NCERT Solutions for Class 11 Hindi Grammar Chapter 6 अपठित गद्यांश

NCERT Solutions for Class 11 Hindi Grammar Chapter 6 अपठित गद्यांश 

NCERT Solutions for Class11 Hindi Grammar Chapter 6 अपठित गद्यांश

अपठित गद्यांश Class 11 Hindi Grammar NCERT Solutions

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Class 11 Hindi Grammar Chapter 6 CBSE NCERT Solutions

NCERT Solutions Class11 Hindi Grammar
Book: National Council of Educational Research and Training (NCERT)
Board: Central Board of Secondary Education (CBSE)
Class: 11th Class
Subject: Hindi Grammar
Chapter: 6
Chapters Name: अपठित गद्यांश
Medium: Hindi

अपठित गद्यांश Class 11 Hindi Grammar NCERT Books Solutions

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अपठित गद्यांश


अपठित गदयांश क्या है?
वह गद्यांश जिसका अध्ययन विद्यार्थियों ने पहले कभी न किया हो, उसे अपठित गद्यांश कहते हैं। अपठित गद्यांश देकर उस पर भाव-बोध संबंधी प्रश्न पूछे जाते हैं ताकि विद्यार्थियों की भावग्रहण क्षमता का मूल्यांकन हो सके।
अपठित गदयांश हल करते समय ध्यान देने योग्य बातें-
1. अपठित गद्यांश का मूक वाचन करके उसे समझने का प्रयास करें।
2. इसके पश्चात प्रश्नों को पढ़ें और गद्यांश में संभावित उत्तरों की रेखांकित करें।
3. जिन प्रश्नों के उत्तर स्पष्ट न हों, उनके उत्तर जानने हेतु गद्यांश को पुनः ध्यान से पढ़ें।
4. प्रश्नों के उत्तर अपनी भाषा में दें।
5. उत्तर संक्षिप्त एवं भाषा सरल और प्रभावशाली होनी चाहिए।
6. यदि कोई प्रश्न शीर्षक देने के संबंध में हो तो ध्यान रखें कि शीर्षक मूल कथ्य से संबंधित होना चाहिए।
7. शीर्षक गद्यांश में दी गई सारी अभिव्यक्तियों का प्रतिनिधित्व करने वाला होना चाहिए।
8. अंत में अपने उत्तरों को पुनः पढ़कर उनकी त्रुटियों को अवश्य दूर करें।
उदाहरण
1. निम्नलिखित गदयांशों तथा इन पर आधारित प्रश्नोत्तरों को ध्यानपूर्वक पढ़िए-
भारती धर्मनीति के प्रणेता नैतिक मूल्यों के प्रति अधिक जागरूक थे। उनकी यह धारणा थी कि नैतिक मूल्यों का दृढ़ता से पालन किए बिना किसी भी समाज की आर्थिक व सामाजिक प्रगति की नीतियाँ प्रभावी नहीं हो सकतीं। उन्होंने उच्चकोटि की जीवन-प्रणाली के निर्माण के लिए वेद की एक ऋचा के आधार पर कहा कि उत्कृष्ट जीवन-प्रणाली मनुष्य की विवेक-बुद्ध से तभी निर्मित होनी संभव है, जब सब लोगों के संकल्प, निश्चय, अभिप्राय समान हों, सबके हृदय में समानता की भव्य भावना जाग्रत हो और सब लोग पारस्परिक सहयोग से मनोनुकूलकार्य करें। चरित्र-निर्माण की जो दिशा नीतिकारों ने निर्धारित की, वह आज भी अपने मूल रूप में मानव के लिए कल्याणकारी है। प्रायः यह देखा जाता है कि चरित्र और नैतिक मूल्यों की उपेक्षा वाणी, बाहु और उदर को संबत न रखने के कारण होती है। जो व्यक्ति इन तीनों पर नियंत्रण रखने में सफल हो जाता है, उसका चरित्र ऊँचा होता है।
सभ्यता का विकास आदर्श चरित्र से ही संभव है। जिस समाज में चरित्रवान व्यक्तियों का बाहुल्य है, वह समाज सभ्य होता है और वही उन्नत कहा जाता है। चरित्र मानव-समुदाय की अमूल्य निधि है। इसके अभाव में व्यक्ति पशुवत व्यवहार करने लगता है। आहार, निद्रा, भय आदि की वृत्ति सभी जीवों में विद्यमान रहती है. यह आचार अर्थात चरित्र की ही विशेषता है, जो मनुष्य को पशु से अलग कर, उससे ऊँचा उठा मनुष्यत्व प्रदान करती है। सामाजिक अनुशासन बनाए रखने के लिए भी चरित्र-निर्माण की आवश्यकता है। सामाजिक अनुशासन की भावना व्यक्ति में तभी जाग्रत होती है, जब वह मानव प्राणियों में ही नहीं वरन सभी जीवधारियों में अपनी आत्मा के दर्शन करता है।
प्रश्न-
(क) हमारे धर्मनीतिकार नैतिक मूल्यों के प्रति विशेष जागरूक क्यों थे?
(ख) चरित्र मानव-जीवन की अमूल्य निधि कैसे है? स्पष्ट कीजिए।
(ग) धर्मनीतिकारों ने उच्चकोटि की जीवन प्रणाली के संबंध में क्या कहा?
(घ) प्रस्तुत गद्यांश में किन पर नियंत्रण रखने की बात कही गई है और क्यों?
(ड) कैसा समाज सभ्य और उन्नत कहा जाता है?
(च) सामाजिक अनुशासन की भावना व्यक्ति में कब जाग्रत होती है?
(छ) उत्कृष्ट और प्रगति शब्दों के विलोम तथा बाहु और वाणी' शब्दों के पर्यायवाची शब्द लिखिए।
(ज) प्रस्तुत गद्यांश के लिए उपयुक्त शीर्षक दीजिए।
उत्तर-
(क) हमारे धर्मनीतिकार नैतिक मूल्यों के प्रति विशेष जागरूक थे। इसका कारण यह था कि नैतिक मूल्यों का पालन किए बिना किसी भी समाज की आर्थिक व सामाजिक प्रगति की नीतियाँ प्रभावी नहीं हो सकी।
(ख) चरित्र मानव जीवन की अमूल्य निधि है, क्योंकि इसके द्वारा ही मनुष्य व पशु में अंतर होता है। चरित्र सामाजिक अनुशासन बनाए रखने के लिए आवश्यक है।
(ग) धर्मनीतिकारों ने उच्चकोटि की जीवन-प्रणाली के संबंध में यह कहा कि परिष्कृत जीवन-प्रणाली मनुष्य के विवेक-बुद्ध से ही निर्मित हो सकती है। हालाँकि यह तभी संभव है, जब संपूर्ण मानव जाति के संकल्प और उद्देश्य समान हों। सबके अंतर्मन में भव्य भावना जाग्रत हो और सभी लोग पारस्परिक सहयोग से मनोनुकूल कार्य करें।
(घ) इस गद्यांश में वाणी, बाहु तथा उदर पर नियंत्रण रखने की बात कही गई है, क्योंकि इन पर नियंत्रण न होने से चारित्रिक व नैतिक पतन हो जाता है।
(ड) यह सर्वमान्य तथ्य है कि सभ्यता का विकास आदर्श चरित्र से ही संभव है। आदर्श चरित्र के अभाव में सभ्यता का विकास असंभव है। अत: जिस समाज में चरित्रवान लोगों की बहुलता होती है, उसी समाज को सभ्य और उन्नत कहा जाता है।
