यायाधीश के अतिरिक्त कुल कितने न्यायाधीश होते हैं?
(क) 23
(ख) 24
(ग) 30
(घ) 26

उत्तर :

(ग) 30.

प्रश्न 6.

उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीशों की नियुक्ति किसकी सलाह पर की जाती है?
(क) केन्द्रीय विधि मन्त्री
(ख) प्रधानमन्त्री
(ग) महान्यायवादी
(घ) भारत के मुख्य न्यायाधीश

उत्तर :

(घ) भारत के मुख्य न्यायाधीश

प्रश्न 7.

संविधान के अनुसार उच्चतम न्यायालय की कार्यवाहियों की अधिकृत भाषा है
(क) केवल अंग्रेजी
(ख) अंग्रेजी तथा हिन्दी
(ग) अंग्रेजी तथा कोई भी क्षेत्रीय भाषा
(घ) अंग्रेजी तथा आठवीं सूची में निर्दिष्ट भाषा

उत्तर :

(क) केवल अंग्रेजी।

प्रश्न 8.

भारत में न्यायिक पुनरवलोकन का सिद्धान्त लिया गया है
(क) फ्रांस के संविधान से
(ख) जर्मनी के संविधान से
(ग) संयुक्त राज्य अमेरिका के संविधान से
(घ) कनाडा के संविधान से

उत्तर :

(ग) संयुक्त राज्य अमेरिका के संविधान से

प्रश्न 9.

संविधान के किस अनुच्छेद के अनुसार सर्वोच्च न्यायालय भारतीय नागरिकों के मौलिक अधिकारों की रक्षा करता है?
(क) अनुच्छेद 29
(ख) अनुच्छेद 31
(ग) अनुच्छेद 33
(घ) इनमें से कोई नहीं

उत्तर :

(घ) इनमें से कोई नहीं

प्रश्न 10.

उच्च न्यायालय से परामर्श माँगने का अधिकार किसको है?
(क) प्रधानमन्त्री को
(ख) लोकसभा अध्यक्ष को
(ग) राष्ट्रपति को
(घ) विधिमन्त्री को

उत्तर :

(ग) राष्ट्रपति को

प्रश्न 11.

उच्च न्यायालय के वह कौन-से मुख्य न्यायाधीश थे, जिन्हें कार्यकारी राष्ट्रपति के रूप में कार्य करने का अवसर प्राप्त हुआ?
(क) गजेन्द्र गडकर
(ख) एम० हिदायतुल्लाह
(ग) के० सुब्बाराव
(घ) पी० एन० भगवती

उत्तर :

(ख) एम० हिदायतुल्लाह

प्रश्न 12.

उच्च न्यायालयों के न्यायाधीशों की नियुक्ति किसकी सलाह पर की जाती है?
(क) केन्द्रीय विधि मन्त्री
(ख) प्रधानमन्त्री
(ग) महान्यायवादी
(घ) भारत के मुख्य न्यायाधीश

उत्तर :

(घ) भारत के मुख्यं न्यायाधीश

प्रश्न 13.

उच्च न्यायालय के न्यायाधीशों की सेवानिवृत्ति आयु क्या है?
(क) 65 वर्ष
(ख) 60 वर्ष
(ग) 58 वर्ष
(घ) 62 वर्ष

उत्तर :

(घ) 62 वर्ष

प्रश्न 14.

सर्वोच्च न्यायालय के कार्य-क्षेत्र को बढ़ाया जा सकता है?
(क) संसद द्वारा
(ख) राष्ट्रपति द्वारा।
(ग) मंत्रिमंडल द्वारा
(घ) प्रधानमंत्री द्वारा

उत्तर :

(क) संसद द्वारा।

अतिलघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.

न्यायपालिका किसके प्रति जवाबदेह है?

उत्तर :

न्यायपालिका देश के संविधान, लोकतान्त्रिक परम्परा और जनता के प्रति जवाबदेह है।

प्रश्न 2.

मुख्य न्यायाधीश सहित उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीशों की संख्या कितनी है?

उत्तर :

भारत के उच्चतम न्यायालय में एक मुख्य न्यायाधीश तथा 30 अन्य न्यायाधीश हैं। इस प्रकार : मुख्य न्यायाधीश सहित उच्चतम न्यायालय में न्यायाधीशों की कुल संख्या 31 है।

प्रश्न 3.

उच्चतम न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश की नियुक्ति कौन करता है?

उत्तर :

उच्चतम न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश की नियुक्ति राष्ट्रपति करता है।

प्रश्न 4.

उच्चतम न्यायालय में न्यायाधीशों की नियुक्ति कैसे की जाती है?

उत्तर :

भारत के राष्ट्रपति द्वारा उच्चतम न्यायालय में मुख्य न्यायाधीश के परामर्श पर अन्य न्यायाधीशों की नियुक्ति की जाती है।

प्रश्न 5.

उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीश का कार्यकाल कितना होता है?

उत्तर :

उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीश अपने पद पर 65 वर्ष की आयु तक कार्यरत रह सकते हैं।

प्रश्न 6.

उच्चतस न्यायालय से परामर्श माँगने का अधिकार किसको है?

उत्तर :

उच्चतम न्यायालय से परामर्श माँगने का अधिकार राष्ट्रपति को है।

प्रश्न 7.

उच्चतम न्यायालय के किसी न्यायाधीश के पदच्युति का प्रस्ताव करने के लिए संविधान में क्या आधार बताए गए हैं?

उत्तर :

केवल ‘प्रमाणित कदाचार तथा ‘असमर्थता की स्थिति में ही उसके विरुद्ध पदच्युति का प्रस्ताव प्रस्तुत किया जा सकता है।

प्रश्न 8.

भारत का उच्चतम न्यायालय कहाँ पर स्थित है?

उत्तर :

भारत का उच्चतम न्यायालय नई दिल्ली में स्थित है।

प्रश्न 9.

भारत का उच्चतम न्यायालय न्यायिक पुनरावलोकन के अधिकार का प्रयोग किस आधार पर करता है?

उत्तर :

न्यायालय इस अधिकार का प्रयोग ‘कानून द्वारा स्थापित प्रक्रिया द्वारा करता है।

प्रश्न 10.

उच्चतम न्यायालय के दो अधिकार बताइए।

उत्तर :

  1. मूल अधिकारों की रक्षा
  2. संविधान का संरक्षण

प्रश्न 11.

देश में न्यायिक सक्रियता का मुख्य साधन क्या है?

उत्तर :

भारत में न्यायिक सक्रियता को मुख्य साधन जनहित याचिका या सामाजिक व्यवहार याचिका (Social Action Litigation) है।

लघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.

सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य कार्य क्या हैं?

उत्तर :

सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य कार्य निम्नलिखित हैं –

  1. केन्द्र सरकार व राज्य सरकारों के मध्य होने वाले विवादों की सुनवाई करना।
  2. उच्च न्यायालय के निर्णय के विरुद्ध अपीलों की सुनवाई करना।
  3. राष्ट्रपति को न्यायिक प्रश्नों पर परामर्श देना।
  4. नागरिकों के मूल अधिकारों की सुरक्षा करना।
  5. संविधान की व्याख्या तथा सुरक्षा करना।
  6. अभिलेख न्यायालय के रूप में कार्य करना।
  7. संघात्मक व्यवस्था को बनाए रखना।
  8. परिवर्तित सामाजिक तथा आर्थिक परिस्थितियों में संविधान की न्यायसंगत तथा तर्कसंगत व्याख्या प्रस्तुत करना। प्रश्न

प्रश्न 2.

न्यायिक सक्रियता का मानव के सामाजिक जीवन पर क्या प्रभाव पड़ा है? संक्षेप में विवेचना कीजिए।

उत्तर :

न्यायिक सक्रियता का मानव-जीवन पर निम्नलिखित प्रभाव पड़ा है –

  1. उच्चतम न्यायालय ने जनहितकारी विवादों को मान्यता प्रदान की है। इसके अनुसार कोई भी व्यक्ति किसी ऐसे समूह अथवा वर्ग की ओर से मुकदमा लड़ सकता है जिसको उसके कानूनों अथवा संवैधानिक अधिकारों से वंचित कर दिया गया है।
  2. उच्चतम न्यायालय ने अनुच्छेद 21 की नवीन व्याख्या की है तथा आम आदमी के जीवन व सुरक्षा को वास्तविक बनाने का प्रयास किया गया है।
  3. उच्चतम न्यायालय ने नागरिकों की गरिमा तथा प्रतिष्ठा की सुरक्षा की ओर अधिक ध्यान केन्द्रित किया है।
  4. उच्चतम न्यायालय ने पूर्णतः स्पष्ट कर दिया है कि कार्यपालिको के ‘स्वविवेक’ पर नियंत्रण किया जाना चाहिए।
  5. वर्तमान में उच्चतम न्यायालय की यह मान्यता बन गई है कि यद्यपि न्यायाधीश का कार्य कानून का निर्माण करना नहीं है, परन्तु वह कानून की रूपरेखा में रंग अवश्य भरता है।

प्रश्न 3.

भारतीय न्यायपालिका एकीकृत न्यायपालिका किस प्रकार है?

उत्तर :

भारतीय न्यायपालिका एकीकृत न्यायपालिका है। इसके शिखर पर उच्चतम न्यायालय है, मध्य में उच्च न्यायालय है व जिला स्तर पर अधीनस्थ न्यायालय है। ये न्यायालय एकीकृत इस अर्थ में हैं कि उच्चतम न्यायालय का नीचे वाले न्यायालय पर प्रशासनिक व न्यायिक नियंत्रण है। निचली अदालतों के निर्णयों के विरुद्ध उच्च न्यायालय में लाया जा सकता है, उच्च न्यायालयों के निर्णय के विरुद्ध उच्चतम न्यायालय में लाया जा सकता है। उच्चतम न्यायालय के निर्णय अधीनस्थ न्यायालयों पर बाध्यकारी होते हैं। उच्चतम न्यायालय न्यायाधीशों के स्थानान्तरण करने के लिए भी स्वतन्त्र है। उच्चतम न्यायालय नीचे वाले न्यायालय से किसी भी मुकदमे को अपने पास ले सकता है, अगर उच्चतम न्यायालय यह समझता है कि किसी प्रकरण में कानून का कोई गम्भीर विषय शामिल है। उच्चतम न्यायालय अधीनस्थ न्यायालयों को कोई भी आवश्यक निर्देश दे सकता है।

प्रश्न 4.

सर्वोच्च न्यायालय के परामर्शदात्री क्षेत्राधिकार को समझाइए।

उत्तर :

संविधान के अनुच्छेद 143 के अनुसार, राष्ट्रपति किसी कानूनी या तथ्य के प्रश्न पर उच्चतम न्यायालय से परामर्श मॉग सकता है। उच्चतम न्यायालय, राष्ट्रपति को परामर्श देने के लिए खुली सुनवाई (Open Hearings) का भी प्रबन्ध करता है। अमेरिका के संविधान में उच्चतम न्यायालय द्वारा राष्ट्रपति को परामर्श दिए जाने की व्यवस्था नहीं है। इस न्यायालय पर संवैधानिक दृष्टि से ऐसी कोई बाध्यता नहीं है कि उसे परामर्श देना ही पड़े। राष्ट्रपति के लिए भी यह आवश्यक नहीं है। कि वह उच्चतम न्यायालय द्वारा दिए गए परामर्श के अनुसार ही कार्य करे।

प्रश्न 5.

जनहित याचिकाओं का भारतीय व्यवस्था पर क्या प्रभाव पड़ता है?

