NCERT Solutions for Class 12 Hindi Aroh Chapter 18 श्रम-विभाजन और जाति-प्रथा

NCERT Solutions for Class 12 Hindi Aroh Chapter 18 श्रम-विभाजन और जाति-प्रथा 

NCERT Solutions for Class12 Hindi Aroh Chapter 18 श्रम-विभाजन और जाति-प्रथा

श्रम-विभाजन और जाति-प्रथा Class 12 Hindi Aroh NCERT Solutions

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Class 12 Hindi Aroh Chapter 18 CBSE NCERT Solutions

NCERT Solutions Class12 Hindi Aroh
Book: National Council of Educational Research and Training (NCERT)
Board: Central Board of Secondary Education (CBSE)
Class: 12th Class
Subject: Hindi Aroh
Chapter: 18
Chapters Name: श्रम-विभाजन और जाति-प्रथा
Medium: Hindi

श्रम-विभाजन और जाति-प्रथा Class 12 Hindi Aroh NCERT Books Solutions

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श्रम-विभाजन और जाति प्रथा


अभ्यास-प्रश्न


प्रश्न 1. जाति प्रथा को श्रम विभाजन का ही रूप न मानने के पीछे आंबेडकर ने क्या तर्क हैं?
लेखक जाति प्रथा और श्रम विभाजन का ही एक रूप इसलिए नहीं मानता क्योंकि यह विभाजन स्वाभाविक नहीं है। फिर यह मानव की रुचि पर भी आधारित नहीं है। सबसे बड़ी बात यह है कि इसमें व्यक्ति की क्षमता और योग्यता की उपेक्षा की जाती है। जन्म से पूर्व ही मनुष्य के लिए श्रम-विभाजन करना पूर्णतया अनुचित है। जाति प्रथा आदमी को आजीवन एक व्यवसाय से जोड़ देती है। यहाँ तक कि मनुष्य को भूखा मरना पड़ा तो भी वह अपना पेशा नहीं बदल सकता। यह स्थिति समाज के लिए भयावह है।
प्रश्न 2. जाति प्रथा भारतीय समाज में बेरोजगारी और भुखमरी का भी एक कारण कैसे बनती जा रही है? क्या यह स्थिति आज भी है?
जाति प्रथा किसी भी आदमी को अपनी रूचि के अनुसार पेशा चुनने की अनुमति नहीं देती। मनुष्य को केवल पैतृक पेशा ही अपनाना पड़ता है। भले ही वह दूसरे पेशे में पारंगत ही क्यों न हो। आज उद्योग धंधों की प्रक्रिया और तकनीक में लगातार विकास हो रहा है। जिससे कभी-कभी भयानक परिवर्तन हो जाता है। ऐसी स्थिति में मनुष्य को पेशा न बदलने दिया जाए तो वह बेरोजगारी और भुखमरी का शिकार हो जाएगा। आज भले ही समाज में जाति प्रथा है, लेकिन इसके बाद भी कोई मजबूरी नहीं है कि वह अपने पैतृक व्यवसाय को छोड़कर नए पेशे को न अपना सके। आज जो लोग पैतृक व्यवसाय से जुड़े हैं, वे अपनी इच्छा से जुड़े हुए हैं।
प्रश्न 3. लेखक के मत से 'दासता' की व्यापक परिभाषा क्या है?
