NCERT Solutions | Class 11 Rajniti Vigyan भारत का संविधान : सिद्धान्त और व्यवहार (Indian Constitution at Work) Chapter 7 | Federalism (संघवाद)

CBSE Solutions | Rajniti Vigyan Class 11
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NCERT | Class 11 Rajniti Vigyan भारत का संविधान : सिद्धान्त और व्यवहार (Indian Constitution at Work)
Book: | National Council of Educational Research and Training (NCERT) |
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Board: | Central Board of Secondary Education (CBSE) |
Class: | 11 |
Subject: | Rajniti Vigyan |
Chapter: | 7 |
Chapters Name: | Federalism (संघवाद) |
Medium: | Hindi |
Federalism (संघवाद) | Class 11 Rajniti Vigyan | NCERT Books Solutions
NCERT Solutions For Class 11 Political Science Indian Constitution at Work Chapter 7 Federalism
पाठ्य-पुस्तक के प्रश्नोत्तर
प्रश्न 1.
(क) केन्द्र सरकार ने मंगलवार को जीएनएलएफ के नेतृत्त्व वाले दार्जिलिंग गोरखा हिल काउंसिल को छठी अनुसूची में वर्णित दर्जा देने की घोषणा की। इससे पश्चिम बंगाल के इस पर्वतीय जिले के शासकीय निकाय को ज्यादा स्वायत्तता प्राप्त होगी। दो दिन के गहन विचार-विमर्श के बाद नई दिल्ली में केन्द्र सरकार, पश्चिम बंगाल सरकार और सुभाष घीसिंग के नेतृत्व वाले गोरखा नेशनल लिबरेशन फ्रंट (जीएनएलएफ) के बीच त्रिपक्षीय समझौते पर हस्ताक्षर हुए।
(ख) वर्षा प्रभावित प्रदेशों के लिए सरकार कार्य-योजना लाएगी। केन्द्र सरकार ने वर्षा प्रभावित प्रदेशों से पुनर्निर्माण की विस्तृत योजना भेजने को कहा है ताकि वह अतिरिक्त राहत प्रदान करने की उनकी माँग पर फौरन कार्रवाई कर सके।
(ग) दिल्ली के लिए नए आयुक्त। देश की राजधानी दिल्ली में नए नगरपालिका आयुक्त को बहाल किया जाएगा। इस बात की पुष्टि करते हुए एमसीडी के वर्तमान आयुक्त राकेश मेहता ने कहा कि उन्हें अपने तबादले के आदेश मिल गए हैं और संभावना है। कि भारतीय प्रशासनिक सेवा के अधिकारी अशोक कुमार उनकी जगह सँभालेंगे। अशोक कुमार अरुणाचल प्रदेश के मुख्य सचिव की हैसियत से काम कर रहे हैं। 1975 बैच के भारतीय प्रशासनिक सेवा के अधिकारी श्री मेहता पिछले साढ़े तीन साल से आयुक्त की हैसियत से काम कर रहे हैं।
(घ) मणिपुर विश्वविद्यालय को केन्द्रीय विश्वविद्यालय का दर्जा। राज्यसभा ने बुधवार को मणिपुर विश्वविद्यालय को केन्द्रीय विश्वविद्यालय का दर्जा प्रदान करने वाला विधेयक पारित किया। मानव संसाधन विकास मन्त्री ने वायदा किया है कि अरुणाचल प्रदेश, त्रिपुरा और सिक्किम जैसे पूर्वोत्तर के राज्यों में भी ऐसी संस्थाओं का निर्माण होगा।
(ड) केन्द्र ने धन दिया। केन्द्र सरकार ने अपनी ग्रामीण जलापूर्ति योजना के तहत अरुणाचल प्रदेश को 533 लाख रुपये दिए हैं। इस धन की पहली.किस्त के रूप में अरुणाचल प्रदेश को 466 लाख रुपये दिए गए हैं।
(च) हम बिहारियों को बताएँगे कि मुंबई में कैसे रहना है। करीब 100 शिव सैनिकों ने मुंबई के जे०जे०, अस्पताल में उठा-पटक करके रोजमर्रा के कामधंधे में बाधा पहुँचाई, नारे लगाए और धमकी दी कि गैर-मराठियों के विरुद्ध कार्रवाई नहीं की गई तो इस मामले को वे स्वयं ही निपटाएँगे।
(छ) सरकार को भंग करने की माँग कांग्रेस विधायक दल ने प्रदेश के राज्यपाल को हाल में सौंपे एक ज्ञापन में सत्तारूढ़ डेमोक्रेटिक एलायंस ऑफ नागालैंड (डीएएन) की सरकार को तथाकथित वित्तीय अनियमितता और सार्वजनिक धन के गबन के आरोप में भंग करने की माँग की है।
(ज) एनडीए सरकार ने नक्सलियों से हथियार रखने को कहा। विपक्षी दल राजद और उसके सहयोगी कांग्रेस और सीपीआई (एम) के वॉक आउट के बीच बिहार सरकार ने आज नक्सलियों से अपील की कि वे हिंसा का रास्ता छोड़ दें। बिहार को विकास के नए युग में ले जाने के लिए बेरोजगारी को जड़ से खत्म करने के अपने वादे को भी सरकार ने दोहराया।
उत्तर :
उपर्युक्त उदाहरणों में ‘क’ में वास्तविक संघीय प्रणाली की स्थिति दिखाई देती है क्योंकि इसमें सांस्कृतिक व भौगोलिक समीपता के आधार पर स्वायत्त परिषद् का निर्माण कर शक्तियों का बँटवारा किया जाता है जिससे निश्चित क्षेत्र का वहाँ के स्थानीय लोगों की इच्छा व अपेक्षाओं के अनुसार विकास हो सके। दूसरा उदाहरण (ख) भी वास्तविक संघीय प्रणाली की स्थिति को प्रकट करता है जिसमें केन्द्र उन राज्यों से व्यय का विवरण माँगता है जो वर्षा से अधिक प्रभावित हुए हैं ताकि उन्हें आवश्यक सहायता दी जा सके। उदाहरण (ङ) में भी वास्तविक संघीय प्रणाली की स्थिति है क्योंकि इसमें भी अरुणाचल प्रदेश की पानी की आवश्यकता को पूरा करने के लिए आवश्यक धन की व्यवस्था की गई है।प्रश्न 2.
(क) संघवाद से इस बात की सम्भावना बढ़ जाती है कि विभिन्न क्षेत्रों के लोग मेल-जोल से रहेंगे और उन्हें इस बात का भय नहीं रहेगा कि एक की संस्कृति दूसरे पर लाद दी जाएगी।
(ख) अलग-अलग किस्म के संसाधनों वाले दो क्षेत्रों के बीच आर्थिक लेन-देन को संघीय प्रणाली से बाधा पहुँचेगी।
(ग) संघीय प्रणाली इस बात को सुनिश्चित करती है जो केन्द्र में सत्तासीन हैं उनकी शक्तियाँ सीमित रहें।
उत्तर :
उपर्युक्त में प्रथम कथन (क) सही है क्योंकि संघीय प्रणाली में सभी को अपनी-अपनी संस्कृति के विकास का पूरा अवसर प्राप्त होता है जिसमें यह भी भय नहीं रहता है कि किसी पर दूसरे की संस्कृति लाद दी जाएगी। तीसरा कथन (ग) भी सही है क्योंकि संघीय प्रणाली में शक्तियों का केन्द्र व राज्यों में बँटवारा करके केन्द्र की शक्तियों को सीमित किया जाता है।प्रश्न 3.
शीर्षक-1 : संघीय बेल्जियम, इसके घटक और इसका क्षेत्र
अनुच्छेद-1 – बेल्जियम एक संघीय राज्य है—जो समुदायों और क्षेत्रों से बना है।
अनुच्छेद-2 – बेल्जियम तीन समुदायों से बना है—फ्रेंच समुदाय, फ्लेमिश समुदाय और जर्मन समुदाय।
अनुच्छेद-3 – बेल्जियम तीन क्षेत्रों को मिलाकर बना है-वैलून क्षेत्र, फ्लेमिश क्षेत्र और ब्रूसेल्स क्षेत्र।
अनुच्छेद-4 – बेल्जियम में 4 भाषाई क्षेत्र हैं- फ्रेंच-भाषी क्षेत्र, डच-भाषी क्षेत्र, ब्रसेल्स की राजधानी का द्विभाषी क्षेत्र तथा जर्मन भाषी क्षेत्र। राज्य का प्रत्येक ‘कम्यून’ इन भाषाई क्षेत्रों में से किसी एक का हिस्सा है।
अनुच्छेद-5 – वैलून क्षेत्र के अन्तर्गत आने वाले प्रान्त हैं-वैलून ब्राबैंट, हेनॉल्ट, लेग, लक्जमबर्ग और नामूर। फ्लेमिश क्षेत्र के अन्तर्गत शामिल प्रांत हैं- एंटीवर्प, फ्लेमिश ब्राबैंट, वेस्ट फ्लैंडर्स, ईस्ट फ्लैंडर्स और लिंबर्ग।
उत्तर :
बेल्जियम के उपर्युक्त विवरण से स्पष्ट है कि बेल्जियम समाज एक बहुसंख्यक (संघीय) समाज है जिसमें विभिन्न जाति, भाषा, बोली के लोग रहते हैं। ये अलग-अलग क्षेत्रों व प्रान्तों में रहते हैं; अतः बेल्जियम में संघीय समाज के कारण संघीय शासन-प्रणाली की भी आवश्यकता है यह एक ऐसा संघ होगा जिसमें विभिन्न क्षेत्र व प्रान्त सम्मिलित होंगे।भारतीय समाज भी एक संघीय समाज है जिसमें विभिन्न जाति, धर्म, संस्कृति, बोली व भाषा के लोग रहते हैं। भारत 29 राज्यों का संघ है। भारत में संघीय शासन-प्रणाली है परन्तु इसमें अनेक एकात्मक तत्त्व हैं जिन्हें भारतीय एकता, अखण्डता की सुरक्षा के लिए सम्मिलित किया गया है। संविधान की योजना के आधार पर केन्द्र व राज्यों में शक्तियों का विभाजन किया गया है। राज्य अपने क्षेत्र में प्रभावकारी है परन्तु मुख्य विषयों पर केन्द्र को शक्तिशाली बनाया गया है। शक्तियों का विभाजन भी केन्द्र के पक्ष में अधिक है यद्यपि प्रशासन के क्षेत्र में व विकास के क्षेत्र में केन्द्र व राज्य आपसी सहयोग के आधार पर काम करते हैं।
प्रश्न 4.
(क) केन्द्र और प्रदेशों के बीच शक्तियों का बँटवारा
(ख) वित्त-संसाधनों का वितरण
(ग) राज्यपालों की नियुक्ति
उत्तर :
बहुल समाज में सभी वर्गों के विकास के लिए वे उनके हितों की रक्षा के लिए प्रजातन्त्रीय संघीय शासन-प्रणाली आवश्यकता है। संघीय ढाँचे का निर्माण संविधान की योजना के आधार पर निर्धारित किया जाना चाहिए।संघीय शासन-प्रणाली की प्रमुख विशेषता केन्द्र व राज्यों के बीच शक्तियों के विभाजन से है। संघ का निर्माण संघीय सिद्धान्तों के आधार पर होना चाहिए जिसमें संघ राज्यों की मर्जी पर आधारित होना चाहिए।, प्रान्तीय व क्षेत्रीय विषयों पर राज्यों का ही नियन्त्रण रहना चाहिए। संघ के पास केवल राष्ट्रीय तथा अन्तर्राष्ट्रीय महत्त्व के विषय होने चाहिए। रक्षित शक्तियाँ राज्यों के पास होनी चाहिए। राज्यों की केन्द्र पर निर्भरता कम-से-कम होनी चाहिए। राज्यों के स्रोतों को राज्यों के विकास के लिए अधिक-से-अधिक उपयोग होना चाहिए। केन्द्र व राज्यों में आर्थिक स्रोतों का विभाजन विवेकपूर्ण आधार पर होना चाहिए।
राज्यपाल राज्यों का संवैधानिक मुखिया कहलाता है जिसकी नियुक्ति राष्ट्रपति द्वारा की जाती है। राष्ट्रपति राज्यपालों की नियुक्ति केन्द्र सरकार की सलाह पर करता है। राज्यपाल का पद राज्यों में महत्त्वपूर्ण पद है जो संवैधानिक मुखिया के साथ-साथ केन्द्र के प्रतिनिधि के रूप में कार्य करता है। राज्यपाल के पद की इस स्थिति के कारण इसका राजनीतिकरण हो गया है। अतः संघीय व्यवस्था की सफलता के लिए आवश्यक है कि इस पद का दुरुपयोग न हो व राज्यपाल की नियुक्ति में राज्यों के मुख्यमन्त्रियों का परामर्श लिया जाना चाहिए व इस पद पर योग्य व निष्पक्ष व्यक्ति की नियुक्ति की जानी चाहिए।
प्रश्न 5.