(च) व्यापकता ही जागरण का प्रतीक है। अत. किसी व्यक्ति में अनुशासन की भावना का जाग्रत होना तभी संभव हो पाता है, जब वह व्यापक स्वरूप ग्रहण करता है, यानी समस्त जीवधारियों में अपनी आत्मा के दर्शन करता है।
(छ) विलोम शब्द-
उत्कृष्ट - निकृष्ट प्रगति - अवगति
पर्यायवाची शब्द-
बाहु-भुजा वाणी - वचन
(ज) शीर्षक-चरित्र निर्माण।
2. निम्नलिखित गदयांशों तथा इन पर आधारित प्रश्नोत्तरों को ध्यानपूर्वक पढ़िए-
वैदिक युग भारत का प्राय: सबसे अधिक स्वाभाविक काल था। यही कारण है कि आज तक भारत का मन उस काल की ओर बार-बार लोभ से देखता है। वैदिक आर्य अपने युग को स्वर्णकाल कहते थे या नहीं, यह हम नहीं जानते किंतु उनका समय हमें स्वर्णकाल के समान अवश्य दिखाई देता है। लेकिन जब बौद्ध युग का आरंभ हुआ, वैदिक समाज की पोल खुलने लगी और चिंतकों के बीच उसकी आलोचना आरंभ हो गई। बौद्ध युग अनेक दृष्टियों से आज के आधुनिक आदोलन के समान था। ब्राहमणों की श्रेष्ठता के विरुद्ध बुद्ध ने विद्रोह का प्रचार किया था, बुद्ध जाति प्रथा के विरोधी थे और वे मनुष्य को जन्मना नहीं कर्मणा श्रेष्ठ या अधम मानते थे।
नारियों को भिक्षुणी होने का अधिकार देकर उन्होंने यह बताया था कि मोक्ष केवल पुरुषों के ही निमित्त नहीं है, उसकी अधिकारिणी नारियाँ भी हो सकती हैं। बुद्ध की ये सारी बातें भारत को याद रही हैं और बुद्ध के समय से बराबर इस देश में ऐसे लोग उत्पन्न होते रहे हैं. जो जाति- प्रधा के विरोधी थे, जो मनुष्य को जन्मना नहीं, कर्मणा श्रेष्ठ या अधम समझते थे। किंतु बुद्ध में आधुनिकता से बेमेल बात यह थी कि वे निवृत्तिवादी थे, गृहस्थी के कर्म से वे भिक्षु-धर्म को श्रेष्ठ समझते थे। उनकी प्रेरणा से देश के हजारों-लाखों युवक, जउन बाक समाजक भण- पण कनेके हायक थे सन्यास होगए संन्यासक संस्था समाज विधिी सस्था हैं।
प्रश्न -
(क) वैदिक युग स्वर्णकाल के समान क्यों प्रतीत होता है?
(ख) जाति-प्रथा एवं नारियों के विषय में बुद्ध के विचारों को स्पष्ट कीजिए।
(ग) बुद्ध पर क्या आरोप लगता है और उनकी कौन-सी बात आधुनिकता के प्रसंग में ठीक नहीं बैठती?
(घ) संन्यास का अर्थ स्पष्ट करते हुए यह बताइए कि इससे समाज को क्या हानि पहुँचती है।
(ड) बौद्ध युग का उदय वैदिक समाज के शीर्ष पर बैठे लोगों के लिए किस प्रकार हानिकारक था?
(च) बौद्ध धर्म ने नारियों को समता का अधिकार दिलाने में किस प्रकार से योगदान दिया?
(छ) निर्देशानुसार उत्तर दीजिए-
उपसर्ग और मूल शब्द अलग-अलग करके लिखिए विद्रोह, संन्यास।
मूल शब्द और प्रत्यय अलग-अलग करके लिखिए आधुनिकता, विरोधी।
(ज) प्रस्तुत गद्यांश के लिए उपयुक्त शीर्षक दीजिए।
उत्तर-
(क) वैदिक युग भारत का स्वाभाविक काल था। हमें प्राचीन काल की हर चीज अच्छी लगती है। इस कारण वैदिक युग स्वर्णकाल के समान प्रतीत होता है।
(ख) बुद्ध जाति-प्रथा के विरुद्ध थे। उन्होंने ब्राहमणों की श्रेष्ठता का विरोध किया। मनुष्य को वे कर्म के अनुसार श्रेष्ठ या अधम मानते थे। उन्होंने नारी को मोक्ष की अधिकारिणी माना।
(ग) बुद्ध पर निवृत्तिवादी होने का आरोप लगता है। उनकी गृहस्थ धर्म को भिक्षु धर्म से निकृष्ट मानने वाली बात आधुनिकता के प्रसंग में ठीक नहीं बैठती।
(घ) संन्यास' शब्द 'सम् + न्यास' शब्द से मिलकर बना है। सम्' यानी 'अच्छी तरह से और न्यास यानी 'त्याग करना। अर्थात अच्छी तरह से त्याग करने को ही संन्यास कहा जाता है। संन्यास की संस्था से देश का युवा वर्ग उत्पादक कार्य में भाग नहीं लेता। इससे समाज की व्यवस्था खराब हो जाती है।
(ड) बौद्ध युग का उदय वैदिक युग की कमियों के प्रतिक्रियास्वरूप हुआ था। वस्तुतः वैदिक युगीन समाज के शीर्ष पर ब्राहमण वर्ग के कुछ स्वार्थी लोग विराजमान थे। ये लोग जन्म के आधार पर अपने-आप को श्रेष्ठ मानते थे और शेष समाज को भी श्रेष्ठ मानने के लिए मजबूर करते थे। ऐसे में बौद्ध धर्म के सिद्धांत शोषित समाज धात अधिकार देकर यह सिद्ध किया कि मोक्ष केवल पुरुषों के ही निमित्त नहीं है। इस पर नारियों का भी हक है। यह नारियों को समता का अधिकार दिलाने में काफी प्रभावी कदम साबित हुआ।
(छ)
उपसर्ग - वि, सम् मूल शब्द- द्रोह, न्यास
मूल शब्द-आधुनिक, विरोध प्रत्यय - ता, ई।
(ज) शीर्षक- बुद्ध की वैचारिक प्रासंगिकता।
3. निम्नलिखित गदयांशों तथा इन पर आधारित प्रश्नोत्तरों को ध्यानपूर्वक पढ़िए-
तत्ववेत्ता शिक्षाविदों के अनुसार विद्या दो प्रकार की होती है। प्रथम वह, जो हमें जीवन-यापन के लिए अर्जन करना सिखाती है और द्रवितीय वह, जो हमें जीना सिखाती है। इनमें से एक का भी अभाव जीवन को निरर्थक बना देता है। बिना कमाए जीवन-निर्वाह संभव नहीं। कोई भी नहीं चाहेगा कि वह परावलंबी हो-माता-पिता, परिवार के किसी सदस्य, जाति या समाज पर। पहली विद्या से विहीन व्यक्ति का जीवन दूभर हो जाता है, वह दूसरों के लिए भार बन जाता है। साथ ही विद्या के बिना सार्थक जीवन नहीं जिया जा सकता। बहुत अर्जित कर लेनेवाले व्यक्ति का जीवन यदि सुचारु रूप से नहीं चल रहा, उसमें यदि वह जीवन-शक्ति नहीं है, जो उसके अपने जीवन को तो सत्यपथ पर अग्रसर करती ही है, साथ ही वह अपने समाज, जाति एवं राष्ट्र के लिए भी मार्गदर्शन करती है, तो उसका जीवन भी मानव जीवन का अभिधान नहीं पा सकता। वह भारवाही गर्दभ बन जाता है या पूँछ सींगविहीन पशु कहा जाता है।