लेखक का कहना है कि दासता केवल कानूनी पराधीनता को ही नहीं कह सकते, दासता की अन्य स्थिति यह भी है कि जिसके अनुसार कुछ लोगों को अन्य लोगों द्वारा निर्धारित किए गए व्यवहार और कर्तव्यों का पालन करने के लिए मजबूर होना पड़ता है। जाति प्रथा के सम्मान समाज में ऐसे लोगों का वर्ग भी है जिन्हें अपनी इच्छा के विरुद्ध किसी पेशे को अपनाना पड़ता है उदाहरण के लिए सफाई करने वाले कर्मचारी इसी प्रकार के कहे जा सकते हैं।
प्रश्न 4. शारीरिक वंश परंपरा और सामाजिक उत्तराधिकारी की दृष्टि से मनुष्य में असमानता संभावित रहने के बावजूद आंबेडकर 'समता' को एक व्यवहार्य सिद्धांत मानने का आग्रह क्यों करते हैं? इसके पीछे उनके क्या तर्क हैं?
डॉ आंबेडकर यह जानते हैं कि शारीरिक वंश परंपरा व सामाजिक उत्तराधिकारी की दृष्टि में से लोगों में आसमानता हो सकती है परंतु फिर भी वे समता के व्यवहार्य सिद्धांत को अपनाने की सलाह देते हैं। इस संदर्भ में लेखक ने यह तर्क दिया है कि यदि हमारा समाज अपने सदस्यों का अधिकतम प्रयोग प्राप्त करना चाहता है तो उसे समाज के सभी लोगों को आरंभ से ही समान अवसर और समान व्यवहार प्रदान करना होगा। समाज में प्रत्येक व्यक्ति को अपनी समता का विकास करने का उचित अवसर मिलना चाहिए।
प्रश्न 5. सही में आँबेडकर ने भावनात्मक समत्व की मानवीय दृष्टि के तहत जातिवाद का उन्मूलन चाहा है, जिसकी प्रतिष्ठा के लिए भौतिक स्थितियों व जीवन- सुविधाओं का तर्क दिया है। क्या आप इससे सहमत हैं?
इस बात को लेकर हम लेखक से पूरी तरह सहमत हैं। कारण यह है कि कुछ लोग उच्च वंश में उत्पन्न होने के फलस्वरूप उत्तम व्यवहार के अधिकारी बन जाते हैं। लेकिन हम गहराई से विचार करें तो पता चलेगा कि इसमें उनका अपना कोई योगदान नहीं है। मनुष्य के कार्य और उनके परिजनों के फलस्वरुप ही उसकी महानता का निर्णय होना चाहिए और मनुष्य के प्रयत्नों की सही जाँच तब हो सकती है, जब सभी को समान अवसर प्राप्त हो। उदाहरण के रूप में सरकारी विद्यालयों में पढ़ने वाले बच्चों का पब्लिक स्कूल में पढ़ने वाले बच्चों के साथ मुकाबला नहीं किया जा सकता। आठ जातिवाद का उन्मूलन किया जाए और सभी को समान सुविधाएँ प्रदान की जाए।
प्रश्न 6. आदर्श समाज के तीन तत्वों में से एक 'भ्रातृता' को रखकर लेखक ने अपने आदर्श समाज में स्त्रियों को भी सम्मिलित किया है अथवा नहीं? आप इस 'भ्रातृता' शब्द से कहाँ तक सहमत हैं? यदि नहीं तो आप क्या शब्द उचित समझेंगे।
आदर्श समाज में तीसरे तत्व 'भ्रातृता' पर विचार करते समय लेखक ने अलग से स्त्रियों का उल्लेख नहीं किया परंतु लेखक ने समाज की बात कही है और समाज से स्त्रियाँ अलग नहीं होती। बल्कि स्त्री और पुरुष दोनों से ही समाज बनता है। अतः आदर्श समाज में स्त्रियों को सम्मिलित किया गया है अथवा नहीं, यह सोचना ही व्यर्थ है। 'भ्रातृता' भले ही संस्कृतनिष्ट शब्द है परन्तु यह अधिक प्रचलित नहीं है। यदि इसके स्थान पर 'एकता' शब्द का प्रयोग होता तो वह उचित होता।