(क) सामान्य भाषा
(ख) सामान्य आर्थिक हित
(ग) सामान्य क्षेत्र
(घ) प्रशासनिक सुविधा
उत्तर :
यद्यपि अभी तक भारत में राज्यों का गठन 1956 के कानून के आधार पर भाषा आधारित होता रहा है परन्तु वर्तमान परिस्थितियों में प्रशासनिक सुविधा को राज्यों के पुनर्गठन का प्रमुख आधार माना जा रहा है जिससे लोगों को कुशल प्रशासन प्रदान किया जा सके जिसमें स्थानीय लोगों का विकास भी सम्भव हो सके।प्रश्न 6.
उत्तर :
यदि उत्तर भारत के प्रदेशों-राजस्थान, मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश तथा बिहार जो कि सभी हिन्दी भाषी हैं, सभी को मिला दिया जाए तो भाषाई व सांस्कृतिक दृष्टि से तो वे सभी एक-इकाई के रूप में इकट्ठे हो सकते हैं परन्तु प्रशासनिक सुविधा की दृष्टि से यह उचित नहीं होगा। संघीय प्रशासन का प्रमुख आधार प्रशासनिक सुविधा है। देश में छत्तीसगढ़, उत्तराखण्ड व झारखण्ड का निर्माण प्रशासनिक आधार पर किया गया है।प्रश्न 7.
उत्तर :
निम्नलिखित चार विशेषताएँ ऐसी हैं जिनके आधार पर केन्द्र को अधिक शक्तिशाली बनाया गया है-- केन्द्र के पक्ष में शक्तियों का विभाजन,
- राष्ट्रपति की आपातकालीन शक्तियाँ,
- राज्यों में राष्ट्रपति शासन की व्यवस्था,
- अखिल भारतीय सेवाओं की भूमिका।
प्रश्न 8.
उत्तर :
भारतीय राजनीति में वर्तमान में सर्वाधिक चर्चित पद राज्यपाल का है। देश के अधिकांश राज्यों को अपने यहाँ के राज्यपालों से किसी-न-किसी रूप में शिकायत रहती है। इसका एक प्रमुख कारण यह है कि अधिकांश राज्यपालों की राजनीतिक पृष्ठभूमि होती है जिसके आधार पर केन्द्र के शासक दल द्वारा उनकी नियुक्ति की जाती है। इस कारण राज्यपाल निरपेक्ष रूप से अपने कर्तव्यों को पूरा नहीं करते। इनकी भूमिका केन्द्र के प्रतिनिधि के रूप में होती है जिसके आधार पर इनकी जिम्मेदारी केन्द्र के हितों की रक्षा करना होता है परन्तु ये केन्द्र में जिस दल की सरकार होती है उसके रक्षक बन जाते हैं जिससे राज्यों की सरकारों और राज्यपालों में टकराव उत्पन्न हो जाता है।प्रश्न 9.
(क) राज्य की विधानसभा के मुख्य विपक्षी दल के दो सदस्यों को अपराधियों ने मार दिया है और विपक्षी दल प्रदेश की सरकार को भंग करने की माँग कर रहा है।
(ख) फिरौती वसूलने के लिए छोटे बच्चों के अपहरण की घटनाएँ बढ़ रही हैं। महिलाओं के विरुद्ध अपराधों में इजाफा हो रहा है।
(ग) प्रदेश में हुए हाल के विधानसभा चुनाव में किसी दल को बहुमत नहीं मिला है। भय है कि एक दल दूसरे दल के कुछ विधायकों से धन देकर अपने पक्ष में उनका समर्थन हासिल कर लेगा।
(घ) केन्द्र और प्रदेशों में अलग-अलग दलों का शासन है और दोनों एक-दूसरे के कट्टर शत्रु हैं।
(ङ) सांप्रदायिक दंगे में 200 से ज्यादा लोग मारे गए हैं।
(च) दो प्रदेशों के बीच चल रहे जल-विवाद में एक प्रदेश ने सर्वोच्च न्यायालय का आदेश मानने से इनकार कर दिया है।
उत्तर :
उपर्युक्त परिस्थितियों में (ग) में दिया गया उदाहरण राष्ट्रपति शासन लागू करने के लिए सबसे उपयुक्त है। ऐसी स्थिति में जब चुनाव के बाद किसी भी दल को आवश्यक बहुमत प्राप्त न हो तो इस बात की सम्भावना बढ़ जाती है कि राजनीतिक दलों द्वारा सरकार बनाने के प्रयास में जोड़-तोड़ की राजनीति व विधायकों की खरीद-फरोख्त प्रारम्भ हो जाती है।प्रश्न 10.
उत्तर :
1960 से निरन्तर विभिन्न राज्यों से प्रान्तीय स्वतन्त्रता की माँग निरन्तर उठाई जाती रही है। पश्चिम बंगाल, पंजाब, तमिलनाडु, जम्मू-कश्मीर व कुछ उत्तर पूर्वी राज्यों से विशेष रूप से यह माँग आती रही है-- केन्द्र व राज्यों के मध्य शक्तियों का विभाजन राज्यों के पक्ष में होना चाहिए।
- राज्यों की केन्द्र पर आर्थिक निर्भरता नहीं होनी चाहिए।
- राज्यों के मामलों में केन्द्र का कम-से-कम हस्तक्षेप होना चाहिए।
- राज्यपाल के पद का दुरुपयोग नहीं होना चाहिए व राज्यपाल की नियुक्ति में राज्यों में मुख्यमन्त्रियों का परामर्श लिया जाना चाहिए।
- सांस्कृतिक स्वायत्तता होनी चाहिए।
- सभी राज्यों का समान विकास होना चाहिए।
- संवैधानिक संस्थाओं का दुरुपयोग नहीं होना चाहिए।
प्रश्न 11.
उत्तर :
संघीय प्रशासन के सिद्धान्तों के अनुसार सभी राज्यों के साथ समान व्यवहार किया जाना चाहिए। सभी राज्यों में विकास कार्य समान होने चाहिए। भारत में ऐसा नहीं है। भारत में कुछ छोटे राज्य हैं, कुछ बड़े। राज्यसभा में राज्यों का असमान प्रतिनिधित्व है। जम्मू-कश्मीर को संविधान के अनुच्छेद 370 के अन्तर्गत विशेष दर्जा दिया गया है जिसके आधार पर जम्मू-कश्मीर की राज्य के रूप में अपनी प्रभुसत्ता है। इसी प्रकार से उत्तर-पूर्वी राज्यों (असम, मणिपुर, अरुणाचल प्रदेश व त्रिपुरा) के विकास के लिए विशेष प्रावधान हैं। इन राज्यों के राज्यपाल को विशेष शक्तियाँ प्राप्त हैं। कमजोर और पिछड़े राज्यों के विकास के लिए विशेष सुविधाएँ देना अनुचित नहीं है और न ही अन्य प्रदेशों को इससे असहमत होना चाहिए। सभी राज्यों की आवश्यकताओं को पूरा किया जाना चाहिए जिससे राष्ट्रीय एकता, अखण्डता को कोई खतरा उत्पन्न न हो।परीक्षोपयोगी प्रश्नोत्तर
बहुविकल्पीय प्रश्न
प्रश्न 1.
(क) सन् 1958 में
(ख) सन् 1962 में
(ग) सन् 1963 में
(घ) सन् 1964 में
उत्तर :
(क) सन् 1958 मेंप्रश्न 2.
(क) ऑस्ट्रेलिया
(ख) कनाडा
(ग) ब्रिटेन
(घ) संयुक्त राज्य अमेरिका
उत्तर :
(ख) कनाडाप्रश्न 3.
(क) के० सी० ह्वीयर
(ख) जी० एन० जोशी
(ग) के० सन्थानम,
(घ) डॉ० बी०आर० अम्बेडकर
उत्तर :
(ख) जी० एन० जोशी।प्रश्न 4.
(क) दुर्गादास बसु
(ख) जस्टिस सप्रू
(ग) एम०वी० पायली
(घ) रणजीत सिंह सरकारिया
उत्तर :
(ग) एम०वी० पायली।प्रश्न 5.
(क) 1950 ई० में
(ख) 1952 ई० में
(ग) 1954 ई० में
(घ) 1956 ई० में
उत्तर :
(ग) 1954 ई० मेंप्रश्न 6.
(क) 66
(ख) 97
(ग) 47
(घ) 100
उत्तर :
(ख) 97प्रश्न 7.
(क) 62
(ख) 64
(ग) 60
(घ) 72
उत्तर :
(क) 62प्रश्न 8.
(क) केन्द्र को
(ख) राज्य को
(ग) केन्द्र तथा राज्य दोनों को
(घ) केन्द्र-शासित प्रदेश को
उत्तर :
(ग) केन्द्र तथा राज्य दोनों कोप्रश्न 9.
(क) रक्षा
(ख) विदेश
(ग) वाणिज्य
(घ) शिक्षा
उत्तर :
(घ) शिक्षाप्रश्न 10.
(क) कृषि
(ख) जेल
(ग) पुलिस
(घ) वन
उत्तर :
(घ) वनप्रश्न 11.
(क) पूर्ण संघात्मक
(ख) अर्द्ध-संघात्मक
(ग) एकात्मक
(घ) कोई प्रभाव नहीं
उत्तर :
(ग) एकात्मक।प्रश्न 12.
(क) सन् 1947 में
(ख) सन् 1983 में
(ग) सन् 1984 में
(घ) सन् 1985 में
उत्तर :
(ख) सन् 1983 मेंप्रश्न 13.
(क) उत्तराखण्ड
(ख) छत्तीसगढ़
(ग) झारखण्ड
(घ) हरियाणा
उत्तर :
(क) उत्तराखण्ड।प्रश्न 14.
(क) गुजरात-महाराष्ट्र
(ख) उत्तराखण्ड-हिमाचल प्रदेश
(ग) तमिलनाडु-कर्नाटक
(घ) मध्य प्रदेश-महाराष्ट्र
उत्तर :
(ग) तमिलनाडु-कर्नाटकप्रश्न 15.
(क) पंजाब
(ख) मिजोरम
(ग) सिक्किम
(घ) जम्मू-कश्मीर
उत्तर :
(घ) जम्मू-कश्मीरअतिलघु उत्तरीय प्रश्न
प्रश्न 1.
उत्तर :
भारतीय संविधान संघात्मक भी है और एकात्मक भी।प्रश्न 2.
उत्तर :
- लिखित संविधान तथा
- स्वतन्त्र व निष्पक्ष न्यायपालिका
प्रश्न 3.
उत्तर :
- शक्तिशाली केन्द्र तथा
- इकहरी नागरिकता।
प्रश्न 4.
उत्तर :
भारत में राज्यों की कुल संख्या 29 है।प्रश्न 5.
उत्तर :
संघ सूची में 97 विषय हैं।प्रश्न 6.
उत्तर :
- रक्षा तथा
- वैदेशिक मामले।
प्रश्न 7.
उत्तर :
- फौजदारी विधि एवं प्रक्रिया और
- शिक्षा
प्रश्न 8.
उत्तर :
समवर्ती सूची के विषयों पर केन्द्र सरकार तथा राज्य सरकार दोनों को ही कानून बनाने का अधिकार है।प्रश्न 9.
उत्तर :
यदि राज्यसभा अपने 2/3 बहुमत से राज्य सूची में निहित किसी विषय को राष्ट्रीय महत्त्व का घोषित कर दे।प्रश्न 10.
उत्तर :
- केन्द्रीय उत्पाद शुल्क तथा
- आयकर।
प्रश्न 11.
उत्तर :
संघ सूची के विषयों पर कानून बनाने का एकमात्र अधिकार भारतीय संसद को है।प्रश्न 12.
उत्तर :
शिखा को समवर्ती सूची में सम्मिलित किया गया है।प्रश्न 13.
उत्तर :
भारतीय संविधान में विधायी शक्तियों का विभाजन निम्नलिखित तीन सूचियों में किया गया- संघ सूची
- समवर्ती सूची तथा
- राज्य सूची।
प्रश्न 14.
उत्तर :
राज्य सूची में 62 विषय हैं।प्रश्न 15.
उत्तर :
समवर्ती सूची में विषयों की संख्या 52 है।प्रश्न 16.
उत्तर :
वित्त आयोग की नियुक्ति राष्ट्रपति करती है।प्रश्न 17.