वर्तमान भारत में दूसरी विद्या का प्राय. अभावे दिखाई देता है, परंतु पहली विद्या का रूप भी विकृत ही है, क्योंकि न तो स्कूल कॉलेजों में शिक्षा प्राप्त करके निकला छात्र जीविकार्जन के योग्य बन पाता है और न ही वह उन संस्कारों से युक्त हो पाता है, जिनसे व्यक्ति कु से सु बनता है, सुशिक्षित, सुसभ्य और सुसंस्कृत कहलाने का अधिकारी होता है। वर्तमान शिक्षा-पद्धति के अंतर्गत हम जो विद्या प्राप्त कर रहे हैं, उसकी विशेषताओं को सर्वथा नकारा भी नहीं जा सकता। यह शिक्षा कुछ सीमा तक हमारे दृष्टिकोण को विकसित भी करती है. हमारी मनीषा को प्रबुद्ध बनाती है तथा भावनाओं को चेतन करती है, किंतु कला, शिल्प, प्रौद्योगिकी आदि की शिक्षा नाममात्र की होने के फलस्वरूप इस देश के स्नातक के लिए जीविकार्जन टेढ़ी खीर बन जाता है और बृहस्पति बना युवक नौकरी की तलाश में अर्जियाँ लिखने में ही अपने जीवन का बहुमूल्य समय बर्बाद कर लेता है।
जीवन के सर्वागीण विकास को ध्यान में रखते हुए यदि शिक्षा के क्रमिक सोपानों पर विचार किया जाए, तो भारतीय विद्यार्थी को सर्वप्रथम इस प्रकार की शिक्षा दी जानी चाहिए. जो आवश्यक हो, दूसरी जो उपयोगी हो और तीसरी जो हमारे जीवन को परिष्कृत एवं अलंकृत करती हो। ये तीनों सीढ़ियाँ एक के बाद एक आती हैं, इनमें व्यतिक्रम नहीं होना चाहिए। इस क्रम में व्याघात आ जाने से मानव-जीवन का चारु प्रासाद खड़ा करना असंभव है। यह तो भवन की छत बनाकर नींव बनाने के सदृश है। वर्तमान भारत में शिक्षा की अवस्था देखकर ऐसा प्रतीत होता है कि प्राचीन भारतीय दार्शनिकों ने अन्न से आनंद की ओर बढ़ने को जो विद्या का सार कहा था, वह सर्वथा समीचीन ही था।
प्रश्न-
(क) प्रस्तुत गद्यांश के लिए उपयुक्त शीर्षक दीजिए।
(ख) व्यक्ति किस परिस्थिति में मानव-जीवन की उपाधि नहीं पा सकता?
(ग) विद्या के कौन-से दो रूप बताए गए हैं?
(घ) वर्तमान शिक्षा पद्धति के लाभ व हानि बताइए।
(ड) विद्याहीन व्यक्ति की समाज में क्या दशा होती है?
(च) शिक्षा के क्रमिक सोपान कौन-कौन-से हैं?
(छ) शिक्षित युवकों को अपना बहुमूल्य समाज क्यों बर्बाद करना पड़ता है?
(ज) निर्देशानुसार उत्तर दीजिए-
1.संथि-विच्छेद कीजिए-परावलबी, जीविकोपार्जन।
विलोम शब्द लिखिए - सार्थक, विकास।
उत्तर-
(क) शीर्षक-शिक्षा के सोपान।
(ख) जीवन-यापन के लिए काफी धन अर्जित करने के बावजूद व्यक्ति का जीवन सुचारु रूप से नहीं चल पाता, क्योंकि उनके पास वह जीवन-शक्ति नहीं होती, जो स्वयं के जीवन को सत्पथ की ओर अग्रसर करती है और साथ-ही-साथ समाज और राष्ट्र का मार्गदर्शन करती है। इस परिस्थिति में व्यक्ति मानव-जीवन की उपाधि नहीं पा सकता।
(ग) विद्या के दो रूप बताए गए हैं
1. वह विद्या जो जीवन यापन के लिए अर्जन करना सिखाती है।
2. वह विद्या जो जीना सिखाती है।
(घ) आधुनिक शिक्षा पद्धति हमारी बुद्ध विकसित करती है, भावनाओं को चेतन करती है, परंतु जीविकोपार्जन के लिए कुछ नहीं कर पाती।
(ड) विद्याहीन व्यक्ति न तो जीवन यापन के लिए अर्जन करना जानता है और न ही वह जीने की कला से परिचित होता है। उसका जीवन निरर्थक हो जाता है। वह आजीवन परावलंबी होता है।
(च) शिक्षा के क्रमिक सोपान हैं-विद्यार्थी की आवश्यकता, शिक्षा की उपयोगिता और जीवन को परिष्कृत तथा अलकृत करना।
(छ) वर्तमान शिक्षा-प्रणाली में कला, शिल्प एवं प्रौद्योगिकी आदि की शिक्षा नाममात्र की होने के फलस्वरूप शिक्षित युवकों का जीविकोपार्जन टेढ़ी खीर बन गया है। उन्हें अपना अधिकांश समय नौकरी की तलाश में अर्जियाँ लिखने में बर्बाद करना पड़ता है।
1.संधि-विच्छेद-
परावलंबी: पर + अवलंबी।
जीवकोपार्जन : जीविका + उपार्जन।
2.विलोम शब्द : सार्थक - निरर्थक।
विकास - हास।
4. निम्नलिखित गदयांशों तथा इन पर आधारित प्रश्नोत्तरों को ध्यानपूर्वक पढ़िए-
प्रजातंत्र के तीन मुख्य अंग है कार्यपालिका विधायिका और न्यायपालिका। प्रजातंत्र की सार्थकता एवं दृढ़ता को ध्यान में रखते हुए और जनता के प्रहरी होने की भूमिका को देखते हुए मीडिया (दृश्य, श्रव्य और मुद्रित) को प्रजातंत्र के चौथे स्तंभ के रूप में देखा जाता है। समाचार-माध्यम या मीडिया को पिछले वर्षों में पत्रकारों और समाचार-पत्रों ने एक विश्वसनीयता प्रदान की है और इसी कारण विश्व में मीडिया एक अलग शक्ति के रूप में उभरा है।
कार्यपालिका और विधायिका की समस्याओं, कार्य-प्रणाली और विसंगतियों की चर्चा प्रायः होती रहती है और सर्वसाधारण में वे विशेष चर्चा के विषय रहते ही हैं। इसमें समाचार पत्र, रेडियो और टी०वी० समाचार अपनी टिप्पणी के कारण चर्चा को आगे बढ़ाने में योगदान करते हैं, पर न्यायपालिका अत्यंत महत्वपूर्ण होने के बावजूद उसके बारे में चर्चा कम ही होती है। ऐसा केवल अपने देश में ही नहीं, अन्य देशों में भी कमोबेश यही स्थिति है।
स्वराज-प्राप्ति के बाद और एक लिखित संविधान के देश में लागू होने के उपरांत लोकतंत्र के तीनों अंगों के कर्तव्यों, अधिकारों और दायित्वों के बारे में जनता में जागरूकता बढ़ी है। संविधान निर्माताओं का उद्देश्य रहा है कि तीनों अंग परस्पर ताल मेल से कार्य करेंगे। तीनों के पारस्परिक संबंध भी संविधान द्वारा निर्धारित , फिर भी समय के साथ साथ कुछ समस्याएँ उठ खड़ी होती हैं। आज लोकतंत्र यह महसूस करता है कि न्यायपालिका | भी अधिक पारदर्शिता हो, जिससे उसकी प्रतिष्ठा और सम्मान बढ़े। जिस देश में पंचों को परमेश्वर मानने की परंपरा, वहाँ न्यायमूर्तियों पर आक्षेप दुर्भाग्यपूर्ण है।'
प्रश्न-
(क) लोकतंत्र के तीनों अंगों का नामोल्लेख कीजिए। चौथा अंग किसे माना जाता है?
(ख) लोकतंत्र में मीडिया की भूमिका स्पष्ट कीजिए।
(ग) अत्यंत महत्वपूर्ण अंग होने के बावजूद न्यायपालिका के बारे में मीडिया में कम चर्चा क्यों होती है?
(घ) जनता में अधिकारों और दायित्वों के प्रति जागरूकता बढ़ाने में किसका योगदान है? कैसे?
(ड) पारदर्शिता' से क्या तात्पर्य है? लोकतंत्र न्यायपालिका में अधिक पारदर्शिता क्यों चाहता है?