श्रम-विभाजन और जाति प्रथा


अति महत्त्वपूर्ण प्रश्न


प्रश्न 1.
आबेडकर की कल्पना का समाज कैसा होगा?
उत्तर -
आंबेडकर का आदर्श समाज स्वातंत्रता, समता व भाईचारे पर आधारित होगा। सभी को विकास के समान अवसर मिलेंगे तथा जातिगत भेदभाव का नामोनिशान नहीं होगा। सामाज में कार्य करने वाले को नाम्मान मिलेगा।
प्रश्न 2:
मनुष्य की क्षमता किन बातों पर निर्भर होती है?
उत्तर -
मनुष्य की क्षमता निम्नलिखित बातों पर निर्भर होती है -
1. जाति-प्रथा का श्रम-विभाजन अस्वाभाविक है।
2. शारीरिक वंश परंपरा के आधार पर।
3. सामाजिक उत्तराधिकार अर्थात सामाजिक परंपरा के रूप में माता-पिता की प्रतिक्षा, शिक्षा, जानार्गन आदि उपाधिों के लाभ पर।
4. मनुष्य के अपने प्रयत्न पर।
प्रश्न 3:
लेखक ने जाति-प्रथा की किन किन बुराइयों का वर्णन किया है।
लेखक ने जाति-प्रथा की निम्नलिखित बुराइयों का वर्णन किया है -
1. यह अमिक-विभाजन भी करती है।
2.मह श्रमिकों में ऊँच-नीच का स्तर तय करती है।
3. यह जन्म के आधार पर पेशा तय करती है।
4. यह मनुष्य को सदैव एक व्यवसाय में बांध देती है भले ही वह पेशा अनुपयुक्त व अपर्याप्त हो।
5.यह संकट के समय पेशा बदलने की अनुमति नहीं देती. चाहे व्यक्ति भूखा मर जाए।
6. जाति-प्रया के कारण धोपे गए व्यवसाप में व्यक्ति रुचि नहीं लेता।
प्रश्न 4:
लेखक की दृष्टि में लोकतंत्र क्या है?
उत्तर -
लेखक ती दृष्टि में लोकतंत्र केवल शासन की एक पद्धति नहीं है। वस्तुतः यह सामूहिक जीवनचर्या की एक रीति और समाज के समिलित अनुभवों के आदान-प्रदान का नाम है। इसमें यह आवश्यक है कि अपने साथियों के प्रति श्रद्धा व सम्मान का भाव हो।
प्रश्न 5:
आर्थिक विकास के लिए जाति-प्रथा कैसे बाधक है?
उत्तर -
भारत में जाति-प्रथा के कारण व्यक्ति को जन्म के आधार पर मिला पेवा ही अपनाना पड़ता है। उसे विकास के समान अवसर नहीं मिलते। जबरदस्ती थोपे गए पेशे में उनकी असचि हो जाती है और ये काम को टालने या कामचोरी करने लगते हैं। वे एकाग्रता से कार्य नहीं करते। इस प्रवृत्ति से आर्थिक हानि होती है और उद्योगों का विकास नहीं होता।
प्रश्न 6:
डॉ अबेडकर समता को कैसी वस्तु मानते हैं तथा क्यों?
उत्तर -
डॉ. आंबेडकर समता को कल्पना की वस्तु मानते हैं। उनका मानना है कि हर व्यक्ति समान नहीं होता। वह जन्म से ही । सामाजिक स्तर के हिसाब से तथा अपने प्रयत्नों के कारण भिन्न और असमान होता है। पूर्ण समता एक काल्पनिक स्थिति है, परंतु हर व्यक्ति को अपनी समता को विकसित करने के लिए समान अवसर मिलने चाहिए।
प्रश्न 7:
जाति और श्रम-विभाजन में बुनियादी अतर क्या है? श्रम-विभाजन और जाति-प्रथा के आधार पर उत्तर दीजिए।
उत्तर -
जाति मौर श्रम विभाजन में दुनियादी अंतर यह है कि-
1. जाति-विभाजन, श्रम-विभाजन के साथ-साथ श्रमिकों का भी विभाजन करती है।
2. सभ्य समाज में श्रम-विभाजन आवश्यक है परंतु श्रमिकों के वर्गों में विभाजन आवश्यक नहीं है।
3. जाति विभाजन में श्रग विभाजन पा पेशा चुनने की छूट नहीं होती जबकि श्रग विभाजन में ऐसी फूट हो सकती है।
4. जाति-प्रथा विपरीत परिस्थितियों में भी रोजगार बदलने का अवसर नहीं देती, जबकि अम-विभाजना में व्यक्ति ऐसा कर सकता है।