उत्तर :
राज्य पुनर्गठन आयोग के अध्यक्ष फजल अली थे।प्रश्न 18.
उत्तर :
संघ और इकाइयों के बीच विवादों को हल करने के लिए संघात्मक राज्य में एक उच्चतम (सर्वोच्च) न्यायालय का होना आवश्यक है।प्रश्न 19.
उत्तर :
भारत 29 राज्यों तथा 7 संघशासित प्रदेश से बना हुआ एक संघ है और इसमें संघात्मक राज्य की सभी विशेषताएँ हैं, इसलिए इसे संघात्मक राज्य कहा जा सकता है।प्रश्न 20.
उत्तर :
- संविधान की सर्वोच्चता तथा
- केन्द्र व राज्यों में शक्तियों का विभाजन।
प्रश्न 21.
उत्तर :
राज्य सूची पर राज्य सरकार कानून बनाती है, परन्तु यदि कोई विषय राष्ट्रीय महत्त्व का घोषित किए जाने पर, उस पर कानून बनाने का अधिकार केन्द्र सरकार को प्राप्त हो जाता है।प्रश्न 22.
उत्तर :
संविधान का अनुच्छेद 370 जम्मू-कश्मीर राज्य से संबंधित है।लघु उतरीय प्रश्न
प्रश्न 1.
उत्तर :
संघात्मक शासन व्यवस्था वह शासन व्यवस्था होती है जिसमें दो प्रकार की सरकारें होती हैं। वह सरकार, जो समस्त देश का प्रशासन करती है, ‘संघीय सरकार’ कहलाती है तथा दूसरी वह सरकार, जो राज्य का प्रशासन करती है, ‘राज्य-सरकार’ कहलाती है। फ्रीमैन के शब्दों में, “संघात्मक शासन वह है जो दूसरे राष्ट्रों के साथ संबंध में एक राज्य के समान हो, परन्तु आन्तरिक दृष्टि से यह अनेक राज्यों का योग हो।’ डायसी के शब्दों में, “संघात्मक राज्य एक ऐसे राजनीतिक उपाय के अतिरिक्त कुछ नहीं है जिसका उद्देश्य राष्ट्रीय एकता तथा राज्यों के अधिकारों में मेल स्थापित करना है।”प्रश्न 2.
उत्तर :
केन्द्र तथा राज्यों के मध्य संबंधों के विश्लेषण से यह स्पष्ट हो जाता है कि भारत में केन्द्रीय सरकार को अधिक शक्तिशाली बनाने का प्रयास किया गया है। राज्यों की स्वायत्तता की अपेक्षा केन्द्र को शक्तिशाली बनाने पर अत्यधिक बल दिया गया है। वास्तव में, बजाय इसके कि केन्द्र के हस्तक्षेप पर प्रतिबन्ध लगाए जाते, संविधान ने राज्यों की शक्तियों पर प्रतिबंध लगाए हैं। भारतीय संविधान में अनेक ऐसे प्रावधानों की व्याख्या की गई है, जिन्होंने राज्यों की स्थिति पर विपरीत प्रभाव डाला है तथा राज्यों को संघ सरकार के अधीन कर दिया है। इस स्थिति को देखते हुए आलोचकों को यह कहने का अवसर प्राप्त हुआ है कि भारतीय संघ पूर्ण रूप से एक संघीय राज्य नहीं है।प्रश्न 3.
उत्तर :
संघ (केन्द्र) सूची के अन्तर्गत उन विषयों को रखा गया है, जिन पर केवल केन्द्र सरकार ही कानूनों का निर्माण कर सकती है। ये विषय बहुत महत्त्वपूर्ण एवं राष्ट्रीय स्तर के हैं। संघ सूची में 97 विषय हैं। इस सूची में प्रमुख विषय–रक्षा, वैदेशिक मामले, युद्ध व सन्धि तथा बैंकिंग हैं।प्रश्न 4.
उत्तर :
औपचारिक रूप में और कानूनी दृष्टि से इन तीनों सूचियों के विषयों की संख्या वही बनी हुई है। जो मूल संविधान में है। लेकिन 42वें संविधान संशोधन द्वारा राज्य-सूची के चार विषय (शिक्षा, वन, जंगली पशु तथा पक्षियों की रक्षा एवं नाप-तौल) समवर्ती सूची में सम्मिलित कर दिये गये हैं और समवर्ती सूची में इन चार के अतिरिक्त एक नवीन विषय ‘जनसंख्या नियन्त्रण और परिवार नियोजन’ भी सम्मिलित किया गया है। इस सूची में साधारणतया वे विषय रखे गये हैं जिनका महत्त्व क्षेत्रीय एवं संघीय दोनों ही दृष्टियों से है। इस सूची के विषय पर संघ तथा राज्य दोनों को ही कानून बनाने का अधिकार प्राप्त है। यदि इस सूची के किसी विषय पर संघीय तथा राज्य सरकार द्वारा बनाये गये कानुन परस्पर विरोधी हों तो सामान्यतया संघ का कानुन मान्य होगा। इस सूची में कुल 52 विषय हैं, जिनमें से कुछ प्रमुख हैं-फौजदारी विधि तथा प्रक्रिया, निवारक निरोध, विवाह एवं विवाह-विच्छेद, दत्तक एवं उत्तराधिकार, कारखाने, श्रमिक संघ, औद्योगिक विवाद, आर्थिक और सामाजिक योजना, सामाजिक सुरक्षा और सामाजिक बीमा, पुनर्वास और पुरातत्त्व, शिक्षा, जनसंख्या नियन्त्रण और परिवार नियोजन, वन इत्यादि।प्रश्न 5.
उत्तर :
भारत के संविधान में शक्तिशाली केन्द्र की स्थापना इसलिए की गई है, क्योकि –- यह भारत की एकता तथा अखण्डता की परिचायक है।
- यह भारत में एकता बनाए रखने का महत्त्वपूर्ण एवं शक्तिशाली साधन है।
- समस्त भारत की प्रगति और उन्नति के लिए शक्तिशाली केन्द्र आवश्यक है।
- भारत का इतिहास इस बात को सिद्ध करता है कि जब-जब भारत में केन्द्रीय सत्ता कमजोर हुई है,
भारत पर विदेशी राज्यों का आक्रमण हुआ तथा भारत छोटे-छोटे राज्यों की आन्तरिक फूट के कारण अनेक वर्षों तक दासता की जंजीरों में जकड़ा रहा। इसीलिए भारत के संविधान-निर्माताओं ने सोच-विचार कर शक्तिशाली केन्द्र की स्थापना की।
प्रश्न 6.
उत्तर :
भारत में संघीय व्यवस्था का भविष्य केन्द्र-राज्य संबंधों के सफल संचालन पर निर्भर करता है। केन्द्र तथा राज्यों का संबंध कतिपय तात्कालिक समस्याओं के समाधान पर निर्भर करेगा। ये समस्याएँ हैं-केन्द्र द्वारा राज्यों को अपने क्षेत्र में अधिक-से-अधिक स्वतन्त्रता प्रदान करना, केन्द्रीय वित्तीय संसाधनों का राज्यों के मध्य न्यायपूर्ण विभाजन, खाद्य समस्या तथा रिजर्व बैंक में राज्यों द्वारा ओवर ड्राफ्ट लेना। इन समस्याओं में दोनों सरकारों के बीच सहयोग होना चाहिए न कि प्रतिस्पर्धा तथा विरोध।प्रश्न 7.
उत्तर :
भारतीय संघवाद के विशिष्ट लक्षण निम्नलिखित हैं –- संविधान के उपबन्धों द्वारा औपचारिक रूप में स्थापित, भारतीय संघीय व्यवस्था का स्वरूप प्रादेशिक है।
- भारतीय संघवाद क्षैतिज है जिसका एक सशक्त केन्द्र के प्रति झुकाव है।
- भारतीय संघ इस रूप में लचीला है कि वह विशेषतया संकटकाल में एकात्मकस्वरूप में सहजता से बदला जा सकता है।
- भारतीय संघ व्यवस्था इस रूप में सहकारी है कि वह सामान्य हितों के मामले में केन्द्र तथा राज्यों से सहयोग की अपेक्षा करती है।
- केन्द्र पर एक दल के आधिपत्य के कारण संघ का स्वरूप एकात्मक हो गया है।
प्रश्न 8.
उत्तर :
भारतीय संविधान में राज्यों में राष्ट्रपति शासन की व्यवस्था अनुच्छेद 356 के अन्तर्गत की गई है। यह निम्नलिखित परिस्थितियों में लागू किया जा सकता है –- किसी राज्य में कानून व्यवस्था भंग हो जाने की स्थिति में।
- राज्य में राजनैतिक अस्थिरता की स्थिति में।
- किसी भी दल को चुनाव के बाद सरकार बनाने के लिए आवश्यक बहुमत प्राप्त न हुआ हो। और सरकार का गठन सम्भव न होने की स्थिति में।
- सरकार संविधान के अनुसार न चलाई जा रही हो अर्थात् राज्य में केन्द्र सरकार के कानूनों व आदेशों की अवहेलना हो रही हो।
उपर्युक्त स्थितियों में से एक स्थिति में भी राज्यपाल अपने विवेक के आधार पर निर्णय लेकर राष्ट्रपति शासन की सिफारिश कर सकता है।
प्रश्न 9.
उत्तर :
जिन शक्तियों को राज्यपाल स्वयं मुख्यमंत्री व मन्त्रिमण्डल के परामर्श के बिना प्रयोग करता है, उन्हें उसकी विवेकीय शक्तियाँ कहते हैं। राज्यपाल के पास अनेक विवेकीय शक्तियाँ हैं जिनमें प्रमुख निम्नलिखित हैं –- राज्यपाल किसी ऐसे बिल को, जिसे विधानसभा ने पास कर दिया हो, राष्ट्रपति की स्वीकृति के लिए भेज सकता है।
- जब चुनाव के बाद, राज्य में किसी भी दल को सरकार बनाने के लिए आवश्यक बहुमत प्राप्त न हो तो राज्यपाल अपने विवेक के आधार पर किसी दल के नेता को सरकार बनाने के लिए आमन्त्रित करता है।
- कानून व्यवस्था का मूल्यांकन व राजनीतिक अस्थिरता का मूल्यांकन करना।
- राष्ट्रपति शासन की सिफारिश करना।
प्रश्न 10.
उत्तर :
भारतीय संविधान यद्यपि संघात्मक है परन्तु उसमें अनेक एकात्मक तत्त्वों का भी समावेश किया गया है। इसी कारण के० सी० क्लीयर ने इसे ‘अर्द्ध-संघात्मक राज्य की संज्ञा प्रदान की है। भारत की संघात्मक व्यवस्था में निम्नलिखित एकात्मक तत्त्व पाए जाते हैं –- भारत में इकहरी नागरिकता है।
- भारत का इकहरा संविधान है।
- न्यायपालिका का स्वरूप एकीकृत है।
- आपातकालीन स्थिति में राज्य का संघात्मक रूप एकात्मक में परिणत हो जाता है।
- राज्य में राज्यपालों की नियुक्ति राष्ट्रपति द्वारा होती है।
- राज्य को केन्द्र से पृथक् होने का अधिकार नहीं है।
- संसद के उच्च सदन में राज्यों को समान प्रतिनिधित्व प्रदान नहीं किया गया है।
- केन्द्र; राज्यों की सीमाओं, नामों में परिवर्तन करके नए राज्य का निर्माण कर सकता है।
- केन्द्र द्वारा अनुच्छेद 356 के अन्तर्गत राज्य में राष्ट्रपति शासन लागू किया जा सकता है।
प्रश्न 11.
उत्तर :
वर्तमान में अनुच्छेद 370 विवादास्पद बना हुआ है क्योंकि इसके कारण कश्मीर को विशेष स्थिति प्राप्त है जो उसको शेष भारत से मनोवैज्ञानिक ढंग से पृथक् करती है। कश्मीर को यह विशेष स्थिति तत्कालीन अंतर्राष्ट्रीय स्थिति को देखते हुए अस्थायी रूप से प्रदान की गई थी परन्तु राजनीतिज्ञों न इसे राजनीतिक लाभ के लिए स्थायी बना दिया। अनुच्छेद 370 के कारण ही कश्मीर को अपना अलग संविधान बनाने का अधिकार प्राप्त हुआ है। भारतीय संघ में केवल जम्मू-कश्मीर ही ऐसा राज्य है जिसका पृथक् संविधान है। वहाँ पर कोई भी गैर कश्मीरी भारतीय, भूमि नहीं खरीद सकता है तथा स्थायी रूप से निवास नहीं बना सकता है जबकि 1947 ई० में कश्मीर से पाकिस्तान गए लोगों को पुनः कश्मीर वापस लौटने तथा वहाँ बसने का अधिकार है।दीर्घ लघु उत्तरीय प्रश्न
प्रश्न 1.
