NCERT Solutions | Class 11 Rajniti Vigyan Chapter 4

NCERT Solutions | Class 11 Rajniti Vigyan राजनीतिक सिद्धान्त (Political Theory) Chapter 4 | Social Justice (सामाजिक न्याय) 

NCERT Solutions for Class 11 Rajniti Vigyan राजनीतिक सिद्धान्त (Political Theory) Chapter 4 Social Justice (सामाजिक न्याय)

CBSE Solutions | Rajniti Vigyan Class 11

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NCERT | Class 11 Rajniti Vigyan राजनीतिक सिद्धान्त (Political Theory)

NCERT Solutions Class 11 Rajniti Vigyan
Book: National Council of Educational Research and Training (NCERT)
Board: Central Board of Secondary Education (CBSE)
Class: 11
Subject: Rajniti Vigyan
Chapter: 4
Chapters Name: Social Justice (सामाजिक न्याय)
Medium: Hindi

Social Justice (सामाजिक न्याय) | Class 11 Rajniti Vigyan | NCERT Books Solutions

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NCERT Solutions For Class 11 Political Science Political theory Chapter 4 Social Justice

पाठ्य-पुस्तक के प्रश्नोत्तर

प्रश्न 1.

हर व्यक्ति को उसका प्राप्य देने का क्या मतलब है? हर किसी को उसका प्राप्य देने का मतलब समय के साथ-साथ कैसे बदला है?

उत्तर :

हर व्यक्ति को उसका प्राप्य देने का मतलब है न्याय में प्रत्येक व्यक्ति को उसका उचित भाग प्रदान करना। यह बात आज भी न्याय का महत्त्वपूर्ण अंग बनी हुई है। आज इस बात पर निर्णय के लिए विचार किया जाता है कि किसी व्यक्ति का प्राप्य क्या है? जर्मन दार्शनिक काण्ट के अनुसार, प्रत्येक मनुष्य की गरिमा होती है। अगर सभी व्यक्तियों की गरिमा स्वीकृत है, तो उनमें से हर एक को प्राप्य यह होगा कि उन्हें अपनी प्रतिभा के विकास और लक्ष्य की पूर्ति के लिए अवसर प्राप्त हों। न्याय के लिए आवश्यक है कि हम सभी व्यक्तियों को समुचित और समान महत्त्व दें।

समान लोगों के प्रति समान व्यवहार – आधुनिक समाज में बहुत-से लोगों को समान महत्त्व देने के बारे में आम सहमति है, लेकिन यह निर्णय करना सरल नहीं है कि प्रत्येक व्यक्ति को उसका प्राप्य कैसे दिया जाए। इस विषय में अनेक सिद्धान्त प्रस्तुत किए गए हैं। उनमें से एक है समकक्षों के साथ समान बरताव का सिद्धान्त। यह माना जाता है कि मनुष्य होने के कारण सभी व्यक्तियों में कुछ समान चारित्रिक विशेषताएँ होती हैं। इसीलिए वे समान अधिकार और समान बरताव के अधिकारी हैं। आज अधिकांश उदारवादी जनतन्त्रों में कुछ महत्त्वपूर्ण अधिकार प्रदान किए गए हैं। इनमें जीवन, स्वतन्त्रता और सम्पत्ति के अधिकार जैसे नागरिक अधिकार शामिल हैं। इसमें समाज के अन्य सदस्यों के साथ समान अवसरों के उपभोग करने का सामाजिक अधिकार और मताधिकार जैसे राजनीतिक अधिकार भी शामिल हैं। ये अधिकार व्यक्तियों को राज-प्रक्रियाओं में भागीदार बनाते हैं।

समान अधिकारों के अतिरिक्त समकक्षों के साथ समान बरताव के सिद्धान्त के लिए आवश्यक है कि लोगों के साथ वर्ग, जाति, नस्ल या लिंग के आधार पर भेदभव न किए जाए। उन्हें उनके काम और कार्य-कलापों के आधार पर जाँचा जाना चाहिए। इस आधार पर नहीं कि वे किस समुदाय के सदस्य हैं। इसीलिए अगर भिन्न जातियों के दो व्यक्ति एक ही काम करते हैं, चाहे वह पत्थर तोड़ने का काम हो या होटल में कॉफी सर्व करने का; उन्हें समान पारिश्रमिक मिलना चाहिए।

प्रश्न 2.

अध्याय में दिए गए न्याय के तीन सिद्धान्तों की संक्षेप में चर्चा करो। प्रत्येक को उदाहरण के साथ समझाइए।

उत्तर :

अध्याय में दिए गए न्याय के तीन सिद्धान्त निम्नलिखित हैं-
1. समान लोगों के लिए समान व्यवहार – इसका विवेचन हम प्रश्न 1 में कर चुके हैं।

2. समानुपातिक न्याय – समान व्यवहार न्याय का एकमात्र सिद्धान्त नहीं है। ऐसी परिस्थितियाँ हो सकती हैं जिनमें हम यह अनुभव करें कि प्रत्येक के साथ समान व्यवहार करना अन्याय होगा। उदाहरण के लिए; किसी विद्यालय में अगर यह निर्णय लिया जाए, कि परीक्षा में सम्मिलित होने वाले सभी लोगों को समान अंक दिए जाएँगे क्योंकि सभी एक ही स्कूल के विद्यार्थी हैं और सभी ने एक ही परीक्षा दी है, यह स्थिति कष्टपूर्ण हो सकती है, तब अधिक उचित यह रहेगा। कि छात्रों को उंनकी उत्तर-पुस्तिकाओं की गुणवत्ता और सम्भव हो तो इसके लिए उनके द्वारा किए गए प्रयास के अनुसार अंक प्रदान किए जाएँ। यह न्याय का समानुपातिक सिद्धान्त है।