उत्तर :

जनहित याचिकाओं का भारतीय व्यवस्था पर निम्नलिखित प्रभाव दृष्टिगत होता है –

  1. ऐसे लोगों की स्वतन्त्रता व हितों की रक्षा करने में सहायता मिलती है जो स्वयं अपने हितों की रक्षा करने में समर्थ नहीं थे।
  2. इससे सामाजिक एकता का विकास होता है।
  3. इससे राष्ट्रीय एकता सुदृढ़ हुई है।
  4. न्यायिक सक्रियता का विकास हुआ है।
  5. कार्यपालिका पर भी कुछ नियंत्रण स्थापित हुआ है।
  6. गलत कानून-निर्माण पर रोक लगी है।
  7. नौकरशाही पर नियंत्रण स्थापित हुआ है।
  8. गरीब जनता में विश्वास उत्पन्न हुआ है।

प्रश्न 6.

संसद व न्यायपालिका का मौलिक अधिकारों के संशोधन को लेकर टकराव, संक्षेप में। समझाइए।

उत्तर :

संविधान में संशोधन विशेषकर मौलिक अधिकारों में संशोधन को लेकर न्यायपालिका का संसद से निरन्तर टकराव बना रहा है। प्रारम्भ में शंकरी प्रसाद प्रकरण में न्यायालय ने निर्णय दिया था कि संसद संविधान के किसी भी भाग में, यहाँ तक कि मौलिक अधिकारों में भी संशोधन कर सकती है। सन् 1967 में गोलकनाथ केस में न्यायालय ने अपने इस निर्णय को बदलते हुए नया निर्णय दिया कि संसद मौलिक अधिकार में संशोधन नहीं कर सकती। इससे न्यायपालिका व संसद में टकराव की स्थिति उत्पन्न हो गई। संसद में गोलकनाथ केस के निर्णय को समाप्त करने के उद्देश्य से 38 व 39वाँ संविधान संशोधन किया जिन्हें 1973 में केशवानन्द भारती केस में चुनौती दी गई जिसमें यह निर्णय हुआ कि संसद, संविधान के किसी भी भाग में यहाँ तक कि मौलिक अधिकारों में भी संशोधन कर सकती है परन्तु संविधान की मौलिक रचना में संशोधन नहीं कर सकती। इस प्रकार न्यायपालिका व संसद में टकराव होता रहा है।

प्रश्न 7.

उच्चतम न्यायालय का न्यायाधीश बनने के लिए व्यक्ति में किन अर्हताओं का होना आवश्यक है?

उत्तर :

उच्चतम न्यायालय का न्यायाधीश बनने के लिए व्यक्ति में निम्नलिखित अर्हताओं का होना आवश्यक है –

  1. वह भारत का नागरिक हो।
  2. वह किसी उच्च न्यायालय अथवा दो या दो से अधिक न्यायालयों में लगातार कम-से-कम 5 वर्ष तक न्यायाधीश के रूप में कार्य कर चुका हो।

या वह किसी उच्च न्यायालय या न्यायालयों में लगातार 10 वर्ष तक अधिवक्ता रह चुका हो। या राष्ट्रपति की दृष्टि में कानून का उच्चकोटि का ज्ञाता हो।

प्रश्न 8.

अभिलेख न्यायालय पर संक्षिप्त टिप्पणी लिखिए।

उत्तर :

भारत का उच्चतम न्यायालय अभिलेख (रिकॉर्ड) न्यायालय के रूप में भी कार्य करता है। अभिलेख न्यायालय का यह तात्पर्य है कि न्यायालय के समस्त निर्णयों को अभिलेख के रूप में सुरक्षित रखा जाता है। इन निर्णयों को भविष्य में देश के किसी भी न्यायालय में पूर्व उदाहरणों के रूप में प्रस्तुत किया जा सकता है। उच्चतम न्यायालय को यह भी अधिकार प्राप्त होता है कि वह अपनी मानहानि के लिए किसी भी व्यक्ति को जुर्माना अथवा कारावास का दण्ड दे सकता है। सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय, अन्य अधीनस्थ न्यायालयों में आवश्यकता पड़ने पर नजीर (केस लॉ) के रूप में प्रयुक्त किए जाते हैं।

प्रश्न 9.

भारत में नागरिकों के मौलिक अधिकारों की सुरक्षा न्यायपालिका किस प्रकार करती है?

उत्तर :

भारतीय संविधान द्वारा भारत के नागरिकों को प्रदान किए गए मौलिक अधिकारों की सुरक्षा का उत्तरदायित्व भारत के सर्वोच्च न्यायालय को प्रदान किया गया है। यदि सरकार नागरिकों के मौलिक अधिकारों का अतिक्रमण करती है या कोई नागरिक किसी दूसरे नागरिक को उसके मौलिक अधिकारों का प्रयोग स्वतन्त्रतापूर्वक नहीं करने देता, तो प्रभावित व्यक्ति अपने मौलिक अधिकारों की सुरक्षा के लिए उच्चतम न्यायालय की शरण ले सकता है। उच्चतम न्यायालय के संविधान में अनुच्छेद 32 में वर्णित ‘संवैधानिक उपचारों के अधिकारों के अन्तर्गत मौलिक अधिकारों की सुरक्षा करता है। इने संवैधानिक उपचारों में बन्दी प्रत्यक्षीकरण (Habeas Corpus), परमादेश (Mandamus), प्रतिषेध (Prohibition), अधिकार पृच्छा (Quo Warranto) तथा उत्प्रेषण (Certiorari) नामक पाँच लेखों का प्रयोग नागरिकों के मौलिक अधिकारों की सुरक्षा के लिए किया जाता है।

दीर्घ लघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.

भारत की संघात्मक व्यवस्था में न्यायपालिका की भूमिका पर टिप्पणी लिखिए।

उत्तर :

समस्त प्रकार की शासन-प्रणालियों में न्यायपालिका की भूमिका महत्त्वपूर्ण होती है, परन्तु । संघात्मक व्यवस्था में न्यायपालिका के दायित्व और भी बढ़ जाते हैं। संघात्मक व्यवस्था में शासन की सत्ता एक लिखित एवं कठोर संविधान द्वारा केन्द्र तथा राज्यों के मध्य विभाजित होती है। केन्द्र की सरकार केवल उन विषयों पर ही कानून का निर्माण कर सकती है, जो संघ-सूची में वर्णित होते हैं तथा राज्य सरकारें राज्य-सूची के विषयों पर ही कानून का निर्माण कर सकती हैं। किसी भी सरकार को दूसरी सरकार के क्षेत्र का अतिक्रमण करने का अधिकार प्राप्त नहीं होता है। यदि ऐसा होता है तो संघात्मक व्यवस्था ही समाप्त हो जाएगी। न्यायपालिका को यह अधिकार प्राप्त है कि वह शासन के कार्यक्षेत्र एवं शक्तियों पर अपना प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष अंकुश रखे जिससे इन शक्तियों का दुरुपयोग या अतिक्रमण न होने पाए। इसीलिए न्यायपालिका को यह शक्ति प्राप्त होती है कि वह ऐसे किसी भी कानून अथवा आदेश को अवैध घोषित कर दे जो संविधान की धाराओं का उल्लंघन करता हो। एक स्वतन्त्र एवं निष्पक्ष न्यायपालिको ही अपने दायित्वों का समुचित रूप से पालन कर सकती है। यदि न्यायपालिका अपने इस अधिकार का प्रयोग न करे तो संघात्मक व्यवस्था एकात्मक शासन व्यवस्था में परिवर्तित हो जाएगी तथा संविधान का अस्तित्व ही खतरे में पड़ जाएगा।

प्रश्न 2.

लोकतन्त्र में न्यायपालिका की स्वतन्त्रता का संक्षेप में वर्णन कीजिए।
या
न्यायपालिका की स्वतन्त्रता को सुनिश्चित करने के दो उपायों का उल्लेख कीजिए।
या
न्यायपालिका की स्वतन्त्रता और निष्पक्षता सुनिश्चित करने के दो उपाय लिखिए।

उत्तर :

न्यायपालिका की स्वतन्त्रता

न्यायपालिका का कार्यक्षेत्र अत्यन्त विस्तृत है और उसके द्वारा विविध प्रकार के कार्य किये जाते हैं, लेकिन न्यायपालिका इस प्रकार के कार्यों को उसी समय कुशलतापूर्वक सम्पन्न कर सकती है जबकि न्यायपालिका स्वतन्त्र हो। न्यायपालिका की स्वतन्त्रता से हमारा आशय यह है कि न्यायपालिका को कानूनों की व्याख्या करने और न्याय प्रदान करने के सम्बन्ध में स्वतन्त्र रूप से अपने विवेक का प्रयोग करना चाहिए और उन्हें कर्तव्यपालन में किसी से अनुचित तौर पर प्रभावित नहीं होना चाहिए। सीधे-सादे शब्दों में इसका आशय यह है कि न्यायपालिका, व्यवस्थापिका और कार्यपालिका किसी राजनीतिक दल, किसी वर्ग विशेष और अन्य सभी दबावों से मुक्त रहते हुए अपने कर्तव्यों का पालन करे।

न्यायपालिका की स्वतन्त्रता सुनिश्चित करने के दो उपाय निम्नलिखित हैं –

1. न्यायाधीश की योग्यता – न्यायाधीशों का पद केवल ऐसे ही व्यक्तियों को दिया जाए जिनकी व्यावसायिक कुशलता और निष्पक्षता सर्वमान्य हो। राज्य व्यवस्था के संचालन में न्यायाधिकारी वर्ग का बहुत अधिक महत्त्व होता है और अयोग्य न्यायाधीश इस महत्त्व को नष्ट कर देंगे।

2. कार्यपालिका और न्यायपालिका का पृथक्करण – न्यायपालिका की स्वतन्त्रता के लिए आवश्यक है कि कार्यपालिका और न्यायपालिका को एक-दूसरे से पृथक् रखा जाना चाहिए। एक ही व्यक्ति के सत्ता अभियोक्ता और साथ-ही-साथ न्यायाधीश होने पर स्वतन्त्र न्याय की आशा नहीं की जा सकती है।

प्रश्न 3.