उत्तर :
विश्व के अनेक राज्यों में संघात्मक शासन व्यवस्था को अपनाया गया है। स्वतन्त्रता-प्राप्ति के उपरान्त भारत में भी संघात्मक शासन व्यवस्था की नींव डाली गई। हमने अपनी संघात्मक व्यवस्था को अमेरिका से न लेकर कनाडा से ग्रहण किया है। हमने संघ के लिए यूनियन शब्द का प्रयोग किया है। भारत के संघ को विद्वानों ने कमजोर संघ अथवा अर्द्ध-संघ के नाम से सम्बोधित किया है। भारत के संघ में संघात्मक सरकार के सभी लक्षणों का समावेश किया गया है परन्तु फिर भी भारत का संघात्मक स्वरूप अन्य संघों से अनेक प्रकार से भिन्न है। जैसे(1) भारतीय संविधान में कहीं पर भी संघात्मक शब्द का प्रयोग नहीं किया गया है, इसमें केवल यह कहा गया है कि भारत राज्यों का संघ है।
(2) दूसरे संघों में केन्द्र की तुलना में राज्यों को अधिक शक्तियाँ प्रदान की गई हैं परन्तु भारत में राज्यों की तुलना में केन्द्र को अधिक शक्तियाँ प्रदान की गई हैं। संघ की सूची में वर्णित विषयों की संख्या 97 है जबकि राज्यों को मात्र 62 विषय प्रदान किए गए हैं। समवर्ती सूची में 52 विषयों को सम्मिलित किया गया है। समवर्ती सूची पर केन्द्र तथा राज्यों (दोनों) को कानून-निर्माण करने की शक्ति प्रदान की गई है परन्तु यदि इन दोनों के निर्मित कानूनों में। टकराव की स्थिति उत्पन्न हो जाती है तो केन्द्र के कानून को मान्यता प्राप्त होती है।
(3) आपातकालीन स्थिति में भारतीय संघीय व्यवस्था एकात्मक में परिवर्तित हो जाती है।
(4) हमारे संघ का निर्माण इस प्रकार से नहीं हुआ है, जैसे अमेरिका के संघ का निर्माण हुआ था। हमने भारत के विभिन्न राज्यों का समय-समय पर विभाजन करके नए-नए राज्यों का निर्माण किया है जबकि अन्य संघात्मक राज्यों में स्वतन्त्र तथा सम्प्रभु राज्य सम्मिलित हुए थे।
(5) केन्द्रीय विधायिका (संसद) किसी भी राज्य की सीमा में परिवर्तन कर सकती है, यहाँ तक कि वह किसी भी राज्य को समाप्त करके नए राज्य का निर्माण कर सकती है जबकि अन्य संघात्मक राज्यों में इस स्थिति को नहीं अपनाया गया है।
प्रश्न 2.
उत्तर :
भारतीय संविधान ने संघात्मक शासन-प्रणाली की व्यवस्था की है। भारत में वर्षों तक अंग्रेजों का शासन रहा। भारत की अपनी परिस्थितियाँ ऐसी थीं कि अंग्रेजों ने भी 1935 के अधिनियम द्वारा भारत में संघीय प्रणाली की व्यवस्था की थी। स्वतन्त्रता के पश्चात् संविधान निर्माताओं ने इसी व्यवस्था को अपनाया। भारतीय संविधान निर्माताओं द्वारा निम्नलिखित कारणों से संघात्मक व्यवस्था को अपनाया गया –- भारत भौगोलिक क्षेत्रफल की दृष्टि से एक उप-महाद्वीप के समान है जिसमें प्रशासनिक दृष्टिकोण से संघात्मक व्यवस्था ही उपयुक्त हो सकती थी।
- भारतीय समाज में विभिन्न धर्म, भाषा, जाति, संस्कृति आदि पाए जाते हैं जिनमें सामंजस्य स्थापित करने के लिए संघात्मक व्यवस्था ही उचित समझी गई।
- अंग्रेजों ने भारत को स्वतन्त्र करने के साथ-साथ देशी रियासतों को भी स्वतन्त्र कर दिया था। इन देशी रियासतों को भारत में मिलाने के लिए संघात्मक व्यवस्था ही उपयुक्त थी। इसके द्वारा । स्थानीय स्वायत्तता तथा राष्ट्रीय एकता दोनों लक्ष्यों की प्राप्ति हो जाती है।
- भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस ने राष्ट्रीय आंदोलन के दौरान सदैव संघात्मक व्यवस्था की माँग की थी।
- भारतीयों को संघात्मक व्यवस्था का अनुभव भी था क्योंकि 1935 में भारत सरकार अधिनियम के अन्तर्गत संघात्मक व्यवस्था ही अपनाई गई थी।
संविधान सभा में डॉ० बी०आर० अम्बेडकर ने स्पष्ट रूप से कहा था कि यह एक संघीय संविधान है क्योंकि यह दोहरे शासन तन्त्र की व्यवस्था करता है जिसमें केंद्र में सघीय सरकार तथा उसके चारों ओर परिधि में राज्य सरकारें हैं जो संविधान द्वारा निर्धारित क्षेत्रों में सर्वोच्च सत्ता का प्रयोग करती हैं।
प्रश्न 3.
उत्तर :
राज्य का अध्यक्ष राज्यपाल होता है। उसकी नियुक्ति राष्ट्रपति द्वारा की जाती है और वह राष्ट्रपति के प्रसादपर्यन्त अपने पद पर रहता है। राज्यपाल की नियुक्ति पाँच वर्ष के लिए की जाती है; परन्तु वास्तविकता यह है कि वह अपनी नियुक्ति तथा पदच्युति के लिए केंद्रीय सरकार पर आश्रित रहता है। उसकी यही आश्रियता केंद्र तथा राज्य संबंधों में तनाव का कारण बन जाती है।जब केंद्र तथा राज्य में विभिन्न दलों की सरकार हो तो राज्य सरकार यह दावा करती है कि राज्यपाल की नियुक्ति उसके परामर्श से की जाए। परन्तु केंद्रीय सरकार अपनी पसंद के व्यक्ति को इस पद पर नियुक्त करके राज्य सरकार पर नियन्त्रण रखने का प्रयत्न करती है।
राज्यपाल को कुछ ऐसे अधिकार भी प्राप्त हैं जिनका प्रयोग वह अपनी इच्छा से करता है, मंत्रिमण्डल की सलाह पर नहीं। ये अधिकार महत्त्वपूर्ण भी हैं। राज्य में संवैधानिक मशीनरी के असफल होने की रिपोर्ट वह अपने विवेक से करता है जिसके आधार पर केंद्र राज्य में राष्ट्रपति शासन लागू करता है। केंद्र ने अनेक बार उन राज्यों से जहाँ अन्य दल की सरकार थी, राज्यपाल से मनमाने ढंग से ऐसी रिपोर्ट ली और राष्ट्रपति शासन लागू कराया। राज्यपाल के ऐसे कार्यों ने केंद्र-राज्य संबंधों में तनाव को बढ़ाया है। दिसम्बर 1992 की अयोध्या घटना के पश्चात् केंद्र ने भाजपा द्वारा शासित चारों राज्योंउत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, हिमाचल प्रदेश तथा राजस्थान में राज्यपाल की रिपोर्टों के आधार पर राष्ट्रपति , शासन लागू कर दिया था।
राज्यपाल का एक अधिकार जिसका प्रयोग वह अपने विवेक से करता है और राज्यपालों ने केंद्रीय सरकार के हित में इसका अत्यधिक प्रयोग किया है, वह है राज्य विधानमण्डल द्वारा पास किए गए। किसी बिल को राष्ट्रपति की स्वीकृति के लिए भेजना। इससे राज्य की विधायिका शक्ति प्रभावित होती है और बिल राष्ट्रपति के पास बहुत दिनों तक उसकी स्वीकृति के लिए पड़े रहते हैं। इस प्रकार केंद्र-राज्य संबंधों की दृष्टि से राज्यपाल की भूमिका अत्यन्त विवादास्पद रही है और इसने केंद्र और राज्यों के बीच कटुता और तनाव की स्थिति को बढ़ाया है।
प्रश्न 4.
उत्तर :
केन्द्र तथा राज्यों के मध्य तनाव के राजनीतिक कारण केन्द्र तथा राज्य सम्बन्धों का राजनीतिक पक्ष बहुत मुखरित रहा है। केन्द्र तथा राज्य सरकारें एक-दूसरे पर आरोप-प्रत्यारोप लागती हैं, जिन्हें अग्रनुसार रखा जा सकता है –(1) केन्द्र तथा राज्य सरकारों द्वारा एक – दूसरे पर संकीर्ण दलबन्दी की भावना के अनेक आरोप लगाए जाते रहे हैं। केन्द्र में कांग्रेसी शासन के साथ जब कभी किसी राज्य में गैर कांग्रेसी सरकार बनी तो उसका यही आरोप रहा कि केन्द्र राज्य सरकार को गिराने अथवा नीचा दिखाने को प्रयत्नशील है। दूसरी ओर केन्द्र का यह आरोप रहा है कि राज्य सरकार केन्द्र के साथ असहयोग की राजनीति कर रही है। इस तरह के आरोपों-प्रत्यारोपों से पारस्परिक संबंधों में तनाव पैदा होता है।
(2) डॉ० मिश्र ने लिखा है, “कुछ विपक्षी दल क्षेत्रीय साम्प्रदायिक भावनाओं की मदद से जनता में लोकप्रिय होना चाहते हैं तथा क्षेत्रीय स्तर पर निर्वाचन में सफलता प्राप्त करने के उद्देश्य से केन्द्र तथा राज्य के मध्य तनाव पैदा करते हैं। कुछ वामपन्थी दल, जिनकी लोकप्रियता कुछ क्षेत्रों तक सीमित है निर्वाचन नीति के रूप में केन्द्र के विरुद्ध राजनीतिक प्रचार करते हैं।”
केन्द्र तथा राज्यों के मध्य तनाव के व्यावहारिक कारण
केन्द्र तथा राज्य संबंधों में तनाव के लिए कतिपय व्यावहारिक कारण भी उत्तरदायी रहे हैं, जिनका उल्लेख निम्नानुसार किया जा सकता है –
- केन्द्र तथा राज्यों में ये तनाव पैदा हो जाता है कि राज्य द्वारा आर्थिक अनुदान अथवा आर्थिक सहायता माँगने पर केन्द्रीय सरकार एक ओर तो उदार रवैया न अपनाकर यह आरोप लगाती है। कि राज्य सरकारें अपने स्वयं के राजस्व स्रोतों का समुचित विदोहन नहीं करतीं। केन्द्र का यह भी आरोप रहा है कि कुछ राज्य सरकारें उपलब्ध राशि को विकास योजनाओं पर उचित समय पर व्यय नहीं करतीं।
- ओवर-ड्राफ्ट को लेकर केन्द्र एवं राज्यों के मध्य संघर्ष तथा तनाव की स्थिति बनी रहती है।
- अंतर्राज्यीय विवादों को हल करने के संबंध में केन्द्र सरकार की निष्पक्षता को लेकर भी आरोप-प्रत्यारोप लगाए जाते रहे हैं।
प्रश्न 5.
उत्तर :
भारत की संघीय व्यवस्था में नए राज्यों के गठन की माँग को लेकर भी तनाव रहा है। राष्ट्रीय आन्दोलन ने अखिल भारतीय राष्ट्रीय एकता को नहीं बल्कि समान भाषा, क्षेत्र और संस्कृति के आधार पर एकता को भी जन्म दिया। हमारा राष्ट्रीय आन्दोलन लोकतन्त्र के लिए भी एक आन्दोलन था। अतः राष्ट्रीय आन्दोलन के दौरान यह भी तय किया गया कि यथासम्भव समान संस्कृति और भाषा के आधार पर राज्यों का गठन होगा।इससे स्वतन्त्रता के बाद भाषाई आधार पर राज्यों के गठन की माँग उठी। सन् 1954 में राज्य पुनर्गठन आयोग की स्थापना की गई जिसने प्रमुख भाषाई समुदायों के लिए भाषा के आधार पर राज्यों के गठन की सिफारिश की सन् 1956 में कुछ राज्यों का पुनर्गठन हुआ। इससे भाषाई आधार पर राज्यों के गठन की शुरुआत हुई और यह प्रक्रिया आज भी जारी है। सन् 1960 में गुजरात और महाराष्ट्र का गठन हुआ; सन् 1966 में पंजाब और हरियाणा को अलग-अलग किया गया। बाद में पूर्वोत्तर के राज्यों का पुनर्गठन किया गया और अनेक नए राज्यों; जैसे—मेघालय, मणिपुर और अरुणाचल प्रदेश अस्तित्व में आए।
1990 के दशक में नए राज्य बनाने की माँग को पूरा करने तथा अधिक प्रशासकीय सुविधा के लिए कुछ बड़े राज्यों का विभाजन किया गया। बिहार, उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश को विभाजित कर तीन नए राज्य क्रमश: झारखण्ड, उत्तराखण्ड और छतीसगढ़ बनाए गए। कुछ क्षेत्र और भाषाई समूह अब भी अलग राज्य के लिए संघर्ष कर रहे हैं जिनमें आन्ध्र प्रदेश में तेलंगाना, उत्तर प्रदेश में हरित प्रदेश और महाराष्ट्र में विदर्भ प्रमुख हैं। सन् 2014 में आन्ध्र प्रदेश को विभाजित कर ‘तेलंगाना राज्य का गठन कर दिया गया।
दीर्घ उत्तरीय प्रश्न
प्रश्न 1.