क) श्रम-विभाजन और जाति प्रथा


पठित गद्यांश


निम्नलिखित गदयांशों को पढ़कर पूछे गए प्रश्नों के उत्तर दीजिए -
प्रश्न 1:
यह विडंबना की ही बात है कि इस युग में भी जातिवाद के पोषकों की कमी नहीं है। इसके पोषक कई आधारों पर इसका समर्थन करते हैं। समर्थन का एक आधार यह कहा जाता है कि आधुनिक सभ्य समाज कार्य-कुशलता' के लिए श्रम-विभाजन को आवश्यक मानता है, और चूँकि जाति-प्रथा भी श्रम-विभाजन का ही दूसरा रूप है इसलिए इसमें कोई बुराई नहीं है। इस तर्क के संबंध में पहली बात तो यहीं आपत्तिजनक है कि जाति-प्रथा श्रम-विभाजन के साथ-साथ श्रमिक-विभाजन का भी रूप लिए हुए है।
प्रश्न:
1. लेखक किस विडंबना की बात कह रहा हैं?
2 जातिवाद के पोषक अपने समर्थन में क्या तक देते हैं?
3 लेखक क्या आपत्ति दर्ज कर रहा है।
4. लेखक किन पर व्यंग्य कर रहा हैं?
उत्तर -
1. लेखक कह रहा है कि आधुनिक युग में कुछ लोग जातिवाद के पोषक हैं। वे इसे बुराई नहीं मानते। इस प्रवृत्ति को वह विडंबना कहता है।
2 जातिवाद के पोषक अपने मत के समर्थन में कहते हैं कि आधुनिक सभ्य समाज में कार्य कुशलता के लिए श्रम विभाजन को आवश्यक माना गया है। जाति प्रथा भी श्रम विभाजन का दूसरा रूप है। अतः इसमें कोई बुराई नहीं है।
3. लेखक जातिवाद के पोषक के तर्क को सही नहीं मानता। वह कहता है कि जाति प्रथा केवल श्रम विभाजन ही नहीं करती। यह श्रमिक विभाजन का भी रूप लिए हुए है। श्रम-विभाजन और श्रमिक-विभाजन दोनों में अंतर है।
4 लेखक आधुनिक युग में जाति-प्रथा के समर्थकों पर व्यंग्य कर रहा है।
प्रश्न 2:
श्रम-विभाजन निश्चय ही सभ्य समाज की आवश्यकता है, परंतु किसी भी सभ्य समाज में श्रम-विभाजन की व्यवस्था श्रमिकों का विभिन्न वर्गों में अस्वाभाविक विभाजन नहीं करती। भारत की जाति-प्रथा की एक और विशेषता यह है कि यह श्रमिकों का अस्वाभाविक विभाजन ही नहीं करती बल्कि विभाजित विभिन्न वर्गों को एक-दूसरे की अपेक्षा ऊँच-नीच भी करार देती है, जो कि विश्व के किसी भी समाज में नहीं पाया जाता।
प्रश्न:
1. श्रम-विभाजन के विषय में लेखक क्या कहता हैं?
2 भारत की जाति - प्रथा की क्या विशेषता है?
3 श्रम-विभाजन व श्रमिक-विभाजन में क्या अंतर हैं?
4. विश्व के अन्य समाज में क्या नहीं पाया जाता?
उत्तर -
1. श्रम-विभाजन के विषय में लेखक कहता है कि आधुनिक समाज में श्रम-विभाजन आवश्यक है, परंतु कोई भी सभ्य समाज श्रमिकों का विभिन्न वर्गों में अस्वाभाविक विभाजन नहीं करता।
2. भारत की जाति-प्रथा श्रमिकों का अस्वाभाविक विभाजन तो करती ही है, साथ ही वह इन वर्गों को एक-दूसरे से ऊँचा-नीचा भी घोषित करती है।
3 ‘श्रम-विभाजन' का अर्थ है-अलग-अलग व्यवसायों का वर्गीकरण। 'श्रमिक-विभाजन' का अर्थ है-जन्म के आधार पर व्यक्ति का व्यवसाय व स्तर निश्चित कर देना।
4. विश्व के अन्य समाज में श्रमिकों के विभिन्न वर्गों को एक-दूसरे से नीचा नहीं दिखाया जाता।
प्रश्न 3:
जाति-प्रथा पेशे का दोषपूर्ण पूर्वनिर्धारण ही नहीं करती बल्कि मनुष्य को जीवन-भर के लिए एक पेशे में बाँध भी देती है। भले ही पेशा अनुपयुक्त या अपर्याप्त होने के कारण वह भूखों मर जाए। आधुनिक युग में यह स्थिति प्राय: आती है, क्योंकि उद्योग-धंधों की प्रक्रिया व तकनीक में निरंतर विकास और कभी-कभी अकस्मात परिवर्तन हो जाता है, जिसके कारण मनुष्य को अपना पेशा बदलने की आवश्यकता पड़ सकती है और यदि प्रतिकूल परिस्थितियों में भी मनुष्य को अपना पेशा बदलने की स्वतंत्रता न हो तो इसके लिए भूखों मरने के अलावा क्या चारा रह जाता है? हिंदू धर्म की जाति-प्रथा किसी भी व्यक्ति को ऐसा पेशा चुनने की अनुमति नहीं देती है, जो उसका पैतृक पेशा न हो, भले ही वह उसमें पारंगत हो। इस प्रकार पेशा-परिवर्तन की अनुमति न देकर जाति-प्रथा भारत में बेरोजगारी का एक प्रमुख व प्रत्यक्ष कारण बनी हुई है।