न्यायपालिका के दो कार्यों का उल्लेख कीजिए तथा स्वतन्त्र न्यायपालिका के पक्ष में दो तर्क प्रस्तुत कीजिए।
या
लोकतन्त्रात्मक शासन में स्वतन्त्र न्यायपालिका की आवश्यकता एवं महत्ता पर प्रकाश डालिए।

उत्तर :

किसी लोकतन्त्रात्मक शासन में एक स्वतन्त्र एवं निष्पक्ष न्यायपालिका सर्वथा अनिवार्य है। इसे आधुनिक और प्रगतिशील संविधानों एवं शासन-व्यवस्था का प्रमुख लक्षण माना जाता है न्यायपालिका की स्वतन्त्रता के महत्त्व को निम्नलिखित रूपों में प्रकट किया जा सकता है –

1. लोकतन्त्र की रक्षा हेतु – लोकतन्त्र के अनिवार्य तत्त्व स्वतन्त्रता और समानता हैं। नागरिकों की स्वतन्त्रता और कानून की दृष्टि से व्यक्तियों की समानता-इन दो उद्देश्यों की प्राप्ति स्वतन्त्र न्यायपालिका द्वारा ही सम्भव है। इस दृष्टि से स्वतन्त्र न्यायपालिका को ‘लोकतन्त्र का प्राण’ कहा जाता है।

2. संविधान की रक्षा हेतु – आधुनिक युग के राज्यों में संविधान की सर्वोच्चता का विचार प्रचलित है। संविधान की रक्षा का दायित्व न्यायपालिका का होता है। न्यायपालिका द्वारा इस दायित्व का भली-भाँति निर्वाह उस समय ही सम्भव है, जब न्यायपालिका स्वतन्त्र और निष्पक्ष हो। स्वतन्त्र न्यायपालिका संविधान की धाराओं की स्पष्ट व्याख्या करती है तथा व्यवस्थापिका एवं कार्यपालिका के उन कार्यों को जो संविधान के विरुद्ध होते हैं, अवैध घोषित कर देती है। इस प्रकार स्वतन्त्र न्यायपालिका संविधान की रक्षा करती है।

3. न्याय की रक्षा हेतु – न्यायपालिका का प्रथम और सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण कार्य न्याय करना है। न्यायपालिका यह कार्य तभी ठीक प्रकार से कर सकती है, जबकि वह निष्पक्ष और स्वतन्त्र हो तथा व्यवस्थापिका और कार्यपालिका के प्रभाव से पूर्ण रूप से मुक्त हो।

4. नागरिक अधिकारों की रक्षा हेतु – न्यायपालिका की स्वतन्त्रता का महत्त्व अन्य कारणों की अपेक्षा नागरिक अधिकारों की रक्षा की दृष्टि से अधिक है। इसके लिए न्यायपालिका को स्वतन्त्र और निष्पक्ष होना अत्यन्त आवश्यक है।

न्यायपालिका के दो कार्य – न्यायपालिका के दो कार्य निम्नलिखित हैं –

1. कानूनों की व्याख्या करना – कानूनों की भाषा सदैव स्पष्ट नहीं होती है और अनेक बार कानूनों की भाषा के सम्बन्ध में अनेक प्रकार के विवाद उत्पन्न हो जाते हैं। इस प्रकार की प्रत्येक परिस्थिति में कानूनों की अधिकारपूर्ण व्याख्या करने का कार्य न्यायपालिका ही करती है। न्यायालयों द्वारा की गयी इस प्रकार की व्याख्याओं की स्थिति कानून के समान ही होती है।

2. लेख जारी करना – सामान्य नागरिकों या सरकारी अधिकारियों के द्वारा जब अनुचित या अपने अधिकार-क्षेत्र के बाहर कोई कार्य किया जाता है तो न्यायालये उन्हें ऐसा करने से रोकने के लिए विविध प्रकार के लेख जारी करता है। इस प्रकार के लेखों में बन्दी प्रत्यक्षीकरण, परमादेश और प्रतिषेध आदि लेख प्रमुख हैं।

प्रश्न 4.

“सर्वोच्च न्यायालय संविधान का रक्षक ही नहीं बल्कि उसे न्यायिक पुनरवलोकन की शक्ति भी प्राप्त है।” इस कथन की पुष्टि कीजिए।

उत्तर :

सर्वोच्च न्यायालय संविधान की पवित्रता की रक्षा भी करता है। यदि संसद संविधान का अतिक्रमण करके कोई कानून बनाती है तो उच्चतम न्यायालय उस कानून को अवैध घोषित कर सकता है। संक्षेप में, सर्वोच्च न्यायालय को अधिकार है कि वह संघ सरकार अथवा राज्य सरकार के उन कानूनों को अवैध घोषित कर सकता है, जो संविधान के विपरीत हों। इसी प्रकार वह संघ सरकार अथवा राज्य सरकार के संविधान का अतिक्रमण करने वाले आदेशों को भी अवैध घोषित कर सकता है। सर्वोच्च न्यायालय संविधान की व्याख्या करने वाला (Interpreter) अन्तिम न्यायालय है। संक्षेप में, कहा जा सकता है कि सर्वोच्च न्यायालय को न्यायिक पुनरवलोकन (Judicial Review) का अधिकार है, क्योंकि इसे कानूनों की वैधानिकता के परीक्षण की शक्ति प्राप्त है। इस शक्ति के आधार पर न्यायपालिका ने सम्पत्ति के अधिकार का अतिक्रमण करने वाले अनेक कानूनों को गोलकनाथ केस, सज्जनसिंह केस तथा केशवानन्द भारती केस में अवैध घोषित किया है।

प्रश्न 5.

स्वतन्त्र न्यायपालिका के महत्त्व पर प्रकाश डालिए।

लोकतन्त्र में न्यायपालिका को महत्त्व इंगित कीजिए।

उत्तर :

स्वतन्त्र न्यायपालिका का महत्त्व अथवा लाभ

न्यायपालिका अपने विविध कार्यों को उसी समय कुशलतापूर्वक सम्पन्न कर सकती है, जब वह स्वतन्त्र रूप से कार्य करे। स्वतन्त्र न्यायपालिका का महत्त्व निम्नलिखित तथ्यों के आधार पर स्पष्ट होता है –

1. नागरिकों की स्वतन्त्रता एवं अधिकारों की रक्षा – स्वतन्त्र न्यायपालिका ही ागरिकों की स्वतन्त्रता और मौलिक अधिकारों की रक्षा कर सकती है। चान्सलर कैण्ट के अनुसार, “जहाँ कानूनों की व्याख्या करने, उन्हें लागू करने तथा अधिकारों को अमल में लाने के लिए कोई न्याय विभाग न हो, वहाँ स्वयं अपनी शक्तिहीनता के कारण शासन का विनाश हो जाएगा अथवा शासन के दूसरे विभाग के आदेशों का पालन करने के लिए उस पर अपना प्रभुत्व स्थापित कर नागरिक स्वतन्त्रता का सर्वनाश कर देंगे।”

2. निष्पक्ष न्याय की प्राप्ति – निष्पक्ष न्याय की प्राप्ति कराना न्यायपालिका का सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण कार्य है। न्यायपालिका को अपने इस महत्त्वपूर्ण कार्य के सम्पादन के लिए स्वतन्त्र होना आवश्यक है। उसके कार्यों में व्यवस्थापिका एवं कार्यपालिका को कोई हस्तक्षेप नहीं होना चाहिए।

3. लोकतंत्र की सुरक्षा – लोकतन्त्र की सफलता के लिए स्वतन्त्र न्यायपालिका का होना अनिवार्य है। लोकतन्त्र के अनिवार्य तत्त्व स्वतन्त्रता और समानती हैं। अतः नागरिकों को स्वतन्त्रता और समानता के अवसर उसी समय प्राप्त हो सकेंगे, जब न्यायपालिका निष्पक्षता के साथ अपने कार्य का सम्पादन करेगी।

4. संविधान की सुरक्षा – स्वतन्त्र न्यायपालिका संविधान की रक्षक होती है। न्यायपालिका संविधान-विरोधी कानूनों को अवैध घोषित करके रद्द कर देती है। अतः संविधान के स्थायित्व एवं सुरक्षा के लिए स्वतन्त्र न्यायपालिका का होना आवश्यक है।

5. व्यवस्थापिका और कार्यपालिका पर नियंत्रण – स्वतन्त्र न्यायपालिको व्यवस्थापिका और कार्यपालिका पर नियंत्रण रखकर शासन की कार्यकुशलता में वृद्धि करती है।

उपर्युक्त विवेचन के आधार पर यह स्पष्ट होता है कि स्वतन्त्र न्यायपालिका का प्रत्येक देश की शासन-प्रणाली में बहुत अधिक महत्त्व है। लोकतन्त्रात्मक शासन के लिए तो स्वतन्त्र न्यायपालिका का होना अति आवश्यक है। वस्तुत: स्वतन्त्र न्यायपालिका के बिना एक सभ्य राज्य की कल्पना नहीं की जा सकती है।

प्रश्न 6.

उच्चतम न्यायालय की कार्यविधि के सम्बन्ध में संविधान में क्या व्यवस्था की गई है?

उत्तर :

उच्चतम न्यायालय की कार्यविधि

उच्चतम न्यायालय की कार्यविधि के सम्बन्ध में संविधान में कुछ व्यवस्थाएँ की गई हैं। इस सम्बन्ध में नियम बनाने का अधिकार संविधान द्वारा संसद को दिया गया है और जिन बातों पर संविधान और संसद ने कोई व्यवस्था न की हो, ऐसी बातों पर स्वयं न्यायालय की अनुमति से कानून बन सकता है। उच्चतम न्यायालय की कार्यविधि के सम्बन्ध में निम्नलिखित व्यवस्थाएँ की गई हैं –

(1) जिन विषयों का सम्बन्ध संविधान की व्याख्या के साथ हो या जिनमें कोई संवैधानिक प्रश्न उपस्थित होता हो यो कानून के अर्थ को समझाने की आवश्यकता हो या जिन विषयों पर विचार करने का कार्य राष्ट्रपति द्वारा उच्चतम न्यायालय को सौंपा गया हो उनकी सुनवाई उच्चतम न्यायालय के कम-से-कम 5 न्यायाधीशों द्वारा की जाएगी।

(2) उच्चतम न्यायालय के सम्मुख किसी ऐसे मुकदमे की अपील भी पेश की जा सकती है जिसकी सुनवाई के पश्चात् यह अनुभव किया जाए कि उसमें संविधान की व्याख्या करना अनिवार्य है। या कानून के अभिप्राय को तात्त्विक रूप से प्रकट करना होगा। इसी प्रकार के मुकदमे आरम्भ में 5 से कम न्यायाधीशों के सम्मुख प्रस्तुत किए जा सकते हैं। परन्तु यदि यह स्पष्ट हो जाए कि उसमें संविधान की व्याख्या का स्पष्टीकरण होना आवश्यक है तो उसको भी कम-से-कम 5 न्यायाधीशों के सम्मुख उपस्थित किया जाएगा और उसकी व्याख्या के अनुसार उसका निर्णय किया जाएगा।

(3) उच्चतम न्यायालय के सभी निर्णय खुले तौर पर सम्पन्न होते हैं।

(4) उच्चतम न्यायालय के निर्णय बहुमत के आधार पर होंगे। परन्तु यदि निर्णय से कोई न्यायाधीश सहमत नहीं है तो वह अपना पृथक् निर्णय दे सकती है परन्तु बहुमत से हुआ निर्णय ही मान्य समझा जाएगा।

प्रश्न 7.

सर्वोच्च न्यायालय के द्वारा न्यायिक पुनरवलोकन का संचालन किस प्रकार किया जाता है?

उत्तर :

न्यायिक पुनरवलोकन का संचालन

न्यायिक पुनरवलोकन का तात्पर्य न्यायालय द्वारा कानूनों तथा प्रशासकीय नीतियों की संवैधानिकता की जाँच तथा ऐसे कानूनों एवं नीतियों को असंवैधानिक घोषित करना है जो संविधान के किसी अनुच्छेद पर अतिक्रमण करती है।

भारत में भी सर्वोच्च न्यायालय को अमेरिका के सर्वोच्च न्यायालय के समान ही न्यायिक पुनरवलोकन की शक्ति प्रदान की गई है। भारत में भी संविधान को सर्वोच्च कानून घोषित किया गया है। अतः न्यायपालिका का यह अधिकार है कि वह संसद अथवा विधानमण्डलों द्वारा निर्मित ऐसे कानूनों को अवैध घोषित कर दे जो संविधान की धाराओं का अतिक्रमण करते हों। भारत का सर्वोच्च न्यायालय इस शक्ति का प्रयोग ‘कानून द्वारा स्थापित प्रक्रिया’ (Procedure established by law) के आधार पर करता है जबकि अमेरिका का सर्वोच्च न्यायालय ‘कानून की उचित प्रक्रिया’ (Due process of the law) के आधार पर न्यायिक पुनरवलोकन की शक्ति का प्रयोग करता है। भारत का सर्वोच्च न्यायालय यह निश्चित करने में भी कोई कानून संवैधानिक शक्ति है अथवा नहीं, प्राकृतिक न्यायालय के सिद्धान्तों को या उचित-अनुचित की अपनी धारणाओं को लागू नहीं कर सकता है।

भारत के उच्चतम न्यायालय ने पिछले अनेक वर्षों में ऐसे महत्त्वपूर्ण निर्णय दिए हैं जिनमें न्यायिक पुनरवलोकन के अधिकार का प्रयोग किया गया है। जैसे—गोलकनाथ बनाम मद्रास राज्य के मुकदमे में निवारक निरोध अधिनियम के 14वें खण्ड को असंवैधानिक घोषित किया गया है। स्वर्ण नियंत्रण अधिनियम, पाकिस्तानी शरणार्थियों के भारत आगमन पर रोक लगाने सम्बन्धी अधिनियम, बैंक राष्ट्रीयकरण अधिनियम तथा अखबारी कागज सम्बन्धी नीति आदि।

दीर्घ उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.