(च) आशय स्पष्ट कीजिए जिस देश में पंचों को परमेश्वर मानने की परंपरा हो, वहाँ न्यायमूर्तियों पर आक्षेप दुर्भाग्यपूर्ण है।'
(छ) निर्देशानुसार उत्तर दीजिए-
1.विशेषण बनाइए-विश्व, प्रतिष्ठा
2.वाक्य में प्रयोग कीजिए-मर्यादा, विसंगति
(ज) उपर्युक्त गद्यांश के लिए उपयुक्त शीर्षक दीजिए।
उत्तर-
(क) लोकतंत्र के तीन मुख्य अंग हैं कार्यपालिका, विधायिका और न्यायपालिका। चौथा अंग मीडिया को माना जाता है। इसमें दृश्य, श्रव्य व मुद्रित मीडिया होते हैं।
(ख) लोकतंत्र में मीडिया की अह भूमिका है। यह कार्यपालिका व विधायिका की समस्याओं, कार्य प्रणाली तथा विसंगतियों की चर्चा करती है, पर न्यायपालिका पर किसी प्रकार की टिप्पणी करने से बचती है।
(ग) न्यायपालिका प्रजातंत्र का अत्यंत महत्वपूर्ण अंग है, परंतु इसकी चर्चा मीडिया में कम होती है, क्योंकि उसमें पारदर्शिता अधिक होती है। दूसरे, न्यायपालिका अपने विशेषाधिकारों के प्रयोग से मीडिया को दबा देती है।
(घ) जनता में अधिकारों और दायित्वों के प्रति जागरूकता बढ़ाने में मीडिया का योगदान है। यह सरकार द्वारा बनाई गई नई-नई नीतियों को जनता तक पहुँचाती है तथा उन नीतियों के अंतर्गत दिए गए अधिकारों के प्रति जागरूक बनती है। साथ-ही-साथ यह दायित्वबोध कराने में भी अपनी अह भूमिका अदा करती है।
(ड) पारदर्शिता' का अर्थ है -आर पार दिखाई देना या संदेह में न रखना। न्यायपालिका लोकतंत्र की रक्षिका है. परंतु न्यायाधीशों पर आक्षेप लगने लगे हैं। अतः लोकतंत्र न्यायपालिका में पारदर्शिता चाहता है।
(च) इसका अर्थ यह है कि भारत में पहले न्यायाधीशों को ईश्वर के बराबर का दर्जा दिया जाता था, क्योंकि वे पक्षपातपूर्ण निर्णय नहीं देते थे आजकल न्यायाधीशों के निर्णयों व कार्य प्रणालियों पर आरोप लगाए जाने लगे हैं। यह गलत परंपरा की शुरुआत है।
(छ)
विशेषण-वैश्विक, प्रतिष्ठित
2.हर व्यक्ति को अपनी मर्यादा में रहना चाहिए।
सरकार ने वेतन-विसंगति दूर करने का वायदा किया।
(ज) शीर्षक मीडिया और लोकतंत्र। अथवा, प्रजातंत्र के अंग।
5. निम्नलिखित गदयांशों तथा इन पर आधारित प्रश्नोत्तरों को ध्यानपूर्वक पढ़िए-
संस्कृतियों के निर्माण में एक सीमा तक देश और जाति का योगदान रहता है। संस्कृति के मूल उपादान तो प्रायः सभी सुसंस्कृत और सभ्य देशों में एक सीमा तक समान रहते हैं, किंतु बाहय उपादानों में अंतर अवश्य आता है। राष्ट्रीय या जातीय संस्कृति का सबसे बड़ा योगदान यही है कि वह हमें अपने राष्ट्र की परंपरा से संपृक्त बनाती है, अपनी रीति-नीति की संपदा से विच्छिन्न नहीं होने देती। आज के युग में राष्ट्रीय एवं जातीय संस्कृतियों के मिलन के अवसर अति सुलभ हो गए हैं, संस्कृतियों का पारस्परिक संघर्ष भी शुरू हो गया है। कुछ ऐसे विदेशी प्रभाव हमारे देश पर पड़ रहे हैं, जिनके आतंक ने हमें स्वयं अपनी संस्कृति के प्रति संशयालु बना दिया है। हमारी आस्था डिगने लगी है। यह हमारी वैचारिक दुर्बलता का फल है।
अपनी संस्कृति को छोड़, विदेशी संस्कृति के विवेकहीन अनुकरण से हमारे राष्ट्रीय गौरव को जो ठेस पहुंच रही है, वह किसी राष्ट्रप्रेमी जागरूक व्यक्ति से छिपी नहीं है। भारतीय संस्कृति में त्याग और ग्रहण की अद्भुत क्षमता रही है। अतः आज के वैज्ञानिक युग में हम किसी भी विदेशी संस्कृति के जीवंत तत्वों को ग्रहण करने में पीछे नहीं रहना चाहेंगे, किंतु अपनी सांस्कृतिक निधि की उपेक्षा करके नहीं। यह परावलंबन राष्ट्र की गरिमा के अनुरूप नहीं है। यह स्मरण रखना चाहिए कि सूर्य की आलोकप्रदायिनी किरणों से पौधे को चाहे जितनी जीवनशक्ति मिले, किंतु अपनी जमीन और अपनी जड़ों के बिना कोई पौधा जीवित नहीं रह सकता। अविवेकी अनुकरण अज्ञान का ही पर्याय है।
प्रश्न-
(क) आधुनिक युग में संस्कृतियों में परस्पर संघर्ष प्रारंभ होने का प्रमुख कारण बताइए।
(ख) हम अपनी संस्कृति के प्रति शंकालु क्यों हो गए हैं?
(ग) राष्ट्रीय संस्कृति की हमारे प्रति सबसे बड़ी देन क्या है?
(प) हम अपनी सांस्कृतिक संपदा की उपेक्षा क्यों नहीं कर सकते?
(ड) हम विदेशी संस्कृति से क्या ग्रहण कर सकते हैं तथा क्यों?
(च) निर्देशानुसार उत्तर दीजिए-
प्रत्यय बताइए-जातीय, सांस्कृतिक।
पर्यायवाची बताइए-देश, सूर्य।
(छ) गद्यांश में युवाओं के किस कार्य को राष्ट्र की गरिमा के अनुकूल नहीं माना गया है तथा उन्हें क्या संदेश दिया गया है?
(ज) उपर्युक्त गद्यांश के लिए उपयुक्त शीर्षक दीजिए।
उत्तर-
(क) आधुनिक युग में संस्कृतियों में परस्पर संघर्ष प्रारंभ होने का प्रमुख कारण यह है कि भिन्न संस्कृतियों के निकट आने के कारण अतिक्रमण एवं विरोध स्वाभाविक है।
(ख) हम अपनी संस्कृति के प्रति शंकालु इसलिए हो गए हैं, क्योंकि नई पीढ़ी ने विदेशी संस्कृति के कुछ तत्वों को स्वीकार करना प्रारंभ कर दिया है।
(ग) राष्ट्रीय संस्कृति की हमारे प्रति सबसे बड़ी देन यही है कि वह हमें अपने राष्ट्र की परंपरा और रीति - नीति से जोड़े रखती है।
(घ) हम अपनी सांस्कृतिक संपदा की उपेक्षा इसलिए नहीं कर सकते, क्योंकि ऐसा करने से हम जडविहीन पौधे के समान हो जाएंगे।
(ड) हम विदेशी संस्कृति के जीवंत तत्वों को ग्रहण कर सकते हैं, क्योंकि भारतीय संस्कृति में त्याग व ग्रहण की अद्भुत क्षमता रही है।
(च) प्रत्यय-ईय, इका
पर्यायवाची देश-राष्ट्र राज्य।
सूर्य रवि, सूरज।
(छ) गद्यांश में युवाओं द्वारा विदेशी संस्कृति का अविवेकपूर्ण अंधानुकरण करना राष्ट्र की गरिमा के अनुकूल नहीं माना गया है। साथ ही-साथ युवाओं के लिए यह संदेश दिया गया है कि उन्हें भारतीय संस्कृति की अवहेलना करके विदेशी संस्कृति का अंधानुकरण नहीं करना चाहिए।
(ज) शीर्षक-भारतीय संस्कृति का वैचारिक संघर्ष।