3. मुख्य आवश्यकताओं का विशेष ध्यान – न्याय का तीसरा सिद्धान्त है-पारिश्रमिक या कर्तव्यों का वितरण करते समय लोगों की मुख्य आवश्यकताओं का ध्यान रखने का सिद्धान्त। इसे सामाजिक न्याय को बढ़ावा देने का एक तरीका माना जा सकता है। समाज के सदस्यों के रूप में लोगों की बुनियादी अवस्था और अधिकारों की दृष्टि से न्याय के लिए यह आवश्यक हो सकता है कि लोगों के साथ समान बरताव किया जाए, लेकिन लोगों के बीच भेदभाव न करना और उनके परिश्रम के अनुपात में उन्हें पारिश्रमिक देना भी यह सुनिश्चित करने के लिए शायद पर्याप्त न हो कि समाज में अपने जीवन के अन्य सन्दर्भो में भी लोग समानता का उपभोग करें या कि समाज समग्ररूप से न्यायपूर्ण हो जाए। लोगों की विशेष आवश्यकताओं को दृष्टिगत रखने का सिद्धान्त समान व्यवहार के सिद्धान्त को अनिवार्यतया खण्डित नहीं, बल्कि उसका विस्तार ही करता है।

प्रश्न 3.

क्या विशेष जरूरतों का सिद्धान्त सभी के साथ समान बरताव के सिद्धान्त के विरुद्ध है?

उत्तर :

विशेष जरूरतों या विकलांग व्यक्तियों को कुछ विशेष मामलों में असमान और विशेष सहायता के योग्य समझा जा सकता है। लेकिन इस पर सहमत होना सरल नहीं होता कि लोगों को विशेष सहायता देने के लिए उनकी किन असमानताओं को मान्यता दी जाए। शारीरिक विकलांगता, उम्र या अच्छी शिक्षा और स्वास्थ्य सुविधाओं तक पहुँच न होना कुछ ऐसे कारक हैं, जिन्हें विभिन्न देशों में बरताव का आधार समझा जाता है। यह माना जाता है कि जीवनयापन और अवसरों के बहुत उच्च स्तर के उपभोक्ता और उत्पादक जीवन जीने के लिए आवश्यक न्यूनतम बुनियादी सुविधाओं से भी वंचित लोगों से हर मामले में एक समान बरताव करेंगे उनके ऐसा करने पर यह आवश्यक नहीं है कि परिणाम समतावादी और न्यायपूर्ण समाज होगा बल्कि एक असमान समाज भी हो सकता है।

प्रश्न 4.

निष्पक्ष और न्यायपूर्ण वितरण को युक्तिसंगत आधार पर सही ठहराया जा सकता है। रॉल्स ने इस तर्क को आगे बढ़ाने में अज्ञानता के आवरण के विचार का उपयोग किस प्रकार किया?

उत्तर :

जीवन में विभिन्न प्रकरणों में हमारे समक्ष यह प्रश्न उत्पन्न हो जाता है कि हम ऐसे निर्णय पर कैसे पहुँचे जो निष्पक्ष हो और न्यायसंगत भी।
जॉन रॉल्स ने इस प्रश्न का उत्तर देने का प्रयास किया है। रॉल्स तर्क प्रस्तुत करते हैं कि निष्पक्ष और न्यायसंगत नियम तक पहुँचने का एकमात्र रास्ता यही है कि हम स्वयं को ऐसी परिस्थितियों में होने की कल्पना करें जहाँ हमें यह निर्णय लेना है कि समाज को कैसे संगठित किया जाए। जबकि हमें यह ज्ञात नहीं है कि उस समाज में हमरा क्या स्थान होगा। अर्थात् हम नहीं जानते कि किस प्रकार के परिवार में हम जन्म लेंगे, हम उच्च जाति के परिवार में जन्म लेंगे या निम्न जाति के, धनी होंगे या गरीब, सुविधासम्पन्न होंगे अथवा सुविधाहीन। रॉल्स तर्क प्रस्तुत करते हैं कि अगर हमें यह नहीं मालूम हो, इस मायने में, कि हम कौन होंगे और भविष्य के समाज में हमारे लिए कौन-से विकल्प खुले होंगे, तब हम भविष्य के उस समाज के नियमों और संगठन के बारे में जिस निर्णय का समर्थन करेंगे, वह समाज के अनेक सदस्यों के लिए अच्छा होगा।