न्यायपालिका के कार्यों का वर्णन कीजिए।
या
“आधुनिक काल में न्यायपालिका के कार्यों में अपेक्षाकृत अधिक वृद्धि हो गई है। इस कथन के आलोक में न्यायपालिका के कार्यों का वर्णन कीजिए।
या
आधुनिक राजनीतिक व्यवस्था में न्यायपालिका के कार्यों की समीक्षा कीजिए।
या
न्यायपालिका की स्वतन्त्रता क्यों आवश्यक है? इसकी स्वतन्त्रता बनाए रखने के लिए क्या उपाय किए जाने चाहिए?
या
आधुनिक राज्य में न्यायपालिका के कार्यों एवं उसकी बढ़ती हुई महत्ता की व्याख्या कीजिए। न्यायपालिका की स्वतन्त्रता को बनाए रखने हेतु क्या व्यवस्था की जानी चाहिए?
या
आधुनिक लोकतान्त्रिक राज्यों में न्यायपालिका के कार्यों तथा स्वतन्त्र न्यायपालिका के महत्त्व का वर्णन कीजिए।

उत्तर :

न्यायपालिका के कार्य

आधुनिक लोकतन्त्रात्मक प्रणाली में न्यायपालिका को मुख्यत: निम्नलिखित कार्य करने पड़ते हैं –

1. न्याय करना – न्यायपालिका का मुख्य कार्य न्याय करना है। कार्यपालिका कानून का उल्लंघन करने वाले व्यक्ति को पकड़कर न्यायपालिका के समक्ष प्रस्तुत करती है। न्यायपालिका उन समस्त मुकदमों को सुनती है जो उसके सामने आते हैं तथा उन पर अपना न्यायपूर्ण निर्णय देती

2. कानूनों की व्याख्या करना – न्यायपालिका विधानमण्डल में बनाये हुए कानूनों की व्याख्या के साथ-साथ उन कानूनों की व्याख्या भी करती है जो स्पष्ट नहीं होते। न्यायपालिका के द्वारा की गयी कानून की व्याख्या अन्तिम होती है और कोई भी व्यक्ति उस व्याख्या को मानने से इंकार नहीं कर सकता।

3. कानूनों का निर्माण – साधारणतया कानून-निर्माण का कार्य विधानमण्डल करता है, परन्तु कई दशाओं में न्यायपालिका भी कानूनों का निर्माण करती है। कानून की व्याख्या करते समय न्यायाधीश कानून के कई नये अर्थों को जन्म देते हैं, जिससे कानूनों का स्वरूप ही बदल जाता है और एक नये कानून का निर्माण हो जाता है। कई बार न्यायपालिका के सामने ऐसे मुकदमे भी आते हैं, जहाँ उपलब्ध कानूनों के आधार पर निर्णय नहीं किया जा सकता। ऐसे समय पर न्यायाधीश न्याय के नियमों, निष्पक्षता तथा ईमानदारी के आधार पर निर्णय करते हैं। यही निर्णय भविष्य में कानून बन जाते हैं।

4. संविधान का संरक्षण – संविधान की सर्वोच्चता को बनाये रखने का उत्तरदायित्व न्यायपालिका पर होता है। यदि व्यवस्थापिका कोई ऐसा कानून बनाये, जो संविधान की धाराओं के विरुद्ध हो तो न्यायपालिका उस कानून को असंवैधानिक घोषित कर सकती है। न्यायपालिका की इसे शक्ति को न्यायिक पुनरवलोकन (Judicial Review) का नाम दिया गया है संविधान की व्याख्या करने का अधिकार भी न्यायपालिका को प्राप्त होता है। इसी प्रकार न्यायपालिका संविधान के संरक्षक के रूप में कार्य करती है।

5. संघ का संरक्षण – जिन देशों ने संघात्मक शासन-प्रणाली को अपनाया है, वहाँ न्यायपालिका संघ के संरक्षक के रूप में भी कार्य करती है। संघात्मक शासन-प्रणाली में कई बार केन्द्र तथा राज्यों के मध्य विभिन्न प्रकार के मतभेद उत्पन्न हो जाते हैं, इनका निर्णय न्यायपालिका द्वारा ही किया जाता है। न्यायपालिका का यह कार्य है कि वह इस बात का ध्यान रखे कि केन्द्र राज्यों के कार्य में हस्तक्षेप न करे और न ही राज्य केन्द्र के कार्यों में।

6. नागरिक अधिकारों का संरक्षण – लोकतन्त्र को जीवित रखने के लिए नागरिकों की स्वतन्त्रता और अधिकारों की सुरक्षा अत्यन्त आवश्यक है। यदि इनकी सुरक्षा नहीं की जाती तो कार्यपालिका निरंकुश और तानाशाह बन सकती है। नागरिकों की स्वतन्त्रता तथा अधिकारों की सुरक्षा न्यायपालिका द्वारा की जाती है। अनेक राज्यों में नागरिकों के मौलिक अधिकारों की व्यवस्था का संविधान में उल्लेख कर दिया गया है जिससे उन्हें संविधान और न्यायपालिका का संरक्षण प्राप्त हो सके। इस प्रकार न्यायपालिका का विशेष उत्तरदायित्व होता है कि वह सदैव यह दृष्टि में रखे कि सरकार का कोई अंग इन अधिकारों का अतिक्रमण न कर सके।

7. परामर्श देना – कई देशों में न्यायपालिका कानून सम्बन्धी परामर्श भी देती है। भारत में राष्ट्रपति किसी भी विषय पर उच्चतम न्यायालय से परामर्श ले सकता है, परन्तु इस सलाह को मानना या न मानना राष्ट्रपति पर निर्भर है।

8. प्रशासनिक कार्य – कई देशों में न्यायालयों को प्रशासनिक कार्य भी करने पड़ते हैं। भारत में उच्चतम न्यायालय, उच्च न्यायालय तथा अधीनस्थ न्यायालयों पर प्रशासकीय नियंत्रण रहता है।

9. आज्ञा-पत्र जारी करना – न्यायपालिका जनता को आदेश दे सकती है कि वे अमुक कार्य नहीं कर सकते और यह किसी कार्य को करवा भी सकती है। यदि वे कार्य न किये जाएँ तो न्यायालय बिना अभियोग चलाये दण्ड दे सकता है अथवा मानहानि का अभियोग लगाकर जुर्माना आदि भी कर सकता है।

10. कोर्ट ऑफ रिकॉर्ड के कार्य – न्यायपालिका कोर्ट ऑफ रिकॉर्ड को भी कार्य करती है, जिसका अर्थ है कि न्यायपालिका को भी सभी मुकदमों के निर्णयों तथा सरकार को दिये गये परामर्शो का रिकॉर्ड भी रखना पड़ता है। इन निर्णयों तथा परामर्शो की प्रतियाँ किसी भी समय, प्राप्त की जा सकती हैं।

न्यायपालिका का महत्त्व

व्यक्ति एक विचारशील प्राणी है और इसके साथ-साथ प्रत्येक व्यक्ति के अपने कुछ विशेष स्वार्थ भी होते हैं। व्यक्ति के विचारों और उसके स्वार्थों में इस प्रकार के भेद होने के कारण उनमें परस्पर संघर्ष नितान्त स्वाभाविक है। इसके अतिरिक्त शासन-कार्य करते हुए शासक वर्ग अपनी शक्तियों का दुरुपयोग कर सकता है। ऐसी स्थिति में सदैव ही एक ऐसी सत्ता की आवश्यकता रहती है जो व्यक्तियों के पारस्परिक विवादों को हल कर सके और शासक वर्ग को अपनी सीमाओं में रहने के लिए बाध्य कर सके। इन कार्यों को करने वाली सत्ता का नाम ही न्यायपालिका है।

राज्य के आदिकाल से लेकर आज तक किसी-न-किसी रूप में न्याय विभाग का अस्तित्व सदैव ही रहा है और सामान्य जनता के दृष्टिकोण से न्यायिक कार्य का सम्पादन सर्वाधिक महत्त्व रखता है। राज्य में व्यवस्थापिका और कार्यपालिका की व्यवस्था चाहे कितनी ही पूर्ण और श्रेष्ठ क्यों न हो, परन्तु यदि न्याय करने में पक्षपात किया जाता है, अनावश्यक व्यय और विलम्ब होता है या न्याय विभाग में अन्य किसी प्रकार का दोष है तो जनजीवन नितान्त दु:खपूर्ण हो जाएगा। न्याय विभाग के सम्बन्ध में बाइस ने अपनी श्रेष्ठ शब्दावली में कहा है, “न्याय विभाग की कुशलता से बढ़कर सरकार की उत्तमता की दूसरी कोई भी कसौटी नहीं है, क्योंकि किसी और चीज से नागरिक की सुरक्षा और हितों पर इतना प्रभाव नहीं पड़ता है, जितना कि उसके इस ज्ञान से कि वह एक निश्चित, शीघ्र व अपक्षपाती न्याय शासन पर निर्भर रह सकता है। वर्तमान समय में तो न्यायपालिका का महत्त्व बहुत अधिक बढ़ गया है, क्योंकि अभियोगों के निर्णय के साथ-साथ न्यायपालिका संविधान की व्याख्या और रक्षा का कार्य भी करती है।

न्यायपालिका की स्वतन्त्रता बनाये रखने हेतु उपाय

स्वतन्त्र न्यायपालिका उत्तम शासन की कसौटी है। इसलिए यह आवश्यक है कि न्यायपालिका का संगठन और कार्यविधि ऐसी हो जिससे वह बिना किसी भय और दबाव के स्वतन्त्रतापूर्वक कार्य कर सके। स्वतन्त्र न्यायपालिका बनाये रखने के लिए निम्नलिखित व्यवस्था होनी चाहिए –

1. न्यायाधीशों की नियुक्ति और कार्यकाल – अधिकांश देशों में न्यायाधीशों की नियुक्ति और उनके कार्यकाल का निर्धारण कार्यपालिका के द्वारा किया जाता है। नियुक्ति का आधार योग्यता और प्रतिभा को बनाया जाता है।

2. न्यायाधीशों का वेतन – न्यायाधीशों को वेतन के रूप में अच्छी धनराशि मिलनी चाहिए। उचित वेतन होने पर ही वे निष्पक्षता और ईमानदारी से काम कर पाएँगे।

3. न्यायाधीशों की पदोन्नति – न्यायाधीशों की पदोन्नति के भी निश्चित नियम होने चाहिए। योग्यता और वरिष्ठता के आधार पर ही न्यायाधीशों की पदोन्नति होनी चाहिए। पदोन्नति का अधिकार नियुक्त करने वाली संस्था या कार्यपालिका को न होकर उच्चतम न्यायालय को होना चाहिए।

4. न्यायाधीशों को हटाना – न्यायाधीशों को उनके पद से हटाने के लिए भी एक निश्चित प्रक्रिया अपनायी जानी चाहिए। न्यायाधीशों को भ्रष्ट या अयोग्य होने पर ही उनके पद से हटाया जाना। चाहिए।

5. न्याय तथा शासन सम्बन्धी कार्यों का विभाजन – न्यायपालिका की स्वतन्त्रता के लिए यह भी अनिवार्य है कि शासन तथा न्याय विभाग दोनों के कार्यक्षेत्र अलग-अलग हों। यदि कार्यपालिका और न्यायपालिका पृथक् नहीं हैं तो न्यायाधीश अपने प्रशासनिक उत्तरदायित्व को पूरा करने के लिए अपनी न्यायिक शक्तियों का दुरुपयोग कर सकते हैं।

6. न्यायाधीशों को सेवानिवृत्ति के बाद सरकारी पद देने से अलग रखा जाना – सेवानिवृत्त होने के बाद किसी भी न्यायाधीश को अन्य किसी सरकारी पद पर नियुक्त नहीं किया जाना चाहिए।

7. न्यायाधीशों के निर्णयों, कार्यों और चरित्र की अनुचित आलोचना पर प्रतिबन्ध – न्यायपालिका की स्वतन्त्रता के लिए यह भी आवश्यक है कि न्यायाधीशों के कार्यकाल में कोई भी उनके वैयक्तिक चरित्र अथवा कार्यों पर टिप्पणी न करे और उनके निर्णयों की आलोचना न करे।

प्रश्न 2.