6. निम्नलिखित गदयांशों तथा इन पर आधारित प्रश्नोत्तरों को ध्यानपूर्वक पढ़िए-
परियोजना शिक्षा का एक बहुत ही महत्वपूर्ण अंग है। इसे तैयार करने में किसी खेल की तरह का ही आनंद मिलता है। इस तरह परियोजना तैयार करने का अर्थ है-खेल-खेल में बहुत कुछ सीख जाना। यदि आपको कहा जाए कि दशहरा पर निबंध लिखिए, तो आपको शायद उतना आनंद नहीं आएगा। लेकिन यदि आपसे कहा जाए कि अखबारों में प्राप्त जानकारियों के अलावा भी आपको देश-दुनिया की बहुत सारी जानकारियाँ प्रदान करती है। यह आपको तथ्यों को जुटाने तथा उन पर विचार करने का अवसर प्रदान करती है। इससे आप में नए-नए तथ्यों के कौशल का विकास होता है। इससे आपमें एकाग्रता का विकास होता है। लेखन संबंधी नई-नई शैलियों का विकास होता है।
आपमें चिंतन करने तथा किसी पूर्व घटना से वर्तमान घटना को जोड़कर देखने की शक्ति का विकास होता है। परियोजना कई प्रकार से तैयार की जा सकती है। हर व्यक्ति इसे अलग ढंग से, अपने तरीके से तैयार कर सकता है। ठीक उसी प्रकार जैसे हर व्यक्ति का बातचीत करने का, रहने का, खाने-पीने का अपना अलग तरीका होता है। ऐसा निबंध, कहानी कविता लिखते या चित्र बनाते समय भी होता है। लेकिन ऊपर कही गई बातों के आधार पर यहाँ हम परियोजना को मोटे तोर पर दो भागों में बाँट सकते हैं-एक तो वे परियोजनाएँ, जो समस्याओं के निदान के लिए तैयार की जाती हैं और दूसरी , जो किसी विषय की समुचित जानकारी प्रदान करने के लिए तैयार की जाती है।
समस्याओं के निदान के लिए तैयार की जाने वाली परियोजनाओं में संबंधित समस्या से जुड़े सभी तथ्यों पर प्रकाश डाला जाता है और उस समस्या के निदान के लिए भी दिए जाते हैं। इस तरह की परियोजनाएँ प्रायः सरकार अथवा संगठनों द्वारा किसी समस्या पर कार्य - योजना तैयार करते समय बनाई जाती हैं। इससे उस समस्या के विभिन्न पहलुओं पर कार्य करने में आसानी हो जाती है। किंतु दूसरे प्रकार की परियोजना को आप आसानी से तैयार कर सकते हैं। इसे 'शैक्षिक परियोजना' भी कहा जाता है। इस तरह की परियोजनाएँ तैयार करते समय आप संबंधित विषय पर तो को जुटाते हुए बहुत सारी नई-नई बातों से अपने-आप परिचित भी होते हैं।
(क) उपर्युक्त गद्यांश के लिए उपयुक्त शीर्षक दीजिए।
(ख) परियोजना क्या है? इसका क्या महत्व है?
(ग) शैक्षिक परियोजना क्या है?
(घ) परियोजना हमें क्या-क्या प्रदान करती है?
(ड) परियोजना किस प्रकार तैयार की जा सकती है? यह कितने प्रकार की होती है?
(च) समस्या का निदान करने वाली परियोजना केसी होनी चाहिए?
(छ) फोटो-फीचर परियोजना से आप क्या समझते हैं?
(ज) निर्देशानुसार उत्तर दीजिए-
विशेषण बनाइए-शिक्षा, संबंध
सरल वाक्य में बदलिए-
'इस तरह से न केवल आपने चित्र काटे और चिपकाए, बल्कि कई शहरों में मनाए जाने वाले दशहरे के तरीके को भी जाना।"
उत्तर-
(क) शीर्षक-परियोजना का स्वरूप।
(ख) गद्यांश के आधार पर हम कह सकते हैं कि परियोजना नियमित एवं व्यवस्थित रूप से स्थिर किया गया विचार एवं स्वरूप है। इसके द्वारा खेल खेल में ज्ञानार्जन तथा समस्या समाधान आदि की तैयारी की जाती है।
(ग) शैक्षिक परियोजना में संबंधित विषय पर तर्यों को जुटाते हुए, चित्र इकट्ठे करके एक स्थान पर चिपकाए जाते हैं। इनसे नई नई बातों की जानकारी दी जाती है।
(घ) परियोजना हमें हमारी समस्याओं का निदान प्रदान करती है तथा देश-दुनिया की बहुत सारी जानकारियाँ प्रदान करती है। साथ ही-साथ यह हमको नए-नए तथ्यों को जुटाने तथा उन पर विचार करने का अवसर भी प्रदान करती है।
(ड) परियोजना कई प्रकार से तैयार की जाती है। हर व्यक्ति इसे अपने ढंग से तैयार कर सकता है। परियोजनाएँ दो प्रकार की होती हैं।
समस्या का निदान करने वाली परियोजना, तथा
विषय की समुचित जानकारी देने वाली परियोजना।
(च) समस्या का निदान करने वाली परियोजना में संबंधित समस्या से जुड़े सभी तथ्यों पर प्रकाश डालना चाहिए और समस्या-निदान के सुझाव भी दिए जाने चाहिए।
(छ) फोटो फीचर परियोजना समस्या निदान और ज्ञानार्जन दोनों के लिए हो सकती है। इसके अंतर्गत फोटो फीचर के माध्यम से देश- दुनिया की जानकारियाँ प्राप्त की जाती हैं या किसी समस्या के निदान हेतु एक निश्चित निष्कर्ष तक पहुँचा जाता है।
विशेषण-शेक्षिक, संबंधित।
सरल वाक्य: इस तरह आपने चित्र काटना, चिपकाना और विभिन्न शहरों में मनाए जाने वाले दशहरे को जाना।
7. निम्नलिखित गदयांशों तथा इन पर आधारित प्रश्नोत्तरों को ध्यानपूर्वक पढ़िए-
सुचारित्र्य के दो सशक्त स्तंभ हैं-प्रथम सुसंस्कार और द्रवितीय सत्संगति। सुसंस्कार भी पूर्व जीवन की सत्संगति व सत्कर्मों की अर्जित संपत्ति है और सत्संगति वर्तमान जीवन की दुर्लभ विभूति है। जिस प्रकार कुधातु की कठोरता और कालिख पारस के स्पर्श मात्र से कोमलता और कमनीयता में बदल जाती है, ठीक उसी प्रकार कुमार्गी का कालुष्य सत्संगति से स्वर्णिम आभा में परिवर्तित हो जाता है। सतत सत्संगति से विचारों को नई दिशा मिलती है और अच्छे विचार मनुष्य को अच्छे कार्यों में प्रेरित करते हैं।
परिणामतः सुचरित्र का निर्माण होता है। आचार्य हजारीप्रसाद विवेदी ने लिखा है-महाकवि टैगोर के पास बैठने मात्र से ऐसा प्रतीत होता था, मानो भीतर का देवता जाग गया हो। वस्तुत. चरित्र से ही जीवन की सार्थकता है। चरित्रवान व्यक्ति समाज की शोभा है. शक्ति है। सुचारित्र्य से व्यक्ति ही नहीं, समाज भी सुवासित होता है और इस सुवास से राष्ट्र यशस्वी बनता है। विदुर जी की उक्ति अक्षरशः सत्य है कि सुचरित्र के बीज हमें भले ही वंश परंपरा से प्राप्त हो सकते हैं, पर चरित्र-निर्माण व्यक्ति के अपने बलबूते पर निर्भर है।