या
“भारत का संविधान संघात्मक भी है और एकात्मक भी।” व्याख्या कीजिए।
या
“भारतीय संविधान का रूप संघात्मक है, लेकिन उसकी आत्मा एकात्मक।” इस कथन की समीक्षा कीजिए।
या
भारत के संघवाद के पक्ष में चार तर्क दीजिए।
या
“भारत एक संघात्मक राज्य है।” इस कथन का आलोचनात्मक परीक्षण कीजिए।
या
भारतीय संघात्मक व्यवस्था के एकात्मक लक्षणों का वर्णन कीजिए।
या
भारतीय संविधान में संघ और राज्यों के बीच शक्तियों में बँटवारे का आधार और महत्त्व बताइए।
उत्तर :
भारत एक विशाल तथा विभिन्नताओं वाला राज्य है। इस प्रकार के राज्य का प्रबन्ध एक केन्द्रीय सरकार द्वारा सफलतापूर्वक चलाया जाना कठिन ही नहीं अपितु असम्भव भी है। इसी कारण भारत में संघीय शासन-व्यवस्था को अपनाया गया है। लेकिन इसके बावजूद भारत में संघात्मक स्वरूप सम्बन्धी विवाद पाया जाता है, क्योंकि भारतीय संविधान में न तो कहीं ‘संघात्मक और न ही कहीं ‘एकात्मक’ शब्द का प्रयोग किया गया है।भारतीय संविधान के संघीय स्वरूप सम्बन्धी अपने विचारों को व्यक्त करते हुए प्रो० डी० एन० बनर्जी ने उचित ही कहा है कि “भारतीय संविधान स्वरूप में संघात्मक तथा भावना में एकात्मक है।” भारतीय संविधान के संघीय स्वरूप को भली प्रकार से समझने के लिए हमें इसके दोनों पक्षों (संघात्मक तथा एकात्मक) का अध्ययन करना पड़ेगा जो कि निम्नलिखित हैं
भारतीय संविधान की संघीय विशेषताएँ (लक्षण)
हालांकि भारतीय संविधान में ‘संघ’ शब्द का उपयोग नहीं किया गया है, लेकिन फिर भी व्यवहार में संघात्मक शासन-प्रणाली को ही स्वीकार किया गया है। भारतीय संविधान में कहा गया है कि भारत राज्यों का एक ‘संघ’ होगा। इस तथ्य की अवहेलना नहीं की जा सकती कि भारतीय संविधान में एकात्मक तत्त्व विद्यमान हैं, लेकिन यह भी अटल सत्य है कि भारतीय संविधान में संघात्मक प्रणाली के भी समस्त लक्षण विद्यमान हैं, जिन्हें निम्नलिखित रूप में व्यक्त किया जा सकता है –
(1) संविधान की सर्वोच्चता – संघात्मक शासन में संविधान को सर्वोच्च स्थान दिया जाता है। संविधान और संविधान द्वारा बनाये गये कानून देश के सर्वोच्च कानून होते हैं। भारतीय संविधान में संवैधानिक सर्वोच्चता का उल्लेख नहीं है, लेकिन फिर भी संविधान की सर्वोच्चता को इस रूप में स्वीकार किया गया है कि भारतीय राष्ट्रपति, संसद इत्यादि सभी संविधान से शक्तियाँ ग्रहण करते हैं और वे संविधान से ऊपर नहीं हैं। इसके अतिरिक्त, भारतीय राष्ट्रपति द्वारा शपथ ग्रहण करते समय यह स्पष्ट किया जाता है कि वह संविधान की रक्षा करेंगे इसके साथ ही भारत की संसद अथवा विधानसभा द्वारा ऐसा कोई कानून पारित नहीं किया जा सकता जो संविधान के विपरीत हो। अतः कहा जा सकता है कि भारत में संविधान की सर्वोच्चता को स्वीकार किया गया है।
(2) लिखित संविधान – संघात्मक शासन का एक लक्षण संविधान का लिखित होना भी है। यहाँ पर यह प्रश्न उत्पन्न होना स्वाभाविक ही है कि संघात्मक राज्य का संविधान लिखित होना क्यों आवश्यक है? लिखित संविधान स्थायी होता है और इसके सम्बन्ध में बाद में मतभेद उत्पन्न होने की सम्भावना बहुत ही कम होती है। चूंकि संघात्मक शासन में दोहरा शासन अर्थात्के न्द्रीय शासन तथा प्रान्तों का शासन होता है, इसलिए इसमें विवादों की सम्भावना बनी रहती है। लेकिन यदि लिखित संविधान के अनुसार प्रत्येक बात को लिखित रूप में दिया गया हो तो फिर परस्पर मतभेद उत्पन्न होने की सम्भावना कम-से-कम हो जाती है।
(3) कठोर संविधान – जब संवैधानिक कानून को साधारण कानून से ऊँचा दर्जा दिया जाता है और संवैधानिक कानून को परिवर्तित करने हेतु साधारण कानून के निर्माण की प्रक्रिया से पृथक् तरीका अपनाया जाता है तो संविधान कठोर होता है। इस दृष्टि से भारतीय संविधान भी कठोर संविधान की श्रेणी में आता है। इसमें साधारण विषयों को छोड़कर महत्त्वपूर्ण संशोधन करने के लिए संघ राज्य के साथ-साथ इकाई राज्यों के सहयोग की भी आवश्यकता होती है। कठोर संविधान होने के कारण ही उसमें संशोधन प्रक्रिया जटिल है।
(4) विषयों का विभाजन – शासन के संघात्मक स्वरूप का एक लक्षण यह भी है कि इसमें विषयों का विभाजन किया जाता है। भारतीय संविधान में भी विषयों का विभाजन किया गया है। इस दृष्टि से भारतीय संविधान में तीन सूचियाँ हैं—संघीय सूची जिसमें 98 विषय हैं और जिन पर संसद ही कानून बना सकती है। राज्य सूची जिसमें 62 विषय हैं और जिन पर सामान्यतया राज्यों की विधानसभाएँ ही कानून बनाती हैं। समवर्ती सूची जिसके अन्तर्गत 52 विषय हैं और जिन पर संसद एवं विधानसभा दोनों ही कानून बना सकती हैं। अवशिष्ट विषय संघीय सरकार को सौंपे गये हैं।
(5) दोहरी शासन-व्यवस्था – संघात्मक शासन-प्रणाली में दोहरी शासन-व्यवस्था – (i) केन्द्र सरकार तथा (ii) प्रान्तों की सरकार होती है। भारत में केन्द्र सरकार नयी दिल्ली में है जो कि सम्पूर्ण देश को शासन-प्रबन्ध करती है और दूसरी सरकार प्रत्येक प्रान्त की राजधानी में है जो प्रान्त के हितों को ध्यान में रखती है।
(6) द्विसदनात्मक विधानमण्डल – संघीय सरकार में द्विसदनीय विधानमण्डल की व्यवस्था की जाती है। भारतीय संविधान के अनुच्छेद 79 के अनुसार भारत में भी द्विसदनीय विधानमण्डल का प्रबन्ध है, जिसे संघीय संसद कहा जाता है। भारतीय संघीय संसद के उच्च सदन का नाम राज्यसभा है। संघीय संसद के निम्न (निचले) सदन का नाम लोकसभा है इसके सदस्य एक-सदस्यीय निर्वाचन क्षेत्रों में जनसाधारण द्वारा प्रत्यक्ष रूप से चुने जाते हैं।
(7) न्यायपालिका की सर्वोच्चता – संघात्मक शासन में अन्य अंगों से न्यायपालिका को सर्वोच्च स्तर दिया जाता है; क्योंकि
- संविधान की रक्षा हेतु
- संविधान की व्याख्या करने हेतु तथा
- केन्द्र एवं राज्यों के विवादों का निपटारा करने के लिए ऐसा करना आवश्यक है।
भारतीय संविधान में भी केन्द्र में सर्वोच्च न्यायालय तथा राज्यों में उच्च न्यायालय का प्रबन्ध करके इन्हें स्वतन्त्र बनाये रखने हेतु सभी व्यवस्थाएँ की गयी हैं। ये न्यायपालिकाएँ भारतीय संविधान के संरक्षक के रूप में कार्य करती हैं।
भारतीय संविधान की एकात्मक विशेषताएँ (लक्षण)
(1) इकहरी (एकल) नागरिकता – एकात्मक सरकार में इकहरी नागरिकता के सिद्धान्त को अपनाया जाता है, व्यक्ति प्रान्तों के नागरिक न होकर सम्पूर्ण देश के नागरिक होते हैं भारतीय संविधान के अन्तर्गत इसी सिद्धान्त को स्वीकार किया गया है अर्थात् सभी भारतीयों को चाहे वे किसी भी प्रान्त के निवासी क्यों न हों, उन्हें भारतीय नागरिक के रूप में स्वीकार किया गया है। यह एकात्मक तत्त्व का महत्त्वपूर्ण प्रतीक है।
(2) विषयों के विभाजन का अभाव – सामान्यतः संघात्मक शासन-व्यवस्था में केन्द्र अथवा संघ को कुछ सीमित शक्तियाँ प्रदान की जाती हैं तथा शेष शक्तियाँ राज्यों को प्राप्त होती हैं। लेकिन भारत में इसके विपरीत शक्तियों का बँटवारा किया गया है जो शक्तिशाली केन्द्र का निर्माण करते हैं तथा राज्य अधिक स्वायत्तता का उपभोग नहीं कर सकते।
(3) भारत में समूचे राष्ट्र के लिए एक ही संविधान रखा गया है, जो पुनः एकात्मक तत्त्व है।
(4) एकल न्याय-व्यवस्था – भारत में एकीकृत न्याय-व्यवस्था लागू की गयी है। संयुक्त राज्य अमेरिका की भाँति भारत में दोहरी न्यायिक व्यवस्था नहीं है। भारतीय सर्वोच्च न्यायालय समूचे देश का एकमात्र सर्वोच्च न्यायालय है जिसके आदेशों के विरुद्ध अपील नहीं की जा सकती।
(5) आपातकालीन स्थिति – भारतीय संविधान द्वारा अनुच्छेद 352, 356 तथा 360 में राष्ट्रपति को आपातकालीनं घोषणा करने की शक्ति प्रदान की गयी है। आपातकालीन स्थिति में राज्यों की स्वायत्तता समाप्त हो सकती है। पायली के मतानुसार, आपातकालीन स्थिति की घोषणा भारत में संघात्मक शासन के स्वरूप को समाप्त कर देती है। अन्य शब्दों में कहा जा सकता है कि आपातकाल की घोषणा होते ही बिना किसी औपचारिक संशोधन के भारतीय संविधान एकात्मक हो जाता है।
(6) राष्ट्रपति द्वारा राज्यपालों की नियुक्ति – भारतीय संघ में इकाई राज्यों के राज्यपालों की नियुक्ति केन्द्रीय शासन के अंग राष्ट्रपति द्वारा की जाती है तथा इन्हें उनके पद से हटाने का अधिकार भी राष्ट्रपति के ही पास है। यहाँ यह उल्लेखनीय है कि राज्यों के राज्यपाल केन्द्र के प्रतिनिधि के रूप में कार्य करते हैं।
(7) संविधान संशोधन के सम्बन्ध में केन्द्र की सशक्त स्थिति – संविधान के कुछ उपबन्धों का संशोधन तो केन्द्रीय संसद साधारण कानून पारित करके, कुछ उपबन्धों का संशोधने सदन के दोनों सदन अपने-अपने दो-तिहाई बहुमत से तथा कुछ उपबन्धों का संशोधन संसद आधे से अधिक राज्यों की विधान-सभाओं की स्वीकृति से कर सकती है। राज्यों की विधानसभाएँ अपनी ओर से कोई संशोधन प्रस्तावित नहीं कर सकतीं। इस प्रकार संविधान के संशोधन की व्यवस्था में राज्यों की तुलना में केन्द्र की स्थिति सबल है।
(8) राज्यों की सीमाओं में परिवर्तन करने का संसद का अधिकार – भारतीय संविधान के अनुसार संसद कानून द्वारा वर्तमान राज्यों के क्षेत्र को कम अथवा अधिक कर सकती है, उनके नाम बदल सकती है और दो अथवा उससे अधिक राज्यों को मिलाकर एक नवीन राज्य का गठन कर सकती है।
समीक्षा – भारतीय संविधान के उपर्युक्त एकात्मक लक्षणों को देखते हुए प्रो० के० सी० ह्वीयर का कथन है कि “भारतीय संविधान एक ऐसी शासन-प्रणाली की स्थापना करता है, जो अधिक-से-अधिक अर्द्धसंघीय (Quasi-federal) है। यह एक ऐसे एकात्मक राज्य की स्थापना करता है, जिसमें गौण रूप से कुछ संघात्मक तत्त्व हों।” इसी प्रकार जी० एन० जोशी का विचार है कि भारतीय संघ एक संघ नहीं, वरन् अर्द्धसंघ है, जिसमें एकात्मक राज्य की कतिपय महत्त्वपूर्ण विशेषताओं का समावेश है।” डॉ० डी० डी० बसु के अनुसार, “भारतीय संविधान न तो नितान्त संघात्मक है और न ही एकात्मक, वरन् यह दोनों का मिश्रण है। इसी प्रकार पायली का मत है कि “भारत के संविधान का ढाँचा (रूप) संघात्मक व आत्मा एकात्मक है। कभी-कभी इन एकात्मक लक्षणों को संघात्मक व्यवस्था के उल्लंघनकारी तत्त्व की संज्ञा दे दी जाती है।
प्रश्न 2.