न्यायाधीशों की नियुक्ति के विषय में आप क्या जानते हैं?
या
उच्चतम न्यायालय के गठन पर प्रकाश डालिए।

उत्तर :

भारत का उच्चतम न्यायालय राजधानी दिल्ली में स्थित है। उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीशों की संख्या, उच्चतम न्यायालय का क्षेत्राधिकार, न्यायाधीशों के वेतन तथा सेवा-शर्तों को निश्चित करने का अधिकार संसद को प्रदान किया गया है। अब उच्चतम न्यायालय में एक मुख्य न्यायाधीश तथा 30 अन्य न्यायाधीश हैं। उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीशों की नियुक्ति भारत का राष्ट्रपति करता है। भारत के मुख्य न्यायाधीश की नियुक्ति के सम्बन्ध में राष्ट्रपति उच्चतम न्यायालय अथवा उच्च न्यायालयों के ऐसे अन्य न्यायाधीशों से परामर्श लेता है, जिनसे वह इस सम्बन्ध में परामर्श लेना आवश्यक समझता है। अन्य न्यायाधीशों की नियुक्ति के सम्बन्ध में जुलाई 1998 ई० को राष्ट्रपति द्वारा उच्चतम न्यायालय में भेजे गए स्पष्टीकरण प्रस्ताव पर विचार करते हुए नौ-सदस्यीय खण्डपीठ ने सर्वसम्मति से निर्णय देते हुए स्पष्ट किया है कि उच्चतम न्यायालय में किसी न्यायाधीश की नियुक्ति तथा उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश अथवा किसी न्यायाधीश के स्थानान्तरण के विषय में अपनी संस्तुतियाँ प्रेषित करने से पूर्व उच्चतम न्यायालय के चार वरिष्ठतम न्यायाधीशों तथा उच्च न्यायालय में नियुक्ति करने से पूर्व दो, वरिष्ठतम न्यायाधीशों से परामर्श किया जाना आवश्यक है। यदि दो न्यायाधीश भी विपरीत राय देते हैं। तो मुख्य न्यायाधीश द्वारा सरकार को अपनी सिफारिश नहीं भेजनी चाहिए।

तदर्थ नियुक्तियाँ (ad hoc Appointments) – संविधान के अनुच्छेद 127 के अनुसार, मुख्य न्यायाधीश राष्ट्रपति की पूर्व स्वीकृति से तदर्थ नियुक्तियाँ भी कर सकता है। ऐसे न्यायाधीशों की नियुक्तियाँ किसी विशेष उद्देश्य की पूर्ति हेतु की जाती हैं।

1. न्यायाधीशों की योग्यताएँ – उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीश के लिए निम्नलिखित योग्यताएँ होनी आवश्यक हैं –
(क) वह भारतीय नागरिक हो।
(ख) वह किसी उच्च न्यायालय में कम-से-कम पाँच वर्ष तक न्यायाधीश रह चुका हो,
अथवा 10 वर्ष तक अधिवक्ता रहा हो,
अथवा राष्ट्रपति की दृष्टि में लब्धप्रतिष्ठ विधिवेत्ता हो।

2. न्यायाधीशों का कार्यकाल तथा पदच्युति – उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीश 65 वर्ष की आयु तक अपने पद पर कार्यरत रह सकते हैं। 65 वर्ष की आयु समाप्ति पर उन्हें सेवानिवृत्त कर दिया जाता है। यदि कोई न्यायाधीश चाहे तो इससे पूर्व भी राष्ट्रपति को त्यागपत्र देकर अपने पदभार से मुक्त हो सकता है। इसके अतिरिक्त उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीश को सिद्ध कदाचार या असमर्थता के आधार पर राष्ट्रपति के आदेश द्वारा उसके पद से हटाया जा सकता है। उच्चतम न्यायालय के किसी न्यायाधीश को उसके पद से हटाने के लिए समावेदन प्रत्येक सदन की कुल सदस्य संख्या के बहुमत द्वारा तथा सदन में उपस्थित और मतदान करने वाले सदस्यों के कम-से-कम दो-तिहाई बहुमत द्वारा समर्थित होना चाहिए। इसके बाद वह समावेदन राष्ट्रपति के समक्ष रखा जाएगा और उसके आदेश देने पर अमुक न्यायाधीश को उसके पद से हटा दिया जाएगा। लेकिन ऐसा समावेदन संसद के एक ही सत्र में प्रस्तावित और स्वीकृत होना चाहिए। इसी प्रक्रिया के आधार पर उच्चतम न्यायालय के न्यायमूर्ति रामास्वामी को हटाने का प्रयास संसद द्वारा किया गया था, परन्तु न्यायमूर्ति रामास्वामी ने आरोप सिद्ध होने से पूर्व ही अपना पद-त्याग कर दिया।

3. न्यायाधीशों के वेतन – 1998 ई० के एक अधिनियम द्वारा उच्चतम न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश को ₹ 1 लाख प्रतिमाह और अन्य न्यायाधीशों को ₹ 90,000 प्रतिमाह वेतन निर्धारित किया गया है तथा इसके साथ-साथ उन्हें नि:शुल्क आवास, सवेतन छुट्टियाँ तथा सेवानिवृत्ति प्राप्त करने पर पेंशन आदि की व्यवस्था की गई है।

प्रश्न 3.

भारत के उच्चतम न्यायालय की संरचना का उल्लेख कीजिए। उसे संविधान का संरक्षक क्यों कहा जाता है?
या
“भारत के सर्वोच्च न्यायालय को संविधान का संरक्षक व नागरिकों के मूलाधिकारों का रक्षक कहा जाता है।” व्याख्या कीजिए।
या
भारत के सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीशों की नियुक्ति कैसे होती है?
या
सर्वोच्च न्यायालय के संगठन का वर्णन कीजिए। उसको ‘संविधान का रक्षक’ एवं ‘नागरिकों के मूल अधिकारों का रक्षक’ क्यों कहा जाता है ?
या
उच्चतम न्यायालय का संगठन समझाइए। उसके महत्त्व को भी समझाइए।
या
भारत के उच्चतम न्यायालय के गठन व उसके कार्यों को संक्षेप में वर्णन कीजिए।
या
भारत के उच्चतम न्यायालय के संगठन तथा क्षेत्राधिकार का वर्णन कीजिए।
या
न्यायालय की स्वतन्त्रता का संरक्षण किस प्रकार किया जाता है?

उत्तर :

सर्वोच्च न्यायालय की आवश्यकता (महत्त्व)

भारतीय संविधान-निर्माताओं के समक्ष यह एक महत्त्वपूर्ण प्रश्न था कि भारत में संविधान व लोकतन्त्र की रक्षा का दायित्व किसे सौंपा जाए? गम्भीर विचार-विमर्श के पश्चात् संविधान निर्माताओं ने भारत । संघ में लोकतन्त्र, नागरिकों के अधिकार व संविधान की रक्षा का दायित्व एक स्वतन्त्र व निष्पक्ष न्यायपालिका को सौंपा। भारत में न्याय-व्यवस्था के शिखर पर सर्वोच्च न्यायालय का गठन किया गया है। श्री वी० एस० देशपाण्डे के शब्दों में, “भारत में संविधान व लोकतन्त्र की रक्षा का दायित्व सर्वोच्च न्यायालय को ही है। स्वतन्त्र भारत में सर्वोच्च न्यायालय का कार्यकरण बहुत गौरवमय रहा है। तथा आम जनता में व्यक्ति के संवैधानिक अधिकारों तथा स्वाधीनता के प्रहरी के रूप में उसके प्रति अटूट श्रद्धा-विश्वास है।”

भारत की संघीय लोकतान्त्रिक व्यवस्था के अन्तर्गत न्यायालय की आवश्यकता अथवा महत्त्व को निम्नलिखित तर्को द्वारा प्रमाणित किया जा सकता है –

1. संघात्मक शासन के लिए अनिवार्य – संघीय शासन-व्यवस्था के अन्तर्गत केन्द्र व राज्यों के मध्य शक्तियों का पृथक्करण पाया जाता है। ऐसी स्थिति में अपने-अपने अधिकार-क्षेत्र को लेकर केन्द्र व राज्यों में विवाद की सम्भावनाएँ बढ़ जाती हैं। अत: केन्द्र व राज्यों के मध्य उत्पन्न किसी भी विवाद के निराकरण हेतु एक स्वतन्त्र व निष्पक्ष शक्ति का होना अनिवार्य होता है। भारत में इसी उद्देश्य को दृष्टि में रखते हुए एक स्वतन्त्र व निष्पक्ष सर्वोच्च न्यायालय की स्थापना की गयी है। जी० एन० जोशी ने संघीय व्यवस्था में निष्पक्ष व स्वतन्त्र न्यायपालिका की आवश्यकता पर बल देते हुए कहा है, “संघात्मक शासन में कई सरकारों का समन्वय होने के कारण संघर्ष अवश्यम्भावी है। अतः संघीय नीति का यह आवश्यक गुण है कि देश में एक ऐसी न्यायिक व्यवस्था हो, जो संघीय कार्यपालिका एवं व्यवस्थापिका तथा इकाइयों की सरकारों से स्वतन्त्र हो।”

2. संविधान का रक्षक – भारत में एक लिखित और कठोर संविधान को अपनाया गया है और इसके साथ ही संविधान की सर्वोच्चता के सिद्धान्त को मान्यता प्रदान की गयी है। संविधान की सर्वोच्चता को बनाये रखने का कार्य सर्वोच्च न्यायालय के द्वारा ही किया जाता है। सर्वोच्च न्यायालय के द्वारा संविधान के रक्षक और संविधान के आधिकारिक व्याख्याता के रूप में कार्य किया जाता है। वह संसद द्वारा निर्मित ऐसी प्रत्येक विधि को अवैध घोषित कर सकता है जो संविधान के विरुद्ध हो। अपनी इस शक्ति के आधार पर वह संविधान की प्रभुता और सर्वोच्चता की रक्षा करता है। संविधान के सम्बन्ध में किसी प्रकार का विवाद उत्पन्न होने पर संविधान की अधिकारपूर्ण व्याख्या उसी के द्वारा की जाती है। इस प्रकार सर्वोच्च न्यायालय संविधान की रक्षा करता है।