आनुवंशिक परंपरा, परिवेश और परिस्थिति उसे केवल प्रेरणा दे सकते हैं, पर उसका अर्जन नहीं कर सकते, वह व्यक्ति को उत्तराधिकार में प्राप्त नहीं होता। व्यक्ति-विशेष के शिथिल-चरित्र होने से पूरे राष्ट्र पर चरित्र-संकट उपस्थित हो जाता है, क्योंकि व्यक्ति पूरे राष्ट्र का एक घटक है। अनेक व्यक्तियों से मिलकर एक परिवार, अनेक परिवारों से एक कुल, अनेक कुलों से एक जाति या समाज और अनेकानेक जातियों और समाज समुदायों से मिलकर ही एक राष्ट्र बनता है। आज जब लोग सूचित्र नमाण की बात कते हैं तब वे स्वायं इसराष्ट्र के एक आयक घटक हैं इस बात को विस्तक देते हैं।
प्रश्न-
(क) सत्संगति कुमार्गी को कैसे सुधारती है? सोदाहरण स्पष्ट कीजिए।
(ख) चरित्र के बारे में विदुर के क्या विचार हैं?
(ग) व्यक्ति विशेष का चरित्र समूचे राष्ट्र को कैसे प्रभावित करता है?
(घ) व्यक्ति के चरित्र-निर्माण में किस-किस का योगदान होता है तथा व्यक्ति सुसंस्कृत कैसे बनता है?
(ड) संगति के संदर्भ में पारस के उल्लेख से लेखक क्या प्रतिपादित करना चाहता है?
(च) किसी व्यक्ति-विशेष के शिधिल-चरित्र होने से राष्ट्र की क्या क्षति होती है?
(छ) निर्देशानुसार उत्तर दीजिए-
विलोम शब्द लिखिए-दुर्लभ निर्माण
मिश्र वाक्य में बदलिए-
'सतत सत्संगति से विचारों को नई दिशा मिलती है और अच्छे विचार मनुष्य को अच्छे कार्यों में प्रेरित करते हैं।"
(ज) प्रस्तुत गद्यांश के लिए एक उपयुक्त शीर्षक दीजिए।
उत्तर-
(क) सत्संगति से विचारों को नई दिशा मिलती है और अच्छे विचार मनुष्य को अच्छे कार्यों में प्रेरित करते हैं। इससे कुमार्गी व्यक्ति उसी तरह सुधर जाता है, जैसे पारस के संपर्क में आने से लोहा सोना बन जाता है।
(ख) चरित्र के बारे में विदुर का विचार है कि अच्छे चरित्र के बीज वंश-परंपरा से मिल जाते हैं, परंतु चरित्र-निर्माण व्यक्ति को स्वयं करना पड़ता है। सुचरित्र कभी उत्तराधिकार में नहीं मिलता।
(ग) यदि व्यक्ति-विशेष का चरित्र कमजोर हो, तो पूरे राष्ट्र के चरित्र पर संकट उपस्थित हो जाता है, क्योंकि व्यक्ति पूरे राष्ट्र का एक आचरक घटक होता है।
(घ) व्यक्ति के चरित्र के निर्माण में सुसंस्कार, सत्संगति परिवार, कुल, जाति, समाज आदि का योगदान होता है। व्यक्ति में अच्छे संस्कारों व सत्संगति से अच्छे गुणों का विकास होता है। इस कारण व्यक्ति सुसंस्कृत बनता है।
(ड) संगति के संदर्भ में लेखक ने पारस का उल्लेख किया है। पारस के संपर्क में आने से हर किस्म का लोहा सोना बन जाता है, इसी तरह अच्छी संगति से हर तरह का बुरा व्यक्ति भी अच्छा बन जाता है।
(च) किसी व्यक्ति विशेष के शिथिल चरित्र होने पर संपूर्ण राष्ट्र के चरित्र पर नकारात्मक प्रभाव पड़ता है, क्योंकि व्यक्तियों के समूह से ही किसी राष्ट्र का निर्माण होता है। इस प्रकार व्यक्ति राष्ट्र का एक आचरक घटक है। अत राष्ट्रीय चरित्र किसी राष्ट्र के संपूर्ण व्यक्तियों के चरित्र का समावेशित रूप है। निष्कर्षत: हम कह सकते हैं कि किसी एक व्यक्ति के शिथिल-चरित्र होने पर राष्ट्रीय चरित्र की क्षति होती है।
(छ)
विलोम शब्द सुलभ, विध्वंस।
मिश्र वाक्य-जब सतत सत्संगति से विचारों को नई दिशा मिलती है, तब अच्छे विचार मनुष्य को अच्छे कार्यों में प्रेरित करते हैं।
(ज) शीर्षक-चरित्र-निर्माण और सत्संगति।
8. निम्नलिखित गदयांशों तथा इन पर आधारित प्रश्नोत्तरों को ध्यानपूर्वक पढ़िए-
जाति-प्रथा को यदि श्रम-विभाजन मान लिया जाए, तो यह स्वाभाविक विभाजन नहीं है, क्योंकि यह मनुष्य की रुचि पर आधारित है। कुशल व्यक्ति या सक्षम श्रमिक समाज का निर्माण करने के लिए यह आवश्यक है कि हम व्यक्ति की क्षमता इस सीमा तक विकसित करें, जिससे वह अपने पेशे या कार्य का चुनाव स्वयं कर सके। इस सिद्धांत के विपरीत जाति-प्रथा का दूषित सिद्धांत यह है कि इससे मनुष्य के प्रशिक्षण अथवा उसकी निजी क्षमता का विचार किए बिना, दूसरे ही दृष्टिकोण जैसे माता पिता के सामाजिक स्तर के अनुसार पहले से ही अर्थात गर्भधारण के समय से ही मनुष्य का पेशा निर्धारित कर दिया जाता है।
जाति-प्रथा पेशे का दोषपूर्ण पूर्वनिर्धारण ही नहीं करती, बल्कि मनुष्य को जीवन-भर के लिए एक पेशे में बाँध भी देती है, भले ही पेशा अनुपयुक्त या अपर्याप्त होने के कारण वह भूखों मर जाए। आधुनिक युग में यह स्थिति प्राय आती है, क्योंकि उद्योग धंधे की प्रक्रिया व तकनीक में निरंतर विकास और कभी-कभी अकस्मात परिवर्तन हो जाता है, जिसके कारण मनुष्य को अपना पेशा बदलने की आवश्यकता पड़ सकती है और यदि प्रतिकूल परिस्थितियों में भी मनुष्य को अपना पेशा बदलने की स्वतंत्रता न हो तो इसके लिए भूखे मरने के अलावा क्या चारा रह जाता है? हिंदू धर्म की जाति प्रथा किसी भी व्यक्ति को ऐसा पेशा चुनने की अनुमति नहीं देती है, जो उसका पैतृक पेशा न हो, भले ही वह उसमें पारंगत है। इस प्रकार पेशा-परिवर्तन की अनुमति न देकर जाति-प्रथा भारत में बेरोजगारी का एक प्रमुख व प्रत्यक्ष कारण बनी हुई है।
प्रश्न-
(क) कुशल श्रमिक-समाज का निर्माण करने के लिए क्या आवश्यक है?
(ख) जाति-प्रथा के सिद्धांत को दूषित क्यों कहा गया है?
(ग) जाति-प्रथा पेशे का न केवल दोषपूर्ण पूर्वनिर्धारण करती है, बल्कि मनुष्य को जीवन भर के लिए एक पेशे से बाँध देती है। कथन पर उदाहरण सहित टिप्पणी कीजिए।
(प) भारत में जाति-प्रथा बेरोजगारी का एक प्रमुख कारण किस प्रकार बन जाती है?
(ड) जाति-प्रथा के दोषपूर्ण पक्ष कौन कौन से हैं?
(च) जाति-प्रथा बेरोजगारीका कारण कैसे बन जाती है?
(छ) निर्देशानुसार उत्तर दीजिए-
गद्यांश में से इक और इत प्रत्ययों से बने शब्द छाँटकर लिखिए।
समस्तपदों का विग्रह कीजिए और समास का नाम लिखिए श्रम विभाजन, माता-पिता।