रॉल्स ने इसे ‘अज्ञानता के आवरण’ में सोचना कहा है। रॉल्स आशा करते हैं कि समाज में अपने सम्भावित स्थान और सामर्थ्य के बारे में पूर्ण अज्ञानता की दशा में प्रत्येक व्यक्ति, आमतौर पर जैसे सब करते हैं, अपने स्वयं के हितों को दृष्टिगत रखकर निर्णय करेगा। चूँकि कोई नहीं जानता कि वह कौन होगा और उसके लिए क्या लाभप्रद होगा, इसलिए प्रत्येक व्यक्ति सबसे बुरी स्थिति को दृष्टिगत रखकर समाज की कल्पना करेगा। स्वयं के लिए सोच-विचार कर सकने वाले व्यक्ति के सामने यह स्पष्ट रहेगा कि जो जन्म से सुविधासम्पन्न हैं, वे कुछ विशेष अवसरों का उपभोग करेंगे। लेकिन दुर्भाग्य से यदि उनका जन्म समाज के वंचित वर्ग में हो जहाँ वैसा कोई अवसर न मिले, तब क्या होगा? इसलिए, अपने स्वार्थ में काम करने वाले प्रत्येक व्यक्ति के लिए यही उचित होगा कि वह संगठन के ऐसे नियमों के विषय में सोचे जो कमजोर वर्ग के लिए यथोचित अवसर सुनिश्चित कर सके। इस प्रयास से यह होगा कि शिक्षा, स्वास्थ्य, आवास जैसे महत्त्वपूर्ण संसाधन सभी लोगों को प्राप्त हों-चाहे वे उच्च वर्ग के हों या निम्न वर्ग के।

निश्चित रूप से अपनी पहचान को विस्मृत करना और अज्ञानता के आवरण’ में खड़ा होने की कल्पना करना किसी के लिए सहज नहीं है। लेकिन तब, अधिकांश लोगों के लिए यह भी उतना ही कठिन है। कि वे आत्मत्यागी बनें और अजनबी लोगों के साथ अपने सौभाग्य को बाँटें। यही कारण है कि हम आदतस्वरूप आत्मत्याग को वीरता से जोड़ते हैं। इन मानवीय दुर्बलताओं और सीमाओं को दृष्टिगत रखते हुए हमारे लिए ऐसे ढाँचे के बारे में सोचना अच्छा रहेगा जिसमें असाधारण कार्यवाहियों की आवश्यकता न रहे। ‘अज्ञानता के आवरण’ वाली स्थिति की विशेषता यह है कि उसमें लोगों से सामान्य रूप से विवेकशील मनुष्य बने रहने की उम्मीद बँधती है। उनसे अपने लिए सोचने और अपने हित में जो अच्छा हो, उसे चुनने की अपेक्षा रहती है।

अज्ञानता का कल्पित आवरण ओढ़न उचित कानूनों और नीतियों की प्रणाली तक पहुँचने का पहला कदम है। इससे यह प्रकट होगा कि विवेकशील मनुष्य न केवल सबसे बुरे सन्दर्भ को दृष्टिगत रखकर चीजों को देखेंगे, बल्कि वे यह भी सुनिश्चित करने का प्रयास करेंगे कि उनके द्वारा निर्मित नीतियाँ समग्र समाज के लिए लाभप्रद हों। दोनों चीजों को साथ-साथ चलना है। चूंकि कोई नहीं जानता कि वे वे आगामी समाज में कौन-सी जगह लेंगे, इसलिए हर कोई ऐसे नियम चाहेगी जो, अगर वे सबसे बुरी स्थिति में जीने वालों के बीच पैदा हों, तब भी उनकी रक्षा कर सके। लेकिन उचित तो यही होगा कि वे यह भी सुनिश्चित करने का प्रयास करें, कि उनके द्वारा चुनी गई नीतियाँ बेहतर स्थिति वालों को कमजोर न बना दे, क्योंकि यह सम्भावना भी हो सकती है कि वे स्वयं भविष्य के उस समाज में सुविधासम्पन्न स्थिति में जन्म लें। इसलिए यह सभी के हित में होगा कि निर्धारित नियमों और नीतियों से सम्पूर्ण समाज को लाभ होना चाहिए, किसी एक विशिष्ट वर्ग का नहीं। यहाँ निष्पक्षता विवेकसम्मत कार्यवाही का परिणाम है, न कि परोपकार अथवा उदारता का।

इसलिए रॉल्स तर्क प्रस्तुत करते हैं कि नैतिकता नहीं बल्कि विवेकशील चिन्तन हमें समाज में लाभ और भार के वितरण के मामले में निष्पक्ष होकर विचार करने की ओर प्रेरित करती है। इस उदारहण में हमारे पास पहले से बना-बनाया कोई लक्ष्य या नैतिकता के प्रतिमान नहीं होते हैं। हमारे लिए सबसे अच्छा क्या है, यह निर्धारित करने के लिए हम स्वतन्त्र होते हैं। यही विश्वास रॉल्स के सिद्धान्त को निष्पक्ष और न्याय के प्रश्न को हल करने को महत्त्वपूर्ण और सबल रास्ता तैयार कर देता है।

प्रश्न 5.

आमतौर पर एक स्वस्थ और उत्पादक जीवन जीने के लिए व्यक्ति की न्यूनतम बुनियादी जरूरतें क्या मानी गई हैं। इस न्यूनतम को सुनिश्चित करने में सरकार की क्या जिम्मेदारी है?