3. परामर्शदात्री संस्था के रूप में – भारत को सर्वोच्च न्यायालय एक परामर्शदात्री संस्था के रूप में भी विशिष्ट दायित्वों का निर्वहन करता है। राष्ट्रपति किसी भी महत्त्वपूर्ण विषय के सम्बन्ध में सर्वोच्च न्यायालय से परामर्श माँग सकता है। इस सम्बन्ध में यह उल्लेखनीय है कि न्यायालय के परामर्श को स्वीकार करने या न करने के लिए राष्ट्रपति पूर्ण स्वतन्त्र होता है।

4. मौलिक अधिकारों का रक्षक – संविधान के अनुच्छेद 32 में वर्णित है कि न्यायालय संविधान द्वारा प्रदत्त नागरिकों के मौलिक अधिकारों का अभिरक्षक है। भारतीय नागरिकों के मौलिक अधिकारों का किसी भी रूप में हनन होने पर व्यक्ति न्यायालय की शरण ले सकता है। इस सम्बन्ध में पायली ने कहा है, “मौलिक अधिकारों का महत्त्व एवं सत्ता समय-समय पर न्यायालयों द्वारा दिये गये निर्णयों से सिद्ध होती है, जिससे कार्यपालिका की निरंकुशता तथा विधानमण्डलों की स्वेच्छाचारिता से नागरिकों की रक्षा होती है।

5. भारत का अन्तिम न्यायालय – भारत की न्यायिक व्यवस्था में सर्वोच्च न्यायालय अन्तिम न्यायालय है। परिणामस्वरूप इसके निर्णय अन्तिम व सर्वमान्य होते हैं। इन निर्णयों में परिवर्तन केवल वह ही कर सकता है।

अन्तत: सर्वोच्च न्यायालय की आवश्यकता व महत्त्व को डॉ० एम० वी० पायली के इस कथन से प्रमाणित किया जा सकता है, “सर्वोच्च न्यायालय संघीय व्यवस्था का एक आवश्यक अंग है। यह संविधान की व्याख्या करने वाला, केन्द्र व राज्यों के मध्य उत्पन्न विवादों का निराकरण करने वाला तथा नागरिकों के अधिकारों की रक्षा करने वाला अन्तिम अभिकरण है।”

सर्वोच्च न्यायालय का गठन

संविधान के द्वारा सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीशों की संख्या, सर्वोच्च न्यायालय का क्षेत्राधिकार, न्यायाधीशों के वेतन या सेवा-शर्ते निश्चित करने का अधिकार संसद को दिया गया था। अनुच्छेद 124 के अनुसार, “भारत का एक उच्चतम न्यायालय होगा, जिसमें एक मुख्य न्यायाधीश तथा सात अन्य न्यायाधीश होंगे।” परन्तु इस सम्बन्ध में संविधान में यह व्यवस्था की गयी है कि संसद विधि के द्वारा न्यायाधीशों की संख्या में वृद्धि कर सकती है। वर्तमान समय में 1985 ई० में पारित विधि के अन्तर्गत संसद द्वारा सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीशों की संख्या 31 कर दी गयी है। वर्तमान समय में सर्वोच्च न्यायालय में 1 मुख्य न्यायाधीश व 30 अन्य न्यायाधीश होते हैं। उच्चतम न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश की नियुक्ति राष्ट्रपति द्वारा उच्चतम न्यायालय तथा उच्च न्यायालयों के न्यायाधीशों के परामर्श से की जाती है तथा अन्य न्यायाधीशों की नियुक्ति राष्ट्रपति द्वारा मुख्य न्यायाधीश के परामर्श से की जाती है।

न्यायाधीशों की योग्यताएँ (मुख्य न्यायाधीश) – संविधान द्वारा उच्चतम न्यायालय का न्यायाधीश बनने के लिए निम्नलिखित योग्यताएँ निर्धारित की गयी हैं –

  1. वह भारत को नागरिक हो।
  2. वह कम-से-कम पाँच वर्ष तक किसी उच्च न्यायालय के न्यायाधीश पद पर कार्य कर चुका हो अथवा वह दस वर्ष तक किसी उच्च न्यायालय में अधिवक्ता रहा हो।
  3. राष्ट्रपति की दृष्टि में विख्यात विधिवेत्ती हो।
  4. उसकी आयु 65 वर्ष से कम हो।

कार्यकाल – उच्चतम न्यायालय का प्रत्येक न्यायाधीश 65 वर्ष की आयु तक अपने पद पर बना रह सकता है। 65 वर्ष की आयु पूर्ण करने के पश्चात् उसे पदमुक्त कर दिया जाता है, परन्तु यदि न्यायाधीश समय से पूर्व पदत्याग करना चाहता है, तो वह राष्ट्रपति को अपना.त्याग-पत्र देकर मुक्त,हो सकता है।

महाभियोग – संवैधानिक प्रावधान के अनुसार दुर्व्यवहार व भ्रष्टाचार के आरोप में लिप्त पाये जाने पर सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीश को संसद द्वारा 2/3 बहुमत से महाभियोग लगाकर, राष्ट्रपति के माध्यम से पदच्युत किया जा सकता है।

शपथ – उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीश पद को ग्रहण करने से पूर्व प्रत्येक न्यायाधीश राष्ट्रपति के समक्ष शपथ लेता है।

वेतन व भत्ते – नवीन वेतनमानों के आधार पर सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश को र 2,80,000 मासिक वेतन व अन्य न्यायाधीशों को 2,50,000 मासिक वेतन की धनराशि देना निश्चित किया गया है। इसके अतिरिक्त न्यायाधीशों के लिए नि:शुल्क आवास व सेवा-निवृत्ति के पश्चात् पेंशन देने की व्यवस्था भी की गयी है। इस सम्बन्ध में यह स्मरणीय है कि न्यायाधीशों को वेतन व भत्ते भारत की संचित निधि में से दिये जाते हैं, जो संसद के अधिकारक्षेत्र से मुक्त होता है। इसके साथ ही न्यायाधीशों के वेतन में उनके कार्यकाल के समय में कोई अलाभकारी परिवर्तन नहीं किया जा सकता। केवल वित्तीय आपात के समय सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीशों के वेतन-भत्ते कम किये जा सकते हैं।

उन्मुक्तियाँ – संविधान द्वारा न्यायाधीशों को प्राप्त उन्मुक्तियाँ निम्नलिखित हैं –

  1. न्यायाधीशों के कार्यों व निर्णयों को आलोचना से मुक्त रखा गया है।
  2. किसी भी निर्णय के सम्बन्ध में न्यायाधीश पर यह आरोप नहीं लगाया जा सकता कि उसने वह निर्णय स्वार्थवश तथा किसी के हित विशेष को ध्यान में रखकर लिया है।
  3. महाभियोग के अतिरिक्त किसी अन्य प्रक्रिया के द्वारा न्यायाधीश के आचरण के विषय में कोई चर्चा नहीं की जा सकती।

वकालत पर रोक – जो व्यक्ति भारत के सर्वोच्च न्यायालय में न्यायाधीश के पद पर आसीन हो जाती है, वह अवकाश ग्रहण करने के पश्चात् भारत के किसी भी न्यायालय में या किसी अन्य अधिकारी के समक्ष वकालत नहीं कर सकता। संविधान द्वारा यह व्यवस्था न्यायाधीशों को अपने कार्यकाल में निष्पक्ष व स्वतन्त्र होकर अपने दायित्वों का निर्वहन करने के उद्देश्य को दृष्टि में रखकर की गयी है।

[संकेत – उच्चतम न्यायालय के कार्य व क्षेत्राधिकार तथा न्यायालय की स्वतन्त्रता का संरक्षण हेतु दीर्घ प्रश्न 4 का अध्ययन करें।]

प्रश्न 4.

उच्चतम न्यायालय को अभिलेख न्यायालय क्यों कहते हैं? उसके क्षेत्राधिकार का वर्णन कीजिए।
या
नागरिकों के मौलिक अधिकारों की रक्षा के लिए उच्चतम न्यायालय तथा उच्च न्यायालय किस प्रकार के लेख (रिट) जारी कर सकते हैं? किन्हीं दो का उदाहरण देते हुए समझाइए।
या
सर्वोच्च न्यायालय के क्षेत्राधिकार का वर्णन कीजिए और यह भी बताइए कि न्यायपालिका की स्वतन्त्रता हेतु संविधान में क्या प्रावधान किए गए हैं?
या
भारत के सर्वोच्च न्यायालय की शक्तियों और अधिकारों का संक्षिप्त विवरण दीजिए।
या
भारत के सर्वोच्च न्यायालय के क्षेत्राधिकार का वर्णन कीजिए।
या
भारतीय सर्वोच्च न्यायालय के कार्य एवं शक्तियों का उल्लेख कीजिए।
या
न्यायपालिका को स्वतन्त्र रखने के लिए संविधान में क्या व्यवस्थाएँ की गयी हैं? संक्षेप में वर्णन कीजिए।
या
सर्वोच्च न्यायालय के प्रारम्भिक तथा अपीलीय क्षेत्राधिकार का संक्षेप में वर्णन कीजिए।
या
सर्वोच्च न्यायालय की स्वतन्त्रता का संरक्षण किस प्रकार किया गया है?

उत्तर :

सर्वोच्च न्यायालय के कार्य और अधिकार

सर्वोच्च न्यायालय भारत का सर्वोपरि न्यायालय है। अतएव उसे अत्यधिक विस्तृत अधिकार प्रदान किये गये हैं। इन अधिकारों को निम्नलिखित सन्दर्भो में समझा जा सकता है –

(1) प्रारम्भिक क्षेत्राधिकार

श्री दुर्गादास बसु ने कहा कि “यद्यपि हमारा संविधान एक सन्धि या समझौते के रूप में नहीं है, फिर भी संघ तथा राज्यों के बीच व्यवस्थापिका तथा कार्यपालिका सम्बन्धी अधिकारों का विभाजन किया गया है। अतः अनुच्छेद 131 संघ तथा राज्य या राज्यों के बीच न्याय-योग्य विवादों के निर्णय का प्रारम्भिक तथा एकमेव क्षेत्राधिकार सर्वोच्च न्यायालय को सौंपता है।”

इस क्षेत्राधिकार को पुनः दो वर्गों में रखा जा सकता है –

(क) प्रारम्भिक एकमेव क्षेत्राधिकार – प्रारम्भिक क्षेत्राधिकार के अन्तर्गत वे अधिकार आते हैं जो उच्चतम न्यायालय के अतिरिक्त किसी अन्य न्यायालय को प्राप्त नहीं हैं। सर्वोच्च न्यायालय कुछ उन विवादों पर विचार करता है जिन पर अन्य न्यायालय विचार नहीं कर सकते हैं। ये विवाद निम्नलिखित प्रकार के होते हैं –

  1. भारत सरकार तथा एक या एक से अधिक राज्यों के बीच विवाद।
  2. वे विवाद जिनमें भारत सरकार तथा एक या एक से अधिक राज्य एक ओर हों और एक या एक से अधिक राज्य दूसरी ओर हों।
  3. दो या दो से अधिक राज्यों के बीच विवाद।

इस सम्बन्ध में यह ध्यान देने योग्य तथ्य है कि 26 जनवरी, 1950 के पूर्व जो सन्धियाँ अथवा संविदाएँ भारत संघ और देशी राज्यों के बीच की गयी थीं और यदि वे इस समय भी लागू हों तो उन पर उत्पन्न विवाद सर्वोच्च न्यायालय के क्षेत्राधिकार के बाहर है।

(ख) प्रारम्भिक समवर्ती क्षेत्राधिकार – भारतीय संविधान में लिखित मूल अधिकारों को लागू करने का अधिकार सर्वोच्च न्यायालय के साथ ही उच्च न्यायालयों को भी प्रदान कर दिया गया है। संविधान के अनुच्छेद 32 द्वारा सर्वोच्च न्यायालय को यह जिम्मेदारी दी गयी है कि वह मौलिक अधिकारों को लागू करने के लिए उचित कार्यवाही करे।