(ज) उपर्युक्त गद्यांश का उपयुक्त शीर्षक दीजिए।
उत्तर-
(क) कुशल या सक्षम श्रमिक समाज का निर्माण करने के लिए आवश्यक है कि हम जातीय जड़ता को त्यागकर प्रत्येक व्यक्ति को इस सीमा तक विकसित एवं स्वतंत्र करें, जिससे वह अपनी कुशलता के अनुसार कार्य का चुनाव स्वयं करे। यदि श्रमिकों को मनचाहा कार्य मिले तो कुशल श्रमिक-समाज का निर्माण स्वाभाविक है।
(ख) जाति-प्रथा का सिद्धांत इसलिए दूषित कहा गया है, क्योंकि वह व्यक्ति की क्षमता या रुचि के अनुसार उसके चुनाव पर आधारित नहीं है। वह पूरी तरह माता-पिता की जाति पर ही अवलंबित और निर्भर है।
(ग) जाति-प्रथा व्यक्ति की क्षमता, रुचि और इसके चुनाव पर निर्भर न होकर गर्भाधान के समय से ही, व्यक्ति की जाति का पूर्वनिर्धारण कर देती है, जैसे-धोबी, कुम्हार, सुनार आदि।
(घ) उद्योग-धंधों की प्रक्रिया और तकनीक में निरंतर विकास और परिवर्तन हो रहा है, जिसके कारण व्यक्ति को अपना पेशा बदलने की जरूरत पड़ सकती है। यदि वह ऐसा न कर पाए तो उसके लिए भूखे मरने के अतिरिक्त कोई विकल्प नहीं रह पाता।
(ड) जाति-प्रथा के दोषपूर्ण पक्ष निम्नलिखित हैं-
पेशे का दोषपूर्ण निर्धारण।
अक्षम श्रमिक समाज का निर्माण।
देश काल की परिस्थिति के अनुसार पेशा-परिवर्तन पर रोका
(च) जाति प्रथा बेरोजगारी का कारण तब बन जाती है, जब परंपरागत ढंग से किसी जाति-विशेष के द्वारा बनाए जा रहे उत्पाद को आज के औद्योगिक युग में नई तकनीक द्वारा बड़े पैमाने पर तैयार किया जाने लगता है। ऐसे में उस जाति-विशेष के लोग नई तकनीक के मुकाबले टिक नहीं पाते। उनका परंपरागत पेशा छिन जाता है, फिर भी उन्हें जाति-प्रथा पेशा बदलने की अनुमति नहीं देती। ऐसे में बेरोजगारी का बढ़ना स्वाभाविक है।
(छ)
प्रत्यय-इक, इत प्रत्यययुक्त शब्द-स्वाभाविक, आधारित।
समस्तपद समास-विग्रह समास का नाम
श्रम विभाजन : श्रम का विभाजन तत्पुरुष समास
माता-पिता : माता और पिता द्वंद्व समास
(ज) शीर्षक जाति-प्रथा।
9. निम्नलिखित गदयांशों तथा इन पर आधारित प्रश्नोत्तरों को ध्यानपूर्वक पढ़िए-
जहाँ भी दो नदियाँ आकर मिल जाती है, उस स्थान को अपने देश में तीर्थ' कहने का रिवाज है। और यह केवल रिवाज की ही बात नहीं है, हम सचमुच मानते हैं कि अलग-अलग नदियों में स्नान करने से जितना पुण्य होता है, उससे कहीं अधिक पुण्य संगम स्नान में है। किंतु, भारत आज जिस दौर से गुजर रहा है, उसमें असली संगम वे स्थान, वे सभाएँ तथा वे मंच हैं, जिन पर एक से अधिक भाषाएँ एकत्र होती हैं।
नदियों की विशेषता यह है कि वे अपनी धाराओं में अनेक जनपदों का सौरभ, अनेक जनपदों के आँसू और उल्लास लिए चलती हैं और उनका पारस्परिक मिलन वास्तव में नाना के आँसू और उमंग, भाव और विचार, आशाएँ और शंकाएँ समाहित होती हैं। अतः जहाँ भाषाओं का मिलन होता है, यहाँ वास्तव में विभिन्न जनपदों के हृदय ही मिलते हैं, उनके भावों और विचारों का ही मिलन होता है तथा भिन्नताओं में छिपी हुई एकता वहाँ कुछ अधिक प्रत्यक्ष हो उठती है। इस दृष्टि से भाषाओं के संगम आज सबसे बड़े तीर्थ हैं और इन तीर्थों में जो भी भारतवासी श्रद्धा से स्नान करता है, वह भारतीय एकता का सबसे बड़ा सिपाही और संत है।
हमारी भाषाएँ जितनी ही तेजी से जगेंगी, हमारे विभिन्न प्रदेशों का पारस्परिक ज्ञान उतना ही बढ़ता जाएगा। भारतीय कि वे केवल अपनी ही भाषा में प्रसिद्ध होकर न रह जाएँ, बल्कि भारत की अन्य भाषाओं में भी उनके नाम पहुँचे और उनकी कृतियों की चर्चा हो। भाषाओं के जागरण का आरंभ होते ही एक प्रकार का अखिल भारतीय मंच आप-से-आप प्रकट होने लगा है। आज प्रत्येक भाषा के भीतर यह जानने की इच्छा उत्पन्न हो गई है कि भारत की अन्य भाषाओं में क्या हो रहा है, उनमें कौन-कौन ऐसे लेखक है. है तथा कौन सी विचारधारा वहाँ प्रभुसत्ता प्राप्त कर रही है।
प्रश्न-
(क) लेखक ने आधुनिक संगम-स्थल किसको माना है और क्यों?
(ख) भाषा संगमों में भारत की किन विशेषताओं का संगम होता है?
(ग) दो नदियों का मिलन किसका प्रतीक है?
(घ) अलग-अलग प्रदेशों में आपसी ज्ञान किस प्रकार बढ़ सकता है?
(ड) स्वराज प्राप्ति के उपरांत विभिन्न भाषाओं के लेखकों में क्या जिज्ञासा उत्पन्न हुई?
(च) लेखक ने सबसे बड़ा सिपाही और संत किसको कहा है और क्यों?
(छ) निर्देशानुसार उत्तर दीजिए-
समानार्थी शब्द बताइए- सौरभ, आकांक्षा।
विपरीतार्थक शब्द बताइए - भिन्नता, प्रत्यक्ष।
(ज) उपर्युक्त गद्यांश का एक उपयुक्त शीर्षक दीजिए।
उत्तर-
(क) लेखक ने आधुनिक संगम स्थल उन सभाओं व मंचों को माना है, जहाँ पर एक से अधिक भाषाएँ एकत्रितहोती है। ये भा पाएँ विभिन्न जनपदों में बसने वाली जानता की भावनाएँ लेकर आती हैं।
(ख) किसी भी भाषा के भीतर उस भाषा को बोलने वाली जनता के आँसू और उमंग, भाव और विचार, आशाएँ और शंकाएँ समाहित होती हैं। फलतः जहाँ भाषाओं का संगम होता है. वहाँ विभिन्न भाषा-भाषी लोगों के भावों और विचारों का संगम होता है।
(ग) नदियाँ अपनी धाराओं के साथ मार्ग में आने वाले जनपदों के हर्ष एवं विषाद की कहानी लेकर बहती हैं। अत: उनका मिलन विभिन्न जनपदों के मिलन का ही प्रतीक है।
(घ) भाषाएँ ही लाखों वर्षों तक ज्ञान-विज्ञान को सुरक्षित रखती हैं तथा ज्ञान का प्रचार-प्रसार करती हैं। अत. हम कह सकते हैं कि अलग-अलग प्रदेशों में आपसी ज्ञान तभी बढ़ सकता है, जब भारतीय भाषाएँ जागेंगी।
(ड) स्वराज-प्राप्ति के उपरांत विभिन्न भाषाओं के लेखकों में यह जिज्ञासा उत्पन्न हुई कि भारत की अन्य भाषाओं में क्या हो रहा है। वे अन्य भाषाओं में भी अपनी प्रसिद्ध चाहने लगे तथा वे अन्य भाषाओं के कवियों एवं उनकी कृतियों के प्रति जिज्ञासु हो उठे।