उत्तर :
संघात्मक शासन-प्रणाली के गुण
संघात्मक शासन-प्रणाली के प्रमुख गुण निम्नलिखित हैं –
1. संघीय सरकार निरंकुश नहीं हो पाती – केन्द्रीय एवं राज्य सरकारों के कार्य एवं अधिकार-क्षेत्र संविधान द्वारा निश्चित होते हैं, इसलिए केन्द्र तथा राज्यों में से कोई भी किसी अन्य की सीमा में हस्तक्षेप करके निरंकुश नहीं हो पाता है।
2. प्रशासन में कुशलता – इस व्यवस्था में केन्द्रीय एवं राज्य सरकारों के बीच कार्य एवं शक्तियाँ विभाजित होती हैं। इसीलिए केन्द्रीय सरकार अपनी शक्तियों का समुचित प्रयोग करते हुए देश के महत्त्वपूर्ण कार्यों को सम्पादित करती है और स्थानीय अथवा इकाई सरकारें अपनी शक्तियों का स्वतन्त्रापूर्वक उपयोग करते हुए स्थानीय समस्याओं का समाधान करती हैं इस प्रकार देश का प्रशासन सुचारु रूप से संचालित होता है।
3. विविधता में एकता – प्रत्येक संघ सरकार में अनेक राज्य सम्मिलित होते हैं, जो विभिन्न अर्थों (जाति, धर्म, भाषा, रीति-रिवाज इत्यादि) में एक-दूसरे से भिन्न होते हैं, किन्तु वे अपनी सामान्य समस्याओं को सुलझाने के लिए एक सूत्र में बँधकर रहते हैं। इस प्रकार संघीय शासन के अन्तर्गत विविधता में एकता होती है।
4. बड़े देशों के लिए उपयोगी – विस्तृत क्षेत्र वाले देशों के लिए यह शासन व्यवस्था उत्तम है, क्योंकि एक ही स्थान (केन्द्र) से दूर के स्थानों का शासन ठीक प्रकार से संचालित करना कठिन होता है।
5. नागरिकों के अधिकारों की सुरक्षा – संघात्मक संविधानों में नागरिकों के मूल अधिकारों में सरलता से संशोधन नहीं हो सकता, क्योंकि संविधान कठोर होता है। इसके संशोधन के लिए केन्द्र तथा राज्य दोनों ही की आवश्यकता होती है।
6. स्थानीय स्वशासन में कुशलता-लॉर्ड ब्राइस के अनुसार, “संघवाद स्थानी विधानमण्डलों को काफी शक्तियाँ प्रदान करके राष्ट्रीय विधानमण्डलों को उन बहुत-से कार्यों से मुक्ति दिलाता है, जो उसके लिए अन्यथा बोझ बन जाते हैं। अत: संघीय सरकार को भी राष्ट्रीय हित के विषयों पर पूरा-पूरा ध्यान देने का अवसर मिल जाता है, जिससे प्रशासन में दृढ़ता आ जाती
7. स्थानीय स्वशासन का लाभ – संघात्मक शासन में इकाइयों को स्वशासन का पूर्ण अधिकार प्राप्त होता है, इसलिए ये अपनी जनता की आवश्यकतानुसार आचरण करके नागरिकों के हितों में वृद्धि करती हैं। विगत कुछ वर्षों से, भारत के परिप्रेक्ष्य में पंचायती राज्यों के अधिकारों में वृद्धि इसका ज्वलन्त उदाहरण है।
8. राजनीतिक चेतना एवं विश्व-संघ की ओर कदम – संघीय शासन अपने नागरिकों को श्रेष्ठ राजनीतिक प्रशिक्षण प्रदान करके उनमें राजनीतिक चेतना उत्पन्न करता है। संघ राज्य विश्व-संघ के निर्माण की दिशा में भी महत्त्वपूर्ण प्रयास है।
प्रश्न 3.
उत्तर :
संघात्मक शासन व्यवस्था की यह विशेषता होती है कि इसमें केन्द्र और इकाई राज्य सरकारों के मध्य शक्तियों, अधिकारों एवं कार्यों का संविधान द्वारा स्पष्ट विभाजन कर दिया जाता है, जिससे केंद्र एवं राज्य-सरकारों के मध्य किसी भी प्रकार का विवाद उत्पन्न न हो, दोनों सरकारें अपने-अपने कार्यों एवं उत्तरदायित्वों का समुचित रूप से पालन कर सकें और सम्पूर्ण देश में शान्ति एवं सुरक्षा का वातावरण बना रहे।केंद्र व राज्य के मध्य विधायी संबंध
संविधान ने विधि या कानून का निर्माण करने से संबंधित विषयों की तीन सूचियाँ बनाई हैं। इन सूचियों को बनाने का उद्देश्य केंद्र और राज्यों की सरकारों के मध्य विधि-निर्माण संबंधी क्षेत्रों को विभक्त करनी है। ये सूचियाँ निम्नलिखित हैं –
1. संघ सूची (Union List) – इस सूची के अंतर्गत उन विषयों को रखा गया है, जिन पर केवल केंद्र सरकार की कानूनों का निर्माण कर सकती है। ये विषय बहुत महत्त्वपूर्ण एवं राष्ट्रीय स्तर के हैं। इस संघ सूची में 97 विषय हैं। इस सूची के प्रमुख विषय–रक्षा, वैदेशिक मामले, युद्ध व संधि तथा बैंकिंग आदि हैं।
2. राज्य सूची (State List) – मूल संविधान में इस सूची में 66 विषय थे। परन्तु 42वें संवैधानिक संशोधन के उपरान्त अब इस सूची में 62 विषय रह गए हैं। इन सब विषयों से संबंधित कानूनों का निर्माण करने का अधिकार राज्य सरकारों को होता है। वैसे तो इन विषयों पर केवल राज्य सरकारें ही कानून बना सकती हैं; किंतु कुछ विशेष स्थितियों में केंद्र सरकार भी इन विषयों पर कानून बना सकती है। इस सूची के प्रमुख विषय-पुलिस, न्याय, कृषि, स्थानीय स्वशासन आदि हैं।
3. समवर्ती सूची (Concurrent List) – मूल संविधान में इस सूची में 47 विषय थे, परन्तु अब इस सूची में 52 विषय हो गए हैं। इन विषयों पर राज्य एवं केंद्र-दोनों सरकारों को कानून बनाने का समान अधिकार है, परन्तु मतभेद की स्थिति में संघ सरकार के कानून को प्राथमिकता दी जाती है। इस सूची के प्रमुख विषय फौजदारी विधि-प्रक्रिया, शिक्षा, विवाह, न्यास (ट्रस्ट), वन आदि हैं।
4. अवशिष्ट शक्तियाँ (Residuary Powers) – यदि कोई विषय उपर्युक्त तीनों सूचियों में सम्मिलित न हो तो वह अवशिष्ट विषय कहा जाता है और उस पर कानून बनाने का अधिकार केवल संघ सरकार को ही है।
अतः इन सूचियों के विवरण से स्पष्ट हो जाता है कि केन्द्र सरकार एवं राज्य सरकारों के विधि-निर्माण से संबंधित अधिकार-क्षेत्र पृथक्-पृथक् हैं। इस विभाजन के आधार पर यह भी स्पष्ट होता है कि केन्द्र सरकार राज्य सरकार की तुलना में अधिक शक्तिसम्पन्न है। यद्यपि समवर्ती सूची के विषयों पर कानून बनाने का अधिकार दोनों सरकारों को प्राप्त होता है; किन्तु सामान्यतया इन विषयों पर संसद ही कानूनों का निर्माण करती है तथा मतभेद होने की स्थिति में संघ सरकार का कानूनी मान्य होता है।
[नोट – 42वें संवैधानिक संशोधन 1976 के द्वारा राज्य सूची के चार विषय (शिक्षा, वन, वन्य जीव-जन्तुओं और पक्षियों का रक्षण तथा नाप-तौल (समवर्ती सूची में सम्मिलित कर दिए गए तथा समवर्ती सूची में एक नया विषय जनसंख्या नियन्त्रण और परिवार नियोजन’ जोड़ा गया। अब समवर्ती सूची में 52 विषय और राज्य सूची में 62 विषय रह गए हैं।]
राज्य सूची के विषयों पर कानून-निर्माण की संसद की शक्ति – संविधान ने संसद को विशेष परिस्थितियों में राज्य सूची के विषयों पर भी कानून बनाने का अधिकार दिया है। ये परिस्थितियाँ निम्नलिखित हैं –
1. संकटकाल की घोषणा के समय – आपातकाल में राज्य सूची के अंतर्गत आने वाले विषयों पर संसद को विधि-निर्माण का पूर्ण अधिकार प्राप्त है।
2. राज्य सूची का कोई विषय राष्टीय महत्त्व का होने पर – यदि राज्यसभा अपने दो-तिहाई बहुमत से अपने एक प्रस्ताव के माध्यम से राज्य सूची के किसी विषय के संबंध में यह घोषणा कर दे कि राष्ट्रीय हित में उस विषय पर केंद्रीय सरकार को कानून-निर्माण करना चाहिए तो केंद्रीय सरकार (संसद) उस विषय पर कानून बना सकती है। यह कानून एक वर्ष तक लागू रह सकता है। राज्यसभा इसी आशय का दोबारा प्रस्ताव पारित करके इसकी अंवधि में वृद्धि कर सकती है।
3. राज्यों के विधानमण्डलों की प्रार्थना पर – यदि दो या दो से अधिक राज्यों के विधानमण्डल यह प्रस्ताव पारित करें या याना करें कि राज्य सूची के अधीन किसी विषय पर संसद कानून बनाए तो संसद उस विषय पर भी कानून बनाती है।
4. विदेशी राज्यों से संधि के पालन करने के लिए – संविधान के अनुसार संसद को ही किसी संधि, समझौते या अन्य देशों के साथ होने वाले सभी प्रकार के समझौतों का पालन करवाने हेतु कानून बनाने का अधिकार है, भले ही वे विषय राज्य सूची के अंतर्गत आते हों।
5. राज्य में संवैधानिक व्यवस्था भंग होने पर – यदि किसी राज्य में संवैधानिक संकट उत्पन्न हो जाए या इस राज्य का संवैधानिक तन्त्र विफल हो जाए तो अनुच्छेद 356 के अंतर्गत लगाए गए राष्ट्रपति शासन के अंतर्गत राष्ट्रपति राज्य विधानमण्डल के समस्त अधिकार संसद को प्रदान कर सकता है।
6. राज्यपाल द्वारा विधेयक को राष्ट्रपति के लिए आरक्षित करना – राज्य के राज्यपाल को यह शक्ति प्राप्त है कि वह राज्य व्यवस्थापिका द्वारा पारित किसी भी विधेयक को राष्ट्रपति के अनुमोदन के लिए आरक्षित कर सकता है। राष्ट्रपति को अधिकार है कि वह उस विधेयक को स्वीकार करे अथवा अस्वीकार करे। केंद्र तथा राज्यों के बीच शक्तियों का विभाजन होने पर भी विशेष स्थितियों में केंद्र को राज्यों के विषयों पर कानून-निर्माण के व्यापक अधिकार प्राप्त हैं।
प्रश्न 4.