उत्तर :

आमतौर पर एक स्वस्थ और उत्पादक जीवन जीने के लिए व्यक्ति की बुनियादी न्यूनतम जरूरतें शरीर के लिए आवश्यक पोषक तत्त्वों की मात्रा, आवास, शुद्ध पेयजल की आपूर्ति, शिक्षा और न्यूनतम मजदूरी मानी गई हैं।
गरीबों को न्यूनतम बुनियादी सुविधाएँ उपलब्ध कराने की जिम्मेदारी सरकार को लेनी चाहिए। इसके लिए वह विभिन्न कार्यक्रम चला सकती है, निजी एजेंसियों की सेवाएँ भी ले सकती है। राज्य के लिए यह आवश्यक हो सकता है कि वह उन वृद्धों और रोगियों को विशेष सहायता प्रदान करे जो प्रतिस्पर्धा नहीं कर सकते। लेकिन इसके आगे राज्य की भूमिका नियम-कानून का ढाँचा बरकरार रखने तक ही। सीमित होनी चाहिए।

प्रश्न 6.

सभी नागरिकों को जीवन की न्यूनतम बुनियादी स्थितियाँ उपलब्ध कराने के लिए राज्य की कार्यवाही को निम्न में से कौन-से तर्क से वाजिब ठहराया जा सकता है?
(क) गरीब और जरूरतमन्दों को निःशुल्क सेवाएँ देना एक धर्मकार्य के रूप में न्यायोचित है।
(ख) सभी नागरिकों को जीवन का न्यूनतम बुनियादी स्तर उपलब्ध करवाना अवसरों की समानता सुनिश्चित करने का एक तरीका है।
(ग) कुछ लोग प्राकृतिक रूप से आलसी होते हैं और हमें उनके प्रति दयालु होना चाहिए।
(घ) सभी के लिए बुनियादी सुविधाएँ और न्यूनतम जीवन स्तर सुनिश्चित करना साझी मानवता और मानव अधिकारों की स्वीकृति है।

उत्तर :

(घ) सभी के लिए बुनियादी सुविधाएँ और न्यूनतम जीवन स्तर सुनिश्चित करना साझी मानवता और मानव अधिकारों की स्वीकृति है।

परीक्षोपयोगी प्रश्नोत्तर

बहुविकल्पीय प्रश्न

प्रश्न 1.

प्राचीन भारत में न्याय का सम्बन्ध था?
(क) धर्म से
(ख) ध्यान से
(ग) राज्य से
(घ) राजा से

उत्तर :

(क) धर्म से

प्रश्न 2.

‘दि रिपब्लिक’ किसकी रचना है?
(क) अरस्तू की
(ख) प्लेटो की
(ग) मैकियावली की
(घ) बोदां की

उत्तर :

(ख) प्लेटो की।

प्रश्न 3.

सुकरात कौन था?
(क) एक दार्शनिक
(ख) एक राजनीतिज्ञ
(ग) एक राजा
(घ) एक विद्यार्थी

उत्तर :

(क) एक दार्शनिक।

प्रश्न 4.

“हर मनुष्य की गरिमा होती है।” यह किसका कथन है?
(क) प्लेटो का
(ख) अरस्तू का
(ग) इमैनुएल काण्ट का।
(घ) रॉल्स का

उत्तर :

(ग) इमैनुएल काण्ट का।

प्रश्न 5.

न्याय की देवी आँखों पर पट्टी इसलिए अँधे रहती है क्योंकि –
(क) उसे निष्पक्ष रहना है।
(ख) वह देख नहीं सकती
(ग) यह एक परम्परा है।
(घ) वह स्त्री है।

उत्तर :

(क) उसे निष्पक्ष रहना है।

अतिलघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.

सामाजिक न्याय का लक्ष्य क्या है?

उत्तर :

सामाजिक न्याय का लक्ष्य सामाजिक-आर्थिक न्याय की प्राप्ति है ताकि समाज निरन्तर अपने निर्धारित लक्ष्यों की ओर बढ़ सके।

प्रश्न 2.

न्याय के तीन सिद्धान्त कौन-से हैं?

उत्तर :

  1. समान लोगों के प्रति समान बरताव।
  2. समानुपातिक न्याय।
  3. विशेष जरूरतों का विशेष ध्यान।

प्रश्न 3.

जॉन रॉल्स ने कौन-सा सिद्धान्त प्रस्तुत किया था?

उत्तर :

सुप्रसिद्ध राजनीतिक दार्शनिक जॉन रॉल्स ने न्यायोचित वितरण का सिद्धान्त प्रस्तुत किया है।

प्रश्न 4.

बुनियादी आवश्यकताएँ कौन-सी हैं?

उत्तर :

स्वस्थ रहने के लिए आवश्यक पोषक तत्त्वों की बुनियादी मात्रा, आवास, शुद्ध पेयजल की आपूर्ति, शिक्षा और न्यूनतम मजदूरी बुनियादी आवश्यकताएँ हैं।

प्रश्न 5.

मुक्त बाजार की एक विशेषता लिखिए।

उत्तर :

मुक्त बाजार साधारणतया पूर्व से ही सुविधासम्पन्न लोगों के लिए काम करते हैं।

लघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.

न्यायपूर्ण विभाजन के लिए क्या आवश्यक है?