(च) लेखक ने भाषाओं के संगम में गोता लगाने वाले श्रद्धालुओं को सबसे बड़ा सिपाही और संत कहा है। उसका मानना है किबभाषाओं का संगम, विभिन्न भाषा-भाषियों के भावों और विचारों का संगम होता है। वहीं विभिन्नता में छिपी एकता मूर्त रूप लेती है और दर्शन करने वाला कोई देशभक्त सिपाही हो सकता है या संत।
(छ)
समानार्थी शब्द खुशबू, इच्छा।
विपरीतार्थक शब्द-अभिन्नता, परोक्ष।
.
(ज) शीर्षक- भाषा संगम: एकता का सूत्र
10. निम्नलिखित गदयांशों तथा इन पर आधारित प्रश्नोत्तरों को ध्यानपूर्वक पढ़िए-
विद्वानों का यह कथन बहुत ठीक है कि विनम्रता के बिना स्वतंत्रता का कोई अर्थ नहीं। इस बात को सब लोग मानते हैं कि आत्मसंस्कार के लिए थोड़ी-बहुत मानसिक स्वतंत्रता परमावश्यक है-चाहे उस स्वतंत्रता में अभिमान और नम्रता दोनों का मेल हो और चाहे वह नाता ही से उत्पन्न हो। यह बात तो निश्चित है कि जो मनुष्य मर्यादापूर्वक जीवन व्यतीत करना चाहता है, उसके लिए वह गुण अनिवार्य है, जिससे आत्मनिर्भरता आती है और जिससे अपने पैरों के बल खड़ा होना आता है।
युवा को यह सदा स्मरण रखना चाहिए कि वह बहुत कम बातें जानता है, अपने ही आदर्श से वह बहुत नीचे है और उसकी आकांक्षाएँ । उसकी योग्यता से कहीं बढ़ी हुई हैं। उसे इस बात का ध्यान रखना चाहिए कि वह अपने बड़ों का सम्मान करे, छोटों और बराबर वालों से । कोमलता का व्यवहार करे, ये बातें आत्ममर्यादा के लिए आवश्यक हैं। यह सारा संसार, जो कुछ हम हैं और जो कुछ हमारा है-हमारा शरीर, हमारी आत्मा, हमारे भोग, हमारे घर और बाहर की दशा, हमारे बहुत से अवगुण और थोड़े गुण सब इसी बात की आवश्यकता प्रकट करते है कि हमें अपनी आत्मा को नम्र रखना चाहिए।
नम्रता से मेरा अभिप्राय दब्बूपन से नहीं है, जिसके कारण मनुष्य दूसरों का मुँह ताकता है, जिससे उसका संकल्प क्षीण और उसकी प्रज्ञा मंद हो जाती है, जिसके कारण वह आगे बढ़ने के समय भी पीछे रहता है और अवसर पड़ने पर घट पट किसी बात का निर्णय नहीं कर सकता। मनुष्य का बेड़ा उसके अपने ही हाथ में है, उसे वह चाहे जिधर ले जाए। सच्ची आत्मा वही है, जो प्रत्येक दशा में, प्रत्येक स्थिति के बीच अपनी राह आप निकालती है।
प्रश्न
(क) विनम्रता के बिना स्वतंत्रता का कोई अर्थ नहीं। इस कथन का आशय स्पष्ट कीजिए।
(ख) मर्यादापूर्वक जीने के लिए किन गुणों का होना अनिवार्य है और क्यों?
(ग) नम्रता और दब्बूपन में क्या उतर है?
(घ) दब्बूपन व्यक्ति के विकास में किस प्रकार बाधक होता है? स्पष्ट कीजिए।
(ड) आत्ममर्यादा के लिए कौन सी बातें आवश्यक हैं? इससे व्यक्ति को क्या लाभ होता है?
(च) आत्मा को नम्र रखने की आवश्यकता किनकी किसकी होती है?
(छ) उपर्युक्त गद्यांश का उपयुक्त शीर्षक दीजिए।
उत्तर -
(क) किसी भी व्यक्ति में स्वतंत्रता का भाव आते ही उसके मन में भहकार आ जाता है। इस अहकार के कारण वह अपनी मनुष्यता खो बैठता है। इससे व्यक्ति के आचरण में इतना बदलाव आ जाता है कि वह दूसरों को खुद से हीन समझने लगता है। ऐसे में स्वतंत्रता के साध विनम्रता का होना आवश्यक है, अन्यथा स्वतंत्रता अर्थहीन हो जाएगी।
(ख) मर्यादापूर्वक जीवन जीने के लिए मानसिक स्वतंत्रता आवश्यक है। इस स्वतंत्रता के साथ नम्रता का मेल होना आवश्यक है। इससे व्यक्ति में आत्मनिर्भरता आती है। आत्मनिर्भरता के कारण वह परमुल्लापेक्षी नहीं रहता। उसे अपने पैरों पर खड़ा होने की कला भी जाती है।
(ग) दब्बूपन में व्यक्ति का संकल्प व बुद्ध क्षीण होती है, वह त्वरित निर्णय नहीं ले सकता। वह अपने छोटे-छोटे काय तथा निर्णय लेने के लिए दूसरों पर निर्भर रहता है। इसके विपरीत, नम्रता में व्यक्ति स्वतंत्र होता है। वह नेतृत्व करने वाला होता है। वह अपने निर्णय खुद लेता है और दूसरे का मुंह देखने के लिए विवश नहीं होता।
(घ) दब्बूपन व्यक्ति के विकास में न्यासक होता है क्योंकि इसके कारण वह दूसरे का मुँह ताकता है। वह निर्णय नहीं ले पाता। वह अपने संकल्प पर स्थिर नहीं रह पाता। उसकी बुद्ध कमजोर हो जाती है। इससे मनुष्य आगे बढ़ने की बजाय पीछे रह जाता है।
(ड) आगमर्यादा के लिए अपने बड़ों का सम्मान करना, छोटों और बराबर वालों से कोमलता का व्यवहार करना आवश्यक है। इससे व्यक्ति को यह लाभ होता है कि वह आत्मसंस्कारित होता है, विनम्र और मर्यादित जीवन जीता है तथा उसे अपने पैरों पर खड़े होने में मदद मिलती है।
(च) आत्ममर्यादा के लिए आत्मा को नम्र रखने की आवश्यकता है। इस सारे संसार के लिए, जो कुछ हम हैं और जो कुछ हमारा है, आदि सभी इसी बात की आवश्यकता प्रकट करते हैं। अर्थात हमारा शरीर, हमारी आत्मा, हम जो कुछ खाते-पीते हैं, हमारे घर और बाहर की दशा हमारे बहुत से अवगुण यहाँ तक कि कुछ गुण भी आत्मा को नम्र रखने की आवश्यकता प्रकट करते हैं।
(छ) शीर्षक: विनम्रता का महत्व।

Hindi Vyakaran


Hindi Grammar Syllabus Class 11 CBSE

Here is the list of chapters for Class 11 Hindi Core NCERT Textbook.

NCERT Solutions for Class 11 Hindi Aroh (आरोह)

पाठ्यपुस्तक एवं पूरक पाठ्यपुस्तक
आरोह, भाग-1
(पाठ्यपुस्तक)

(अ) गद्य भाग

(ब) काव्य भाग

NCERT Solutions for Class 11 Hindi Vitan (वितान)

वितान, भाग-1
(पूरक पाठ्यपुस्तक)

CBSE Class 11 Hindi कार्यालयी हिंदी और रचनात्मक लेखन

CBSE Class 11 Hindi Unseen Passages अपठित बोध

CBSE Class 11 Hindi Grammar हिंदी व्याकरण

NCERT Solutions for Class 12 All Subjects NCERT Solutions for Class 10 All Subjects
NCERT Solutions for Class 11 All Subjects NCERT Solutions for Class 9 All Subjects

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