उत्तर :
केन्द्र और राज्यों के प्रशासनिक सम्बन्ध
श्री दुर्गादास बसु के शब्दों में, “संघीय व्यवस्था की सफलता और दृढ़ता संघ की विविध सरकारों के बीच अधिकाधिक सहयोग तथा समन्वय पर निर्भर करती है। इसी कारण प्रशासनिक सम्बन्धों की व्यवस्था करते हुए जहाँ राज्यों को अपने-अपने क्षेत्रों में सामान्यतः स्वतन्त्रता प्रदान की गयी है वहाँ इस बात का भी ध्यान रखा गया है कि राज्यों के प्रशासनिक तन्त्र पर संघ का नियन्त्रण बना रहे और संघ तथा राज्यों के बीच संघर्ष की सम्भावना कम-से-कम हो जाए। राज्य सरकारों पर संघीय शासन के नियन्त्रण की व्यवस्था निम्नलिखित उपायों के आधार पर की गयी है –
(1) राज्य सरकारों को निर्देश – केन्द्र द्वारा राज्यों को निर्देश सामान्यतया संघीय व्यवस्था के अनुकूल नहीं समझे जाते हैं, लेकिन भारतीय संघ में केन्द्र द्वारा राज्य सरकारों को निर्देश देने की व्यवस्था की गयी है। संविधान के अनुच्छेद 256 में स्पष्ट कहा गया है कि “प्रत्येक राज्य की कार्यपालिका शक्ति का प्रयोग इस प्रकार होगा कि संसद द्वारा निर्मित कानूनों का पालन सुनिश्चित रहे।
(2) राज्य सरकारों को संघीय कार्य सौंपना – संघीय सरकार राज्य सरकारों को कोई भी कार्य सौंप सकती है। यदि राज्यों की सरकार या उसके अधिकारी उसे पूरा न करें, तो राष्ट्रपति को अधिकार है कि वह संकटकालीन स्थिति की घोषणा कर राज्य शासन अपने हाथ में ले ले।
(3) अखिल भारतीय सेवाएँ – संविधान संघ तथा राज्य सरकारों के लिए अलग-अलग सेवाओं की व्यवस्था करता है, लेकिन कुछ ऐसी सेवाओं की भी व्यवस्था करता है जो संघ तथा राज्य सरकारें दोनों के लिए सामान्य हैं। इन्हें अखिल भारतीय सेवाएँ कहते हैं और इन सेवाओं के अधिकारियों पर संघीय सरकार का विशेष नियन्त्रण रहता है।
(4) सहायता अनुदान – संघीय शासन द्वारा राज्यों को आवश्यकतानुसार सहायता अनुदान भी दिया जा सकता है। अनुदान देते समय संघ राज्यों पर कुछ शर्ते लगाकर उनके व्यय को भी नियन्त्रित कर सकता है।
(5) अन्तर्राज्यीय नदियों पर नियन्त्रण – संसद को अधिकार है कि वह विधि द्वारा किसी अन्तर्राज्यीय नदी अथवा इसके जल के प्रयोग, वितरण या नियन्त्रण के सम्बन्ध में व्यवस्था करे।
(6) अन्तर-राज्य परिषद् (Inter-State Council) की स्थापना (जून 1990 ई०) – भारतीय संविधान के अनुच्छेद 263 में एक ‘अन्तर-राज्य परिषद् की स्थापना का प्रावधान किया गया है और राजमन्नार आयोग, प्रशासनिक सुधार आयोग तथा सबसे अन्त में सरकारिया आयोग, जिसने नवम्बर, 1987 ई० में अपनी रिपोर्ट प्रस्तुत की; इन सभी ने अपनी सिफारिशों में इस बात पर बल दिया कि अन्तर- राज्य परिषद् की स्थापना की जानी चाहिए, लेकिन व्यवहार में मई 1990 ई० तक अन्तर-राज्य परिषद् की स्थापना नहीं की गयी थी इस परिषद् की स्थापना जून 1990 ई० में की गयी है। यह परिषद् संघीय व्यवस्था और केन्द्र-राज्य सम्बन्धों के सुचारु संचालन हेतु एक विचार-मंच का कार्य करेगी। परिषद् के दिन प्रतिदिन के कार्य हेतु एक स्थायी सचिवालय की स्थापना की गयी है।
(7) संचार साधनों की रक्षा – समस्त भारतीय संघ के संचार साधनों की रक्षा का भार भी संघीय सरकार पर ही है। संघ सरकार राज्यों के अन्तर्गत हवाई अड्डों, रेलों तथा अन्य राष्ट्रीय महत्त्व के आवागमन और संचार साधनों की रक्षा के लिए राज्य सरकारों को आवश्यक आदेश दे सकती है जिनका पालन राज्य सरकारों के लिए आवश्यक है। इन आदेशों के पालन में राज्य सरकारों को जो अतिरिक्त खर्च उठाना पड़ेगा, वह संघ सरकार राज्य सरकार को देगी।
(8) राष्ट्रपति द्वारा राज्यपालों की नियुक्ति – इस सबके अतिरिक्त राज्य सरकारों पर संघीय शासन के नियन्त्रण का एक प्रमुख उपाय यह है कि प्रधानमन्त्री के परामर्श से राष्ट्रपति राज्यों में राज्यपालों की नियुक्ति करता है जो वहाँ राष्ट्रपति के प्रतिनिधि के रूप में कार्य करते हैं।
(9) मुख्यमन्त्री तथा अन्य मन्त्रियों के विरुद्ध आरोपों की जाँच – यदि किसी राज्य में मुख्यमन्त्री या मन्त्रियों के विरुद्ध भ्रष्टाचार या अन्य किसी प्रकार के आरोप लगाये जाते हैं तो इस प्रकार का आरोप-पत्र कार्यवाही के लिए राष्ट्रपति को भेज दिया जाता है और केन्द्रीय सरकार को ही इस बात के सम्बन्ध में निर्णय लेने का अधिकार है कि इन आरोपों की न्यायिक जाँच करवानी चाहिए अथवा नहीं। आरोप सिद्ध हो जाने पर केन्द्रीय सरकार सम्बन्धित मन्त्रियों को पद छोड़ने के लिए कह सकती है। पंजाब के मुख्यमन्त्री कैरो और ओडिशा के मुख्यमन्त्री वीरेन मित्रा को न्यायिक जाँच में दोषी पाये जाने पर ही त्याग-पत्र देना पड़ा था।
(10) राज्यों में राष्ट्रपति शासन लागू करना – इन सबके अलावा संविधान के अनुच्छेद 356 में कहा गया है कि यदि किसी राज्य में संवैधानिक तन्त्र भंग हो जाता है तो राज्यपाल की रिपोर्ट के आधार पर या अपने विवेक से राष्ट्रपति द्वारा उस राज्य में राष्ट्रपति शासन लागू किया जा सकता है। राज्य में संवैधानिक तन्त्र भंग हुआ है अथवा नहीं; इस सम्बन्ध में निर्णय लेने की शक्ति राष्ट्रपति अर्थात् केन्द्रीय शासन को ही प्राप्त है और राष्ट्रपति शासन की यह बड़ी छड़ी राज्यों को केन्द्र के सभी निर्देश मानने के लिए बाध्य करती है। इस प्रकार प्रशासनिक क्षेत्र में राज्यों पर भारत सरकार को प्रभावदायक नियन्त्रण है, लेकिन इनके साथ यह नहीं भुला देना चाहिए कि ये प्रावधान बहुत अधिक सावधानीपूर्वक और संकटकाल में ही उपयोग के लिए हैं। सामान्यतया राज्य को कानून निर्माण और प्रशासन के सम्बन्ध में अपने निश्चित क्षेत्र में पूर्ण स्वायत्तता प्राप्त होगी।
प्रश्न 5.
उत्तर :
वित्तीय क्षेत्र में संविधान के द्वारा संघ व राज्य सरकारों के क्षेत्र अलग-अलग कर दिये गये हैं। तथा दोनों ही सरकारें सामान्यतया अपने-अपने क्षेत्र में स्वतन्त्रतापूर्वक कार्य करती हैं। इस सम्बन्ध में संविधान द्वारा की गयी व्यवस्था निम्न प्रकार है –संघीय आय के साधन – संघीय सरकार को आय के अलग साधन प्राप्त हैं। इन साधनों में कृषि आय को छोड़कर अन्य आय पर कर, सीमा-शुल्क, निर्यात-शुल्क, उत्पादन-शुल्क, निगम कर, कम्पनियों के मूल धन पर कर, कृषि भूमि को छोड़कर अन्य सम्पत्ति शुल्क आदि प्रमुख हैं।
राज्यों की आय के साधन – वित्त के क्षेत्र में राज्य सरकार के आय के साधन भी अलग कर दिये गये हैं। उनमें भू-राजस्व, कृषि आयकर, कृषि भूमि का उत्तराधिकार शुल्क व सम्पत्ति शुल्क, मादक वस्तुओं पर उत्पादन कर, बिक्री कर, यात्री कर, मनोरंजन कर, दस्तावेज कर आदि प्रमुख हैं। (42वें संवैधानिक संशोधन द्वारा रेडियो और टेलीविजन से प्रसारित विज्ञापनों पर कर राज्य सूची से हटाकर समवर्ती सूची में रख दिया गया है।)
व्यय की प्रमुख मदें – संघीय शासन की व्यय की मदें सेना, परराष्ट्र सम्बन्ध आदि हैं, जब कि राज्य शासन के व्यय की मुख्य मदें पुलिस, कारावास, शिक्षा, सार्वजनिक स्वास्थ्य आदि हैं।
राज्यों की वित्तीय सहायता – क्योंकि राज्यों की वित्तीय आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए उपर्युक्त साधन पर्याप्त नहीं समझे गये, इसलिए संघीय शासन द्वारा राज्यों को वित्तीय सहायता की व्यवस्था की गयी है, जो इस प्रकार है।
पहले प्रकार के कर ऐसे हैं जो केन्द्र द्वारा लगाये और वसूल किये जाते हैं, पर जिनकी सम्पूर्ण आय राज्यों में बाँट दी जाती है। इस प्रकार के करों में प्रमुख रूप से उत्तराधिकार कर, सम्पत्ति कर, समाचार-पत्र कर आदि आते हैं।
दूसरे प्रकार के वे कर हैं, जो केन्द्र निर्धारित करता, किन्तु राज्य एकत्रित करते और अपने उपयोग में लाते हैं। स्टाम्प शुल्क करं एक ऐसा ही कर है। केन्द्र शासित क्षेत्रों में इन करों की वसूली केन्द्रीय सरकार करती है।
तीसरे प्रकार के कर वे हैं जो केन्द्र द्वारा लगाये व वसूल किये जाते हैं, पर जिनकी शुद्ध आय संघ व राज्यों के बीच बाँट दी जाती है। कृषि आय के अतिरिक्त अन्य आय पर कर प्रमुख रूप से इसी प्रकार का कर है।
राज्यों को अनुदान – संविधान के अनुच्छेद 275 के अनुसार जिन राज्यों को संसद विधि द्वारा अनुदान देना निश्चित करे उन राज्यों को अनुदान दिया जाएगा। ये अनुदान पिछड़े हुए वर्गों को ऊँचा उठाने और अन्य विकास योजनाओं को पूरा करने के लिए दिये जाएँगे।
सार्वजनिक ऋण प्राप्ति की व्यवस्था – संघीय सरकार अपनी संचित निधि की जमानत पर संसद की आज्ञानुसार ऋण ले सकती है। राज्यों की सरकारें भी विधानमण्डल द्वारा निर्धारित सीमा तक ऋण ले सकती हैं। संघीय सरकार विदेशों से भी ऋण ले सकती है, किन्तु राज्य सरकारें ऐसा नहीं कर सकतीं।
वित्त आयोग – संविधान के अनुच्छेद 280 में व्यवस्था में की गयी है कि प्रति 5 वर्ष बाद राष्ट्रपति एक वित्त आयोग की स्थापना करेगा। इस आयोग के द्वारा संघ और राज्य सरकारों के बीच करों के वितरण, भारत की संचित निधि में से धन के व्यय तथा वित्तीय व्यवस्था से सम्बन्धित अन्य विषयों पर सिफारिश करने का कार्य किया जाएगा।
प्रश्न 6.