(2) अपीलीय क्षेत्राधिकार

भारत में एकीकृत न्यायिक-प्रणाली अपनाने के कारण राज्यों के उच्च न्यायालय सर्वोच्च न्यायालय के अधीन हैं और इस रूप में उसका इन उच्च न्यायालयों पर अधीक्षण और नियंत्रण स्थापित किया गया है। सर्वोच्च न्यायालय में सभी उच्च न्यायालयों और न्यायाधिकरणों द्वारा, केवल सैनिक न्यायालय को छोड़कर, संवैधानिक, दीवानी और फौजदारी मामलों में दिये गये निर्णयों के विरुद्ध अपील की जा सकती है। सर्वोच्च न्यायालय के अपीलीय क्षेत्राधिकार को निम्नलिखित वर्गों में रखा जा सकता है –

(क) संवैधानिक अपीलें – संवैधानिक मामलों से सम्बन्धित उच्च न्यायालय के विरुद्ध सर्वोच्च न्यायालय में अपील तब की जा सकती है जब कि उच्च न्यायालये यह प्रमाणित कर दे कि इस विवाद में “संविधान की व्याख्या से सम्बन्धित विधि का कोई सारवान प्रश्न सन्निहित है। लेकिन यदि उच्च न्यायालय ऐसा प्रमाण-पत्र देने से इंकार कर देता है तो स्वयं सर्वोच्च न्यायालय संविधान के अनुच्छेद 136 के अन्तर्गत अपील की विशेष आज्ञा दे सकती है, यदि उसे यह विश्वास हो जाए कि उसमें कानून का कोई सारवान प्रश्न सन्निहित है। निर्वाचन आयोग बनाम श्री वेंकटरावे (1953) के मुकदमे में यह प्रश्न उठाया गया था कि क्या किसी संवैधानिक विषय में अनुच्छेद 132 के अधीन किसी अकेले न्यायाधीश के निर्णय की अपील भी सर्वोच्च न्यायालय में की जा सकती है अथवा नहीं। सर्वोच्च न्यायालय ने इसका उत्तर ‘हाँ’ में दिया है।

(ख) दीवानी की अपीलें – संविधान द्वारा दीवानी मामलों में सर्वोच्च न्यायालय द्वारा अपील सुने जाने की व्यवस्था की गयी है। किसी भी राशि का मुकदमा सर्वोच्च न्यायालय के पास आ सकता है, जब उच्च न्यायालय यह प्रमाण-पत्र दे दे कि मुकदमा सर्वोच्च न्यायालय के सुनने योग्य है या उच्च न्यायालय यह प्रमाण-पत्र दे दे कि मुकदमे में कोई कानूनी प्रश्न विवादग्रस्त है। यदि उच्च न्यायालय किसी दीवानी मामले में इस प्रकार का प्रमाण-पत्र न दे तो सर्वोच्च न्यायालय स्वयं भी किसी व्यक्ति को अपील करने की विशेष आज्ञा दे सकता है।

(ग) फौजदारी की अपीलें – फौजदारी के मामले में भी सर्वोच्च न्यायालय, उच्च न्यायालय के निर्णय के विरुद्ध अपील सुन सकता है। ये अपीलें इन दशाओं में की जा सकती हैं –

  1. जब किसी उच्च न्यायालय ने अधीन न्यायालय के दण्ड-मुक्ति के निर्णय को रद्द करके अभियुक्त को मृत्यु-दण्ड दे दिया हो।
  2. जब कोई उच्च न्यायालय यह प्रमाण-पत्र दे दे कि विवाद उच्चतम न्यायालय के सम्मुख प्रस्तुत किये जाने योग्य है।
  3. जब किसी उच्च न्यायालय के किसी मामले को अधीनस्थ न्यायालय से मँगाकर अभियुक्त को मृत्यु-दण्ड दिया हो।
  4. यदि सर्वोच्च न्यायालय किसी मुकदमे में यह अनुभव करता है कि किसी व्यक्ति के साथ वास्तव में अन्याय हुआ है, तो वह सैनिक न्यायालयों के अतिरिक्त किसी भी न्यायाधिकरण के विरुद्ध अपील करने की विशेष आज्ञा प्रदान कर सकता है।

(घ) विशिष्ट अपील – अनुच्छेद 136 द्वारा सर्वोच्च न्यायालय को यह भी अधिकार प्रदान किया गया है कि वह अपने विवेक से प्रभावित पक्ष को अपील का अधिकार प्रदान करे। किसी सैनिक न्यायाधिकरण के निर्णय को छोड़कर सर्वोच्च न्यायालय भारत के किसी भी उच्च न्यायालये या न्यायाधिकरण के निर्णय दण्ड या आदेश के विरुद्ध अपील की विशेष आज्ञा प्रदान कर सकता है, चाहे भले ही उच्च न्यायालय ने अपील की आज्ञा से इंकार ही क्यों न किया हो।

अपीलीय क्षेत्राधिकार के दृष्टिकोण से भारत का सर्वोच्च न्यायालय विश्व में सबसे अधिक शक्तिशाली है। सर्वोच्च न्यायालय के अपीलीय क्षेत्राधिकार को लक्ष्य करते हुए ही 1950 ई० को सर्वोच्च न्यायालय के उद्घाटन के अवसर पर भाषण देते हुए श्री एम० सी० सीतलवाड़ ने कहा था कि “यह कहना सत्य होगा कि स्वरूप व विस्तार की दृष्टि से इस न्यायालय का क्षेत्राधिकार और शक्तियाँ राष्ट्रमण्डल के किसी भी देश के सर्वोच्च न्यायालय तथा संयुक्त राज्य अमेरिका के सर्वोच्च न्यायालय के कार्यक्षेत्र तथा शक्तियों से व्यापक हैं।”

(3) संविधान का रक्षक व मूल अधिकारों का प्रहरी

संविथान की व्याख्या तथा रक्षा करना भी सर्वोच्च न्यायालय का एक मुख्य कार्य है। जब कभी संविधान की व्याख्या के बारे में कोई मतभेद उत्पन्न हो जाए तो सर्वोच्च न्यायालय इस विषय में स्पष्टीकरण देकर उचित व्याख्या करता है। सर्वोच्च न्यायालय द्वारा की गयी व्याख्या को अन्तिम तथा सर्वोच्च माना जाता है। केवल संविधान की व्याख्या करना ही नहीं, बल्कि इसकी रक्षा करना भी सर्वोच्च न्यायालय का कार्य है। सर्वोच्च न्यायालय को व्यवस्थापिका और कार्यपालिका के कार्यों का पुनरवलोकन करने का भी अधिकार है। यदि सर्वोच्च न्यायालय को यह विश्वास हो जाए कि संसद द्वारा बनाया गया कोई कानून या कार्यपालिका का कोई आदेश संविधान का उल्लंघन करता है तो वह उस कानून व आदेश को असंवैधानिक घोषित करके रद्द कर सकता है। इस प्रकार न्यायालय संविधान की सर्वोच्चता कायम रखता है।

संविधान की धारा 32 के अनुसार न्यायालय का यह भी उत्तरदायित्व है कि वह मूल अधिकारों की रक्षा करे। इन अधिकारों की रक्षा के लिए यह न्यायालय बन्दी प्रत्यक्षीकरण, परमादेश, प्रतिषेध, अधिकार पृच्छा और उत्प्रेषण लेख जारी करता है।

(4) परामर्शदात्री क्षेत्राधिकार

सर्वोच्च न्यायालय के पास परामर्शदात्री क्षेत्राधिकार भी है। अनुच्छेद 143 के अनुसार, यदि कभी राष्ट्रपति को यह प्रतीत हो कि विधि या तथ्यों के बारे में कोई ऐसा महत्त्वपूर्ण प्रश्न उठाया गया है या उठने वाला है, जिस पर सर्वोच्च न्यायालय की राय लेना जरूरी है तो वह उस प्रश्न को परामर्श के लिए सर्वोच्च न्यायालय के पास भेज सकता है, किन्तु अनुच्छेद 143 ‘बाध्यकारी प्रकृति का नहीं है। यह न तो राष्ट्रपति को बाध्य करता है कि वह सार्वजनिक महत्त्व के विषय पर न्यायालय की राय माँगे और न ही सर्वोच्च न्यायालय को बाध्य करता है कि वह भेजे गये प्रश्न पर अपनी राय दे। वैसे भी यह राय न्यायिक उद्घोषणा’ या ‘न्यायिक निर्णय नहीं है। इसीलिए इसे मानने के लिए राष्ट्रपति बाध्य नहीं है।

अब तक राष्ट्रपति ने सर्वोच्च न्यायालय से अनेक बार परामर्श माँगा है। केरल शिक्षा विधेयक, 1947 में, ‘राष्ट्रपति के चुनाव पर एवं 1978 ई० में ‘विशेष अदालत विधेयक पर माँगी गयी सम्पतियाँ अधिक महत्त्वपूर्ण रही हैं।

सर्वोच्च न्यायालय का परामर्श सम्बन्धी क्षेत्राधिकार मुकदमेबाजी को रोकने या उसे कम करने में सहायक होता है। संयुक्त राज्य अमेरिका और ऑस्ट्रेलिया के सर्वोच्च न्यायालयों द्वारा सलाहकार की भूमिका अदा करना पसन्द नहीं किया गया है। इस सम्बन्ध में भारत की व्यवस्था कनाडा और बर्मा के अनुरूप है।

(5) अन्य क्षेत्राधिकार

(क) अधीनस्थ न्यायालयों की जाँच – सर्वोच्च न्यायालय को अपने अधीनस्थ न्यायालयों के कार्यों की जाँच करने का अधिकार प्राप्त है।

(ख) न्यायालयों की कार्यवाही संचालन हेतु नियम बनाना – सर्वोच्च न्यायालय को अपने अधीनस्थ न्यायालयों की कार्यवाही सुचारु रूप से चलाने हेतु नियम बनाने का अधिकार है, परन्तु उन नियमों पर राष्ट्रपति की स्वीकृति अनिवार्य होती है।

(ग) पुनर्विचार का अधिकार – सर्वोच्च न्यायालय यदि ऐसा अनुभव करे कि वह अपने निर्णय में कोई भूल कर बैठा है या उसके निर्णय में कोई कमी रह गयी है, तो उस विवाद पर पुनर्विचार करने की प्रार्थना की जा सकती है। सर्वोच्च न्यायालय ने अपने पहले निर्णय को बदलकर अनेक बार नये निर्णय दिये हैं।

(6) अभिलेख न्यायालय

अनुच्छेद 129 सर्वोच्च न्यायालय को अभिलेख न्यायालय का स्थान प्रदान करता है। इसके दो अर्थ हैं –

  1. सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय और अदालती कार्यवाही को अभिलेख के रूप में रखा जाएगा जो अधीनस्थ न्यायालयों में दृष्टान्त के रूप में प्रस्तुत किये जाएँगे और उनकी प्रामाणिकता के बारे में किसी प्रकार का सन्देह नहीं किया जाएगा।
  2. इस न्यायालय द्वारा न्यायालय की अवमानना’ के लिए दण्ड दिया जा सकता है। वैसे तो यह बात प्रथम स्थिति में स्वतः ही मान्य हो जाती है, लेकिन संविधान में इस न्यायालय की अवमानना करने वालों के लिए दण्ड की व्यवस्था विशिष्ट रूप से की गयी है।