उत्तर :

सामाजिक न्याय प्राप्त करने के लिए सरकारों को यह सुनिश्चित करना होता है कि कानून और नीतियाँ सभी व्यक्तियों पर निष्पक्ष रूप से लागू हों। लेकिन इतना ही काफी नहीं है इसमें कुछ और अधिक करने की आवश्यकता है। सामाजिक न्याय का सम्बन्ध वस्तुओं और सेवाओं के न्यायोचित वितरण से भी है, चाहे यह राष्ट्रों के बीच वितरण का मामला हो या किसी समाज के अन्दर विभिन्न समूहों और व्यक्तियों के बीच का। यदि समाज में गम्भीर सामाजिक या आर्थिक असमानताएँ हैं तो यह आवश्यक होगा कि समाज के कुछ प्रमुख संसाधनों की पुनर्वितरण हो, जिससे नागरिकों को जीने के लिए समतल धरातल मिल सके। इसलिए किसी देश के अन्दर सामाजिक न्याय के लिए यह आवश्यक है कि न केवल लोगों के साथ समाज के कानूनों और नीतियों के सन्दर्भ में समान बरताव किया जाए। बल्कि जीवन की स्थितियों और अवसरों के मामले में भी वे बहुत कुछ बुनियादी समानता का उपभोग करें।

प्रश्न 2.

नीचे दी गई स्थितियों की जाँच करें और बताएँ कि क्या वे न्यायसंगत हैं। अपने तर्क के साथ यह भी बताएँ कि प्रत्येक स्थिति में न्याय का कौन-सा सिद्धान्त काम कर रहा है –

  1. एक दृष्टिहीन छात्र सुरेश को गणित का प्रश्नपत्र हल करने के लिए साढ़े तीन घण्टे मिलते हैं, जबकि अन्य सभी छात्रों को केवल तीन घण्टे।
  2. गीता बैसाखी की सहायता से चलती है। अध्यापिका ने गणित का प्रश्नपत्र हल करने के लिए उसे भी साढ़े तीन घण्टे का समय देने का निश्चय किया।
  3. एक अध्यापक कक्षा के कमजोर छात्रों के मनोबल को उठाने के लिए कुछ अतिरिक्त अंक देता है।
  4. एक प्रोफेसर अलग-अलग छात्राओं को उनकी क्षमताओं के मूल्यांकन के आधार पर अलग-अलग प्रश्नपत्र बाँटता है।
  5. संसद में एक प्रस्ताव विचाराधीन है कि संसद की कुल सीटों में से एक-तिहाई सीटें महिलाओं के लिए आरक्षित कर दी जाएँ।

उत्तर :

  1. न्यायसंगत है। विशेष जरूरतों का ख्याल रखने का सिद्धान्त।
  2. न्यायसंगत नहीं। यहाँ उपर्युक्त सिद्धान्त लागू नहीं होता।
  3. न्यायसंगत नहीं। यहाँ समानुपातिक सिद्धान्त लागू नहीं होता।
  4. न्यायसंगत नहीं। यहाँ न्यायपूर्ण बँटवारा नहीं है।
  5. न्यायसंगत है। यहाँ ‘विशेष जरूरतों का विशेष ख्याल’ सिद्धान्त लागू होता है।

दीर्घ लघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.

सामाजिक न्याय दिलाने की दिशा में सरकार ने विकलांगों के लिए क्या कार्य किया है।

उत्तर :

विकलांगता के कारण विकलांगों को सामाजिक घृणा का सामना करना पड़ता है तथा उन्हें जीवन में आगे बढ़ने के अवसरों से मात्र उनकी विकलांगता के कारण वंचित कर दिया जाता है। इससे न केवल विकलांग व्यक्ति को वरन् उसके पूरे परिवार को अनेक अवांछित कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है।

भारतीय संविधान विकलांगों को उनके काम, शिक्षा तथा सार्वजनिक सहायता के अधिकार दिलावने हेतु राज्यों को निर्देश देता है जिससे कि वे प्रभावी व्यवस्था लागू करें। भारत के विकलांगों के हितों से सम्बन्धित मुख्यतया निम्नलिखित तीन कानून पारित किए गए हैं –

  1. भारतीय पुनर्वास परिषद् अधिनियम, 1992;
  2. विकलांग-व्यक्ति को समान अवसर, अधिकारों की रक्षा और पूर्ण सहभागिता अधिनियम, 1995; तथा
  3. आत्मविमोह, मस्तिष्क पक्षाघात, अल्पबुद्धिता तथा बहुविकलांगता प्रभावित व्यक्तियों के कल्याणार्थ राष्ट्रीय न्याय अधिनियम, 1999.

भारतीय पुनर्वास परिषद् अधिनियम, 1992 के द्वारा पुनर्वास परिषद् को वैधानिक दर्जा प्रदान किया गया है। यह विकलांगता के क्षेत्र में काम करने वाले विभिन्न श्रेणियों के कर्मचारियों के लिए चल रहे कार्यक्रमों तथा संस्थाओं को नियन्त्रित करता है।

प्रश्न 2.

विकलांग व्यक्ति अधिनियम, 1995 के क्या प्रावधान हैं?