उत्तर :
केन्द्र तथा राज्यों के मध्य तनाव के सांविधानिक कारण
समय-समय पर केन्द्र तथा राज्य सरकारों के मध्य उपस्थित होने वाले संघर्ष एवं तनावों के कारणों को निम्नलिखित वर्गों में रखा गया है –
(1) भारतीय संविधान में शक्तियों का वितरण केन्द्र के पक्ष में अधिक है। संघ सूची तथा समवर्ती सूची में केन्द्रीय कार्यपालिका तथा व्यवस्थापिका को इतने अधिकार प्रदान किए गए हैं कि राज्यों की स्वायत्तता पर आँच आ सकती है। 1970 में तमिलनाडु सरकार द्वारा नियुक्त राजमन्नार समिति ने सिफारिश की थी कि –
- संघ सूची तथा समवर्ती सूची में से कुछ शक्तियाँ निकालकर राज्य सूची में डाल देनी चाहिए।
- वित्त आयोग को एक अस्थायी अधिकरण बना देना चाहिए, एवं
- केन्द्रीय राजस्व स्रोतों को हटाकर राज्यों को हस्तान्तरित कर देना चाहिए जिससे केन्द्र पर राज्यों की वित्तीय निर्भरता कम हो।
(2) राज्य सदैव यह अनुभव करते हैं कि उनकी विधायी तथा प्रशासनिक शक्तियाँ सीमित हैं तथा उन्हें अपने निर्णयों के कार्यान्वयन में केन्द्र के निर्णय का इन्तजार करना पड़ता है। जब केन्द्र तथा राज्य में एक ही दल की सरकार रहती है तब तो समस्या प्रबल नहीं हो पाती है, किन्तु विपरीत स्थिति में तनाव प्रायः बढ़ जाता है। उदाहरणार्थ-1967 के पश्चात् राज्यों में गैर-कांग्रेसी सरकारें बनीं तो शक्तियों के पुनः वितरण की आवाज विशेष रूप से उठाई गई।
(3) राज्यपाल केन्द्र द्वारा नियुक्त ऐसे शक्तिशाली अभिकरण हैं जो राज्यों में केन्द्र का वर्चस्व रखने में सहयोग देते हैं। संविधान उन्हें अधिकार देता है कि समवर्ती सूची में संबंधित विधेयकों को वे राष्ट्रपति की अनुमति के लिए सुरक्षित रखें तथा केन्द्रीय सरकार को यह अवसर प्रदान करें कि वह राष्ट्रपति द्वारा राज्यों द्वारा पारित विधेयक अथवा विधेयकों को अस्वीकृत करा दे। केरल के राज्यपाल ने ई०एम०एस० नम्बूदरीपाद के नेतृत्व वाली साम्यवादी सरकार का प्रगतिशील भूमि सुधार विधेयक राष्ट्रपति की अनुमति के लिए सुरक्षित रख लिया था। इसके पश्चात् केन्द्रीय सरकार ने इस विधेयक को राष्ट्रपति द्वारा अस्वीकृत करा दिया। गैर-कांग्रेसी राज्य सरकारें राज्यपालों की भूमिका से सशंकित रहती हैं। आंध्र प्रदेश के तत्कालीन मुख्यमंत्री एन०टी० रामाराव ने तो उन्हें केन्द्रीय जासूस’ तक की संज्ञा दे दी थी। अनेक अवसरों पर गैर-कांग्रेसी सरकारों द्वारा राज्यपाल पद को ही समाप्त करने की माँग की गई है। राज्यपाल पद ने केन्द्र-राज्य संबंधों में तनाव तथा संघर्ष की स्थिति उत्पन्न की है।
(4) आपातकालीन उपबन्धों ने संविधान को एकात्मक स्वरूप प्रदान कर दिया है तथा आपातकाल के समय राज्य सम्पूर्णत: केन्द्र निर्देशित इकाइयाँ बन जाते हैं। यह स्थिति कुछ राज्य सरकारों हेतु बहुत अप्रिय रही है। तनाव के सांविधानिक कारणों का अध्ययन करने पर यह लक्ष्य सामने आती है। राज्य चाहते हैं कि उन्हें अधिक स्वायत्तता प्रदान की जाए तथा उन पर केन्द्र का अंकुश न रहे।
प्रश्न 7.
या
भारतीय संविधान के अनुच्छेद 370 पर अपने विचार लिखिए।
या
भारतीय संविधान की धारा 370 के अन्तर्गत जम्मू-कश्मीर राज्य को दी गयी किन्हीं दो सुविधाओं का उल्लेख कीजिए।
उत्तर :
भारतीय संविधान में जम्मू-कश्मीर राज्य की स्थिति भारतीय संघ के अन्य राज्यों से भिन्न है –(1) भारतीय संघ के अन्य किसी भी राज्य का अपना संविधान नहीं है, लेकिन जम्मू-कश्मीर राज्य का अपना संविधान है जो 26 नवम्बर, 1957 ई० में लागू हुआ था तथा जम्मू-कश्मीर राज्य का प्रशासन इस संविधान के उपबन्धों के अनुसार चलता है।
(2) भारतीय संविधान द्वारा संघ और राज्यों के बीच जो शक्ति-विभाजन किया गया है, उसके अन्तर्गत अवशेष शक्तियाँ संघीय सरकार को सौंपी गयी हैं और अवशेष विषयों के सम्बन्ध में कानून- निर्माण का अधिकार संघीय संसद को प्राप्त है, लेकिन जम्मू-कश्मीर राज्य इस सम्बन्ध में अपवाद है। अनुच्छेद 370 में व्यवस्था की गयी है कि जम्मू-कश्मीर राज्य के सम्बन्ध में अवशेष शक्तियाँ जम्मू-कश्मीर राज्य के पास ही रहेंगी।
(3) इस राज्य के लिए विधि बनाने की संघीय संसद की शक्ति संघ सूची और समवर्ती सूची के उन विषयों तक सीमित होगी, जिनको जम्मू-कश्मीर राज्य की सरकार के साथ परामर्श करके उन विषयों के ‘तत्स्थानी विषय’ (Correspond to matters) घोषित कर दें, जिनके सम्बन्ध में ‘अधिमिलन-पत्र’ में भारतीय संसद को अधिकार दिया गया है।
(4) संसद संघ सूची और समवर्ती सूची के अन्य विषयों पर विधि राज्य सरकार की सहमति से ही बना सकेगी।
(5) संविधान के आपातकालीन प्रावधानों के सम्बन्ध में भी जम्मू-कश्मीर राज्य के प्रसंग में विशेष व्यवस्था है। अनुच्छेद 352, जिसके अन्तर्गत राष्ट्रपति को राष्ट्रीय संकट की घोषणा करने का अधिकार प्राप्त है, जम्मू-कश्मीर राज्य में एक सीमा तक ही और जम्मू-कश्मीर राज्य की सहमति से ही लागू हो सकता है। अनुच्छेद 360, जो राष्ट्रपति को वित्तीय संकट घोषित करने का अधिकार देता है, जम्मू-कश्मीर राज्य पर लागू नहीं होता। अनुच्छेद 356 के उपबन्ध अर्थात् राज्य में राष्ट्रपति शासन लागू करने की व्यवस्था जम्मू-कश्मीर राज्य पर भी लागू होगी।
(6) भारत के नागरिक स्वत: ही जम्मू-कश्मीर के नागरिक नहीं बन जाते, उन्हें जम्मू-कश्मीर राज्य में बसने का भी कोई संवैधानिक अधिकार प्राप्त नहीं है। भारत संघ के अन्य राज्यों के निवासियों को जम्मू-कश्मीर राज्य में भूमि अथवा अन्य कोई चल सम्पत्ति प्राप्त करने का अधिकार भी नहीं है। अनुच्छेद 370 के कारण ही केन्द्र के अनेक लाभकारी और प्रगतिशील कानून; जैसे-सम्पत्ति कर, शहरी भूमि सीमा कानून और उपहार कर, इत्यादि यहाँ लागू नहीं हो सकते।
(7) राज्य की नीति के निदेशक तत्त्वों से सम्बन्धित संविधान के भाग 4 के उपबन्ध जम्मू-कश्मीर राज्य पर लागू नहीं होते हैं।
(8) संसद जम्मू-कश्मीर राज्य के विधानमण्डल की सहमति के बिना उस राज्य के नाम, क्षेत्र या सीमाओं में कोई परिवर्तन नहीं कर सकती।
(9) अनुच्छेद 368 के अधीन संविधान में किये गये संशोधन जम्मू-कश्मीर राज्य में तब तक लागू नहीं होंगे, जब तक कि राष्ट्रपति आदेश द्वारा उसे जम्मू-कश्मीर राज्य में लागू नहीं कर दें।
जम्मू – कश्मीर राज्य के सम्बन्ध में धारा 370 की आलोचना अथवा विवाद
जम्मू – कश्मीर राज्य को भारतीय संघ में यह विशेष स्थिति तत्कालीन विशेष परिस्थितियों के कारण प्रदान की गयी थी। जम्मू-कश्मीर राज्य को प्राप्त यह विशेष स्थिति संविधान का अस्थायी या संक्रमणकालीन प्रावधान ही है और इस कारण यह नहीं सोचा जाना चाहिए कि जम्मू-कश्मीर राज्य को सदैव ही यह विशेष स्थिति प्राप्त रहेगी। वर्तमान समय में भारत की एकता और अखण्डता के प्रबल समर्थकों और भारतीय राजनीति के एक प्रमुख दल भाजपा द्वारा यह कहा जाता है कि जम्मू-कश्मीर में आज आतंकवाद और अलगाववाद की जो स्थिति समय-समय पर खड़ी हो जाती है उसका मूल कारण अनुच्छेद 370 या भारतीय संघ के अन्तर्गत जम्मू-कश्मीर राज्य को प्राप्त विशेष स्थिति है तथा अलगाववाद की इस स्थिति को समाप्त करने हेतु अनुच्छेद 370 को समाप्त कर दिया जाना चाहिए। जम्मू-कश्मीर राज्य के भूतपूर्व राज्यपाल जगमोहन ने अपनी पुस्तक ‘कश्मीर : समस्या और विश्लेषण’ में पूरे विस्तार के साथ विचार व्यक्त किया है कि “अनुच्छेद 370 विविध निहित स्वार्थों के हाथों शोषण का साधन बन गया है। इस अनुच्छेद के कारण एक दुष्चक्र स्थापित हो गया है जो अलगाववादी शक्तियों को जन्म देता है और ये शक्तियाँ बदले में अनुच्छेद 370 को मजबूत बनाती हैं।” जगमोहन के इस विश्लेषण में तार्किकता और सत्य का अंश है। यह तथ्य है कि अनुच्छेद 370 के कारण अलगाववादी तत्त्वों ने अपनी शक्ति में वृद्धि की है तथा यह अनुच्छेद जम्मू-कश्मीर राज्य के आर्थिक विकास में भी एक प्रमुख बाधक तत्त्व रहा है। लेकिन इसके साथ ही यह भी तथ्य है कि जम्मू-कश्मीर राज्य में आज आतंकवाद और अलगाववाद की जो स्थिति है, अनुच्छेद 370 उसका मूल कारण नहीं है। आज की परिस्थितियों में अटल बिहारी वाजपेयी का यह कथन अधिक सत्य है। कि “मेरा मानना यह है कि केवल धारा 370 हटाने से ही कश्मीर-समस्या हल नहीं हो सकती।” राजनीतिक दलों के आपसी मतभेदों के कारण ही सरकार ने अनुच्छेद 370 को अब स्थायी कर दिया है। 27 जून, 2000 ई० को जम्मू-कश्मीर विधानसभा ने तीन-चौथाई बहुमत से स्वायत्तता प्रस्ताव पारित किया जिसे स्वीकार करना सम्भव नहीं है। इसके अतिरिक्त, अनुच्छेद 370 को समाप्त करने का यह निश्चित रूप से उपयुक्त समय नहीं है। यदि आज अनुच्छेद 370 को समाप्त करने का प्रयत्न किया जाए, तो वह जम्मू-कश्मीर राज्य की स्थिति को अधिक चुनौतीपूर्ण बना सकता है। निष्कर्षतः । भविष्य में अनुच्छेद 370 को समाप्त किया जा सकता है और किया जाना चाहिए, लेकिन आज इस कार्य के लिए उपयुक्त समय नहीं है।
NCERT Class 11 Rajniti Vigyan भारत का संविधान : सिद्धान्त और व्यवहार (Indian Constitution at Work)
Class 11 Rajniti Vigyan Chapters | Rajniti Vigyan Class 11 Chapter 7
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