सर्वोच्च न्यायालय के उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट हो जाता है कि सर्वोच्च न्यायालय का सर्वप्रमुख कार्य संविधान की रक्षा करना ही है। इस सम्बन्ध में श्री डी० के० सेन ने लिखा है, “न्यायालय भारत के सभी न्यायालयों के न्यायिक निरीक्षण की शक्तियाँ रखता है और वही संविधान का वास्तविक व्याख्याता और संरक्षक है। उसका यह कर्तव्य होता है कि वह यह देखे कि उसके प्रावधानों को उचित रूप में माना जा रहा है और जहाँ कहीं आवश्यक होता है वहाँ वह उसके प्रावधानों को स्पष्ट करता है।”

संक्षेप में, मौलिक अधिकारों को छोड़कर भारतीय सर्वोच्च न्यायालय की शक्तियाँ ‘विश्व के किसी भी सर्वोच्च न्यायालय से अधिक हैं। इस पर भी भारत का सर्वोच्च न्यायालय अमेरिका के सर्वोच्च न्यायालय से अधिक शक्तिशाली नहीं है, क्योंकि इसकी शक्तियाँ ‘कानून द्वारा स्थापित प्रक्रिया के कारण मर्यादित हैं, इसीलिए यह संसद के तीसरे सदन की भूमिका नहीं अपना सकता है।।

सर्वोच्च न्यायालय की स्वतन्त्रता

भारतीय संविधान में सर्वोच्च न्यायालय की स्वतन्त्रता की रक्षा के लिए अनेक प्रावधान किये गये हैं, जो निम्नवत् हैं –

  1. न्यायपालिका को कार्यपालिका तथा व्यवस्थापिका से पृथक् कर दिया गया है।
  2. न्यायाधीशों के वेतन तथा भत्ते भारत सरकार की संचित निधि से दिये जाते हैं। न्यायाधीशों के लिए पर्याप्त वेतन की व्यवस्था की गयी है। न्यायाधीशों के वेतन व भत्तों में किसी भी प्रकार की कटौती नहीं की जा सकती है।
  3. न्यायाधीश अपने पद पर 65 वर्ष की आयु तक कार्य कर सकते हैं। यद्यपि महाभियोग लगाकर न्यायाधीशों को अपने पद से हटाने का प्रावधान भारतीय संविधान में किया गया है, परन्तु वह बहुत जटिल है; इसलिए न्यायाधीशों को उनके पद से हटाना भी सरल नहीं है।
  4. न्यायाधीशों की नियुक्ति राष्ट्रपति द्वारा की जाती है। संसद का इसमें कोई हस्तक्षेप नहीं है। इस कारण न्यायाधीश पूर्ण स्वतन्त्र रहते हैं।
  5. सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीशों के निर्णयों व कार्यों की आलोचना नहीं की जा सकती है। इस कारण भी सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीश स्वतन्त्रतापूर्वक कार्य करते हैं।
  6. सर्वोच्च न्यायालय को अपने कर्मचारी वर्ग पर पूर्ण नियंत्रण प्राप्त है।
  7. सर्वोच्च न्यायालय को अपनी कार्यप्रणाली के संचालन हेतु नियम बनाने का अधिकार है।

प्रश्न 5.

जनहित याचिकाएँ (जनहित अभियोग) के अर्थ एवं महत्त्व पर प्रकाश डालिए।
या
जनहित याचिका से आप क्या समझते हैं? भारतीय न्याय-व्यवस्था में इनकी भूमिका का मूल्यांकन कीजिए।

उत्तर :

जनहित याचिकाएँ (जनहित अभियोग) का अर्थ

न्याय के प्रसंग में परम्परागत धारणा यह रही है कि न्यायालय से न्याय पाने को हक उसी व्यक्ति को है जिसके मूल अधिकारों पर विपरीत प्रभाव पड़ता है, जिसे स्वयं या जिसके पारिवारिक जन को कोई पीड़ा पहुँची है, किन्तु आज की परिस्थितियों में न्यायिक सक्रियतावाद के अन्तर्गत सर्वोच्च न्यायालय ने आंग्ल विधि के उपर्युक्त नियम को परिवर्तित करते हुए यह व्यवस्था की है कि कोई भी व्यक्ति किसी ऐसे समूह या वर्ग की ओर से मुकदमा लड़ सकता है, जिसको उसके कानून या संवैधानिक अधिकारों से वंचित कर दिया गया हो। सर्वोच्च न्यायालय ने यह स्पष्ट कर दिया कि गरीब, अपंग अथवा सामाजिक एवं आर्थिक दृष्टि से दलित लोगों के मामले में आम जनता का कोई आदमी न्यायालय के समक्ष ‘वाद’ (मुकदमा) ला सकता है। न्यायालय अपने सारे तकनीकी और कार्यविधि सम्बन्धी नियमों की परवाह किये बिना ‘वाद’ लिखित रूप में देने मात्र से ही कार्यवाही करेगा। न्यायाधीश कृष्णा अय्यर के अनुसार, ‘वाद कारण’ और ‘पीड़ित व्यक्ति की संकुचित धारणा का स्थान अब ‘वर्ग कार्यवाही और लोकहित में कार्यवाही की व्यापक धारणा ने ले लिया है। ऐसे मामले व्यक्तिगत मामलों से भिन्न होते हैं। वैयक्तिक मामलों में ‘वादी’ और ‘प्रतिवादी होते हैं, जब कि जनहित संरक्षण से सम्बन्धित मामले किसी एक व्यक्ति के बजाय ऐसे समूह के हितों की रक्षा पर बल देते हैं जो कि शोषण और अत्याचार का शिकार होता है और जिसे संवैधानिक और मानवीय अधिकारों से वंचित कर दिया जाता है।

इस प्रकार सर्वोच्च न्यायालय ने गरीब और असहाय लोगों की ओर से जनहित में कार्य करने वाले प्रत्येक व्यक्ति को मुकदमा लड़ने का अधिकार दे दिया है। इस प्रकार के मुकदमे के लिए जो . प्रार्थना-पत्र प्रस्तुत किया जाता है, वह जनहित याचिका’ है तथा इस प्रकार का मुकदमा जनहित अभियोग है।

जनहित याचिकाओं का महत्त्व

जनहित याचिकाओं का महत्त्व निम्नलिखित रूप में बताया जा सकता है –

1. समाज के निर्धन व्यक्तियों और कमजोर वर्गों को न्याय प्राप्त होना – भारत में करोड़ों ऐसे व्यक्ति हैं जो राजव्यवस्था और समाज के धनी-मानी व्यक्तियों के अत्याचार भुगत रहे हैं, जिनका शोषण हो रहा है, लेकिन उनके पास न्यायालय में जाने के लिए आवश्यक जानकारी, समझ और साधन नहीं हैं। जनहित याचिकाओं के माध्यम से अब समाज के शिक्षित और साधन सम्पन्न व्यक्ति इन कमजोर वर्गों की ओर से न्यायालय में जाकर इनके लिए न्याय प्राप्त कर सकते हैं। जनहित याचिकाओं की विशेष बात यह है कि ‘वाद’ प्रस्तुत करने के लिए कानूनी औपचारिकताओं को पूरा करना आवश्यक नहीं होता और इन मुकदमों में न्यायालय पीड़ित पक्ष के लिए आवश्यकतानुसार नि:शुल्क कानूनी सहायता की व्यवस्था भी करता है।

2. कानूनी न्याय के साथ-साथ आर्थिक-सामाजिक न्याय पर बल – जनहित याचिकाओं और न्यायिक सक्रियता के अन्तर्गत संविधान की भावना को दृष्टि में रखते हुए इस विचार को अपनाया गया कि देश के दीन और दलित जनों के प्रति न्यायालयों का विशेष दायित्व है। अतः इन न्यायालयों को कानूनी न्याय से आगे बढ़कर आर्थिक-सामाजिक न्याय प्रदान करने का प्रयत्न करना चाहिए। उदाहरण के लिए, उत्तर प्रदेश के हरिजनों के मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने स्वयं उनकी आर्थिक-सामाजिक दशाओं को जाँचने के लिए एक आयोग गठित किया आयोग की जाँच रिपोर्ट के आधार पर न्यायालय इस निष्कर्ष पर पहुँचे कि हरिजनों का धन्धा ठेके पर दिये जाने से उन्हें न्यूनतम मजदूरी भी नहीं मिलेगी। सर्वोच्च न्यायालय ने इस मामले में इस बात का प्रतिपादन किया कि यदि निर्धारित न्यूनतम मजदूरी से कम मजदूरी दी जाती है तो इसे संविधान के अनुच्छेद 23 का उल्लंघन और बेगार मानेंगे। इस प्रकार बंधुआ मुक्ति मोर्चा बनाम भारत सरकार’ विवाद में सर्वोच्च न्यायालय ने ‘बँधुआ मुक्ति मोर्चा संस्था के पत्र को रिट मानकर आयोग नियुक् कर जाँच करवाई और जाँच में जब पाया कि ‘मजदूर अमानवीय दशा में कार्यरत हैं तब न्यायालय ने इन मजदूरों की मुक्ति के आदेश दिये।

3. शासन की स्वेच्छाचारिता पर नियंत्रण – जनहित याचिकाओं का एक रूप और प्रयोजन शासन की स्वेच्छाचारिता पर नियंत्रण है। संविधान और कानून के अन्तर्गत उच्च कार्यपालिका अधिकारियों को कुछ ‘स्वविवेकीय शक्तियाँ प्रदान की गयी हैं। इस पृष्ठभूमि में जनहित याचिकाओं और न्यायिक सक्रियता के अन्तर्गत सर्वोच्च न्यायालय ने इस बात का प्रतिपादन किया कि विवेकात्मक शक्तियों के अन्तर्गत सरकार की कार्यवाही विवेक सम्मत होनी चाहिए तथा इस कार्यवाही को सम्पन्न करने के लिए जो कार्यविधि अपनायी जाए, वह कार्यविधि भी विवेक सम्मत, उत्तम और न्यायपूर्ण होनी चाहिए।

4. शासन को आवश्यक निर्देश देना – 1993-2003 के वर्षों में तो सर्वोच्च न्यायालय और उच्च न्यायालयों ने जनहित याचिकाओं और न्यायिक सक्रियता के आधार पर समस्त राजनीतिक व्यवस्था में पहले से बहुत अधिक महत्त्वपूर्ण भूमिका प्राप्त कर ली। इन न्यायालयों ने जब यह देखा कि जाँच एजेन्सियाँ उच्च पदस्थ अधिकारियों के विरुद्ध जाँच कार्य में ढिलाई बरत रही हैं तब न्यायालयों ने विभिन्न जाँच एजेन्सियों को अपना कार्य ठीक ढंग से करने के लिए निर्देश दिये और इस बात का प्रतिपादन किया कि व्यक्ति चाहे कितना भी बड़ा हो, कानून उससे ऊपर है’ तथा सरकारी एजेन्सी को अपना कार्य निष्पक्षता के साथ करना चाहिए। पिछले 20 वर्षों में जनहित याचिकाओं और न्यायिक सक्रियता के आधार पर न्यायालयों ने बन्धुआ मजदूरी और बाल श्रम की स्थितियाँ समाप्त करने, कानून और व्यवस्था बनाये रखते हुए निर्दोष नागरिकों के जीवन की रक्षा करने, प्राथमिक शिक्षा सम्बन्धी संविधान के प्रावधान को अनिवार्य रूप से लागू करने, बस दुर्घटनाओं को रोकने की दृष्टि से व्यवस्था करने, सफाई की व्यवस्था कर महामारियों की रोकथाम करने, सरसों के तेल और अन्य खाद्य पदार्थों में मिलावट को रोकने के लिए आवश्यक व्यवस्था करने और पर्यावरण की रक्षा आदि के प्रसंग में समय-समय पर अनेक आदेश-निर्देश जारी किये हैं।

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