उत्तर :

‘विकलांग व्यक्ति अधिनियम, 1995′ सर्वाधिक व्यापक है जो विकलांगों के लिए समग्र दृष्टिकोण रखता है। इसके अनसुार –

  1. विकलांगों को सरकारी नौकरियों में 3 प्रतिशत आरक्षण दिया जाएगा तथा उन सार्वजनिक एवं निजी संस्थानों को प्रोत्साहन दिया जाएगा जो पाँच या पाँच से अधिक विकलांगों को अपने यहाँ नौकरी पर रखेंगे;
  2. सरकार का उत्तरदायित्व है कि प्रत्येक विकलांग को 18 वर्ष की आयु तक नि:शुल्क शिक्षा प्रदान करे;
  3. विकलांगों को घर बनाने के लिए व्यापार या फैक्टरी स्थापित करने के लिए अथवा विशेष मनोरंजन केन्द्र, विद्यालय या अनुसन्धान संस्थान खोलने के लिए भूमि का आवंटन रियायती दरों पर और प्राथमिकता के आधार पर दिया जाएगा;
  4. इनके लिए रोजगार कार्यालय, विशेष बीमा पॉलिसियाँ तथा बेकारी भत्ते की व्यवस्था की जाएगी; तथा
  5. विकलांगों के कल्याण के लिए एक मुख्य आयुक्त की नियुक्ति की जाएगी जो राज्यों के आयुक्तों द्वारा इन लोगों के कार्यों के लिए सामंजस्य स्थापित करे, इनके हितों की सुरक्षा हेतु । कार्य करे और उनकी शिकायतों की सुनवाई करे।

प्रश्न 3.

भारत में सामाजिक न्याय के सन्दर्भ में क्या कदम उठाए गए हैं?

उत्तर :

भारत में सामाजिक न्याय के सन्दर्भ में राज्य के नीति-निदेशक सिद्धान्तों में निम्नलिखित प्रावधान किए गए हैं

अनुच्छेद 38 – राज्य एक ऐसी सामाजिक व्यवस्था की प्राप्ति और संरक्षण द्वारा, जिसमें सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक न्याय राष्ट्रीय जीवन की सभी संस्थाओं का मार्गदर्शन करता है, जनसामान्य की भलाई को बढ़ावा देने का प्रयास करेगा।

अनुच्छेद 39 – विशेषतौर पर राज्य अपनी नीति को इन चीजों की उपलब्धि के लिए निर्देशित करेगा

(क) कि नागरिक, पुरुष और स्त्रियाँ, जीवन यापन के उचित साधनों पर समान अधिकार रखते हों।
(ख) कि आर्थिक ढाँचे का क्रियान्वयन ऐसा न हो कि साधारण मनुष्यों का अहित हो और सम्पत्ति तथा उत्पादन के साधन केन्द्रित हो जाएँ।
(ग) कि कामगारों के स्वास्थ्य, शक्ति और बच्चों की सुकुमार उम्र का दुरुपयोग न हो।

अनुच्छेद 43 – श्रमिकों के लिए जीवनोपयोगी वेतन प्राप्त कराने का राज्य प्रयत्न करे।

अनुच्छेद 46 – राज्य समाज के कमजोर वर्गों के शैक्षणिक और आर्थिक हितों की विशेष रूप से वृद्धि करे और उनका सामाजिक अन्याय तथा सभी प्रकार के शोषण से संरक्षण करे।

अनुच्छेद 47 राज्य अपने नागरिकों के पौष्टिक स्तर और जीवन स्तर को ऊपर उठाने और सामाजिक स्वास्थ्य को उन्नत करने को अपने प्राथमिक कर्तव्यों में समझे।।

दीर्घ उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.

सामाजिक न्याय से आप क्या समझते हैं? सामाजिक न्याय के लक्षणों का वर्णन कीजिए।

उत्तर :

एक अवधारणा के रूप में सामाजिक न्याय अपेक्षाकृत नया है। सर सी०के० एलन अपनी पुस्तक ‘आस्पैक्ट्स ऑफ जस्टिस’ में लिखते हैं –

आज हम ‘सामाजिक न्याय के बारे में बहुत कुछ सुनते हैं। मैं नहीं समझता कि वे जो इस कथन को बड़ी वाचालता से प्रयोग करते हैं, इसके क्या अर्थ लेते हैं, कुछ इसकी व्याख्या ‘अवसर की समानता के रूप में करते हैं। जो एक भ्रमिक कथन है, क्योंकि अवसर सभी लोगों के बीच समान नहीं हो सकता क्योंकि इसे ग्रहण करने की क्षमताएँ असमान हैं, मुझे भय है, कुछ इसका अर्थ यह लेते हैं कि यह उचित है मैं कहूँगा–विशाल हृदय कि प्राकृतिक मानवी असमानता की सूक्ष्मता को कम किए जाने के लिए हर प्रयास किया जाए और आत्मोन्नति के व्यावहारिक अवसरों में कोई बाधा नहीं डालनी चाहिए, वरन् उन्हें मदद पहुँचानी चाहिए।

सर एलन का यह कथन इस बात को प्रकट करता है कि सामाजिक न्याय की धारणा अस्पष्ट सी है। फिर भी इसमें कुछ तथ्य हैं। सामाजिक न्याय की अवधारणा में एक उचित और सुन्दर सामाजिक व्यवस्था जो सबके लिए उचित और सुन्दर है, सम्मिलित है।

सामाजिक न्याय का तात्पर्य उन लोगों को ऊपर उठाना है जो किन्हीं कारणों से कमजोर और कम अधिकारसम्पन्न हैं और जो जीवन की दौड़ में पीछे छूट गए हैं। अतः सामाजिक न्याय समाज के अधिक कमजोर और पिछड़े वर्गों को विशेष सुरक्षा प्रदान करता है।

भारत के पूर्व मुख्य न्यायाधीश के० सुब्बाराव के अनुसार-‘सामाजिक न्याय’ शब्द के सीमित और व्यापक दोनों अर्थ हैं। अपने सीमित अर्थ में इसका अभिप्राय है मनुष्य के व्यक्तिगत सम्बन्धों में व्याप्त अन्याय को सुधार। अपने विस्तृत अर्थ में यह मनुष्यों के राजनीतिक, सामाजिक और आर्थिक जीवन के असन्तुलन को दूर करता है। सामाजिक न्याय को दूसरे या बाद वाले अर्थ में समझा जाना चाहिए, क्योंकि तीनों ही क्रियाएँ आपस में सम्बद्ध हैं। सामाजिक न्याय अच्छे समाज के निर्माण में सहायक होता है।

प्रश्न 2.

सामाजिक न्याय स्वतन्त्रता और सामाजिक नियन्त्रण में सन्तुलन बनाए रखने का प्रयास करता है।’ विवेचना कीजिए।

उत्तर :

सामाजिक न्याय आधुनिक कल्याणकारी राज्य का निदेशक सिद्धान्त बन गया है। सामाजिक सुरक्षा के कदम, जैसे कि बेरोजगारी के मामले में सहायता, प्रसवकालीन लाभ और बीमारी, वृद्धावस्था तथा अपंगता के विरुद्ध बीमा, समाज के उन सदस्यों को सामाजिक न्याय दिलाने को उठाए गए हैं। जिनके पास अपने भरण-पोषण के साधन नहीं हैं और जो अपने परिवारों की देख-रेख नहीं कर पाते। सामाजिक न्याय को मात्र सामाजिक सुरक्षा के बराबर समझना गलत होगा। यह सामाजिक सुरक्षा से अधिक बड़े अर्थ का सूचक है और यह कमजोर तथा पिछड़े हुओं पर विशेष ध्यान दिए जाने पर जोर देता है। सामाजिक न्याय तथा समाजवाद के अर्थों में प्रायः भ्रान्ति पैदा हो जाती है क्योंकि दोनों ही असमानताओं को हटाने का प्रयास करते हैं। इन दोनों शब्दों को एक-दूसरे के लिए प्रयोग करना गलत है। समाजवाद अन्तिम विश्लेषण में उत्पादन के साधनों पर व्यक्तिगत अधिकार को समाप्त करने का उद्देश्य रखता है। समाजवादी व्यवस्था के अन्तर्गत उत्पादन के सभी साधन; जैसे-भूमि, पूँजी, कारखाने आदि सार्वजनिक अधिकार में ले लिए जाते हैं। एक ऐसी राजनीतिक व्यवस्था में जो सामाजिक न्याय के लिए वचनबद्ध है इस सीमा तक जाना आवश्यक नहीं है। सामाजिक न्याय की माँगों को उस देश में भी पूरा किया जा सकता है जिसने पूँजीवाद को अपनी आर्थिक व्यवस्था का आधार बनाए रखा है। आवश्यक यह है कि कानून, कर और अन्य युक्तियों से यह सुनिश्चित कर दिया जाए कि अच्छे जीवन के लिए आवश्यक न्यूनतम हालात प्रत्येक सदस्य को अधिकाधिक रूप में उपलब्ध कराए जाएँ। अनिवार्यतः इसका तात्पर्य समृद्ध लोगों के हाथ से समाज के गरीब वर्ग के हाथ में साधनों का हस्तान्तरण होना है, परन्तु इससे पूँजीवाद का अन्त नहीं होता। सामाजिक न्याय सदैव आर्थिक और सामाजिक असन्तुलनों को दूर करने का प्रयास करता है जैसा कि भारतीय उच्च न्यायालय ने एक महत्त्वपूर्ण फैसले में कहा था-“यह स्वतन्त्रता और सामाजिक नियन्त्रण में सन्तुलन बनाए रखने का प्रयास करता है।”

प्रश्न 3.

‘मुक्त बाजार बनाम राज्य का हस्तक्षेप’ विषय पर लघु निबन्ध लिखिए।

उत्तर :

मुक्त बाजार बनाम राज्य का हस्तक्षेप

मुक्त बाजार के समर्थकों का मानना है कि जहाँ तक सम्भव हो, लोगों को सम्पत्ति अर्जित करने के लिए तथा मूल्य, मजदूरी और लाभ के मामले में दूसरों के साथ अनुबन्ध और समझौतों में शामिल होने के लिए स्वतन्त्रत रहना चाहिए। उन्हें लाभ की अधिकतम मात्रा प्राप्त करने के लिए एक-दूसरे के साथ प्रतिद्वन्द्विता करने की छूट होनी चाहिए। यह मुक्त बाजार का सरल चित्रण है। मुक्त बाजार के समर्थक मानते हैं कि अगर बाजारों को राज्य के हस्तक्षेप से मुक्त कर दिया जाए, तो बाजारी कारोबार का योग कुल मिलाकर समाज में लाभ और कर्तव्यों का न्यायपूर्ण वितरण सुनिश्चित कर देगा। इससे योग्य और प्रतिभासम्पन्न लोगों को अधिक प्रतिफल प्राप्त होगा जबकि अक्षम लोगों को कम प्राप्त होगा। उनकी मान्यता है कि बाजारी वितरण का जो भी परिणाम हो, वह न्यायसंगत होगा।

हालाँकि, मुक्त बाजार के सभी समर्थक आज पूर्णतया अप्रतिबन्धित बाजार का समर्थन नहीं करेंगे। कई लोग अब कुछ प्रतिबन्ध स्वीकार करने के लिए तैयार होंगे। उदाहरण के रूप में, सभी लोगों के लिए न्यूनतम बुनियादी जीवन-मानक सुनिश्चित करने के लिए राज्य हस्तक्षेप करे, ताकि वे समान शर्तों पर प्रतिस्पर्धा करने में समर्थ हो सकें। लेकिन वे तर्क कर सकते हैं कि यहाँ भी स्वास्थ्य सेवा, शिक्षा तथा ” ऐसी अन्य सेवाओं के विकास के लिए बाजार को अनुमति देना ही लोगों के लिए इन बुनियादी सेवाओं की आपूर्ति का सबसे उत्तम उपाय हो सकता है। दूसरों शब्दों में, ऐसी सेवाएँ उपलब्ध कराने के लिए निजी एजेंसियों को प्रोत्साहित किया जाना चाहिए, जबकि राज्य की नीतियाँ इन सेवाओं को खरीदने के लिए लोगों को सशक्त बनाने का प्रयास करें। राज्य के लिए यह भी आवश्यक हो सकता है कि वह उन वृद्धों और रोगियों को विशेष सहायता प्रदान करे, जो प्रतिस्पर्धा नहीं कर सकते। लेकिन इसके आगे राज्य की भूमिका नियम-कानून का ढाँचा बनाए रखने तक ही सीमित रहनी चाहिए, जिससे व्यक्तियों के बीच जबरदस्ती और अन्य बाधाओं से मुक्त प्रतिद्वन्द्विता सुनिश्चित हो। उनका मानना है कि मुक्त बाजार उचित और न्यायपूर्ण समाज का आधार होता है। कहा जाता है कि बाजार किसी व्यक्ति की जाति या धर्म की परवाह नहीं करता। वह यह भी नहीं देखता कि आप पुरुष हैं या स्त्री। वह इन सबसे निरपेक्ष रहता है और उसका सम्बन्ध आपकी प्रतिभा और कौशल से है। अगर आपके पास योग्यता है। तो शेष सब बातें बेमानी हैं।

बाजारी वितरण के पक्ष में एक तर्क यह रखा जाता है कि यह हमें अधिक विकल्प प्रदान करता है। इसमें शक नहीं कि बाजार प्रणाली उपभोक्ता के तौर पर हमें अधिक विकल्प देती है। हम जैसा चाहें वैसा चावल पसन्द कर सकते हैं और रुचि के अनुसार विद्यालय जा सकते हैं, बशर्ते उनकी कीमत चुकाने के लिए हमारे पास साधन हों। लेकिन, बुनियादी वस्तुओं और सेवाओं के मामले में महत्त्वपूर्ण बात यह है कि अच्छी गुणवत्ता की वस्तुएँ और सेवाएँ लोगों के खरीदने लायक कीमत पर उपलब्ध हों। यदि निजी एजेंसियाँ इसे अपने लिए लाभदायक नहीं पाती हैं, तो वे उसे विशिष्ट बाजार में प्रवेश नहीं करेंगी अथवा सस्ती और घटिया सेवाएँ उपलब्ध कराएँगी। यही वजह है कि सुदूर ग्रामीण इलाकों में बहुत कम निजी विद्यालय हैं और कुछ खुले भी हैं; तो वे निम्नस्तरीय हैं। स्वास्थ्य सेवा और आवास के मामले में भी सच यही है। इन परिस्थितियों में सरकार को हस्तक्षेप करना पड़ता है।

मुक्त बाजार और निजी उद्यम के पक्ष में अक्सर सुनने में आने वाला दूसरा तर्क यह है कि वे जो सेवाएँ उपलब्ध कराते हैं, उनकी गुणवत्ता सरकारी संस्थानों द्वारा प्रदत्त सेवाओं से प्रायः अच्छी होती हैं। लेकिन इन सेवाओं की कीमत उन्हें गरीब लोगों की पहुँच से बाहर कर सकती है। निजी व्यवसाय वहीं जाना चाहता है, जहाँ उसे सर्वाधिक लाभ मिले और इसीलिए मुक्त बाजार ताकतवर, धनी और प्रभावशाली लोगों के हित में काम करने के लिए प्रवृत्त होता है। इसका परिणाम अपेक्षाकृत कमजोर और सुविधाहीन लोगों के लिए अवसरों का विस्तार करने की अपेक्षा अवसरों से वंचित करना हो सकता है।

तर्क तो वाद-विवाद दोनों पक्षों के लिए प्रस्तुत किए जा सकते हैं, लेकिन मुक्त बाजार साधारणतया पूर्व से ही सुविधासम्पन्न लोगों के हक में काम करने का रुझान दिखाते हैं। इसी कारण अनेक लोग तर्क करते हैं कि सामाजिक न्याय सुनिश्चित करने के लिए राज्य को यह सुनिश्चित करने की पहल करनी चाहिए कि समाज के सदस्यों को बुनियादी सुविधाएँ उपलब्ध हों।

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