प्रश्न:
1, जाति-प्रथा किसका पूर्वनिर्धारण करती हैं? उसका क्या दुष्परिणाम होता है?
2. आधुनिक युग में पेशा बदलने की जरूरत क्यों पड़ती हैं?
3. पेशा बदलने की स्वतंत्रता न होने से क्या परिणाम होता हैं?
4. हिन्दू धर्म की क्या स्थिति है ?
उत्तर -
1. जाति-प्रथा पेशे का दोषपूर्ण पूर्वनिर्धारण करती है। वह मनुष्य को जीवन-भर के लिए एक पेशे से बाँध देती है। पेशा अनुपयुक्त या अपर्याप्त होने के कारण व्यक्ति को भूखा मरना पड़ सकता है।
2. आधुनिक युग में उद्योग-धंधों का स्वरूप बदलता रहता है। तकनीक के विकास से किसी भी व्यवसाय का रूप बदल जाता है। इस कारण व्यक्ति को अपना पेशा बदलना पड़ सकता है।
3. तकनीक व विकास-प्रक्रिया के कारण उद्योगों का स्वरूप बदल जाता है। इस कारण व्यक्ति को अपना व्यवसाय बदलना पड़ता है। यदि उसे अपना पैशा बदलने की स्वतंत्रता न हो तो उसे भूखा ही मरना पड़ेगा।
4. हिंदू धर्म में जाति-प्रथा दूषित है। वह किसी भी व्यक्ति को ऐसा पेशा चुनने की आजादी नहीं देती जो उसका पैतृक पेशा न हो, भले ही वह उसमें पारंगत हो।
(ख) मेरी कल्पना का आदर्श समाज
प्रश्न 4:
फिर मेरी दृष्टि में आदर्श समाज क्या है? ठीक है, यदि ऐसा पूछेगे, तो मेरा उत्तर होगा कि मेरा आदर्श समाज स्वतंत्रता, समता, भ्रातृता पर आधारित होगा? क्या यह ठीक नहीं है, भ्रातृता अर्थात भाईचारे में किसी को क्या आपत्ति हो सकती है? किसी भी आदर्श समाज में इतनी गतिशीलता होनी चाहिए जिससे कोई भी वांछित परिवर्तन समाज के एक छोर से दूसरे तक संचारित हो सके। ऐसे समाज के बहुविधि हितों में सबका भाग होना चाहिए तथा सबको उनकी रक्षा के प्रति सजग रहना चाहिए। सामाजिक जीवन में अबाध संपर्क के अनेक साधन व अवसर उपलब्ध रहने चाहिए। तात्पर्य यह कि दूध-पानी के मिश्रण की तरह भाईचारे का यही वास्तविक रूप है, और इसी का दूसरा नाम लोकतंत्र है।
प्रश्न:
1. लेखक ने किन विशेषताओं को आदर्श समाज की धुरी माना हैं और क्यों?
2. भ्रातृता के स्वरूप को स्पष्ट कीजिए।
3. 'अबाध संपर्क' से लेखक का क्या अभिप्राय है?
4. लोकतंत्र का वास्तविक स्वरूप किसे कहा गया हैं? स्पष्ट कीजिए।
उत्तर -
1. लेखक उस समाज को आदर्श मानता है जिसमें स्वतंत्रता, समानता व भाईचारा हो। उसमें इतनी गतिशीलता हो कि सभी लोग एकसाथ सभी परिवर्तनों को ग्रहण कर सकें। ऐसे समाज में सभी के सामूहिक हित होने चाहिएँ तथा सबको सबकी रक्षा के प्रति सजग रहना चाहिए।
2. 'भ्रातृता' का अर्थ है-भाईचारा। लेखक ऐसा भाईचारा चाहता है जिसमें बाधा न हो। सभी सामूहिक रूप से एक-दूसरे के हितों को समझे तथा एक-दूसरे की रक्षा करें।
3. 'अबाध संपर्क' का अर्थ है-बिना बाधा के संपर्क। इन संपर्को में साधन व अवसर सबको मिलने चाहिए।
4. लोकतंत्र का वास्तविक स्वरूप भाईचारा है। यह दूध-पानी के मिश्रण की तरह होता है। इसमें उदारता होती है।
प्रश्न 5:
जाति-प्रथा के पोषक जीवन, शारीरिक-सुरक्षा तथा संपत्ति के अधिकार की स्वतंत्रता को तो स्वीकार कर लेंगे, परंतु मनुष्य के सक्षम एवं प्रभावशाली प्रयोग की स्वतंत्रता देने के लिए जल्दी तैयार नहीं होंगे, क्योंकि इस प्रकार की स्वतंत्रता का अर्थ होगा अपना व्यवसाय चुनने की स्वतंत्रता किसी को नहीं है, तो उसका अर्थ उसे ‘दासता' में जकड़कर रखना होगा, क्योंकि 'दासता’ केवल कानूनी पराधीनता को नहीं कहा जा सकता। दासता' में वह स्थिति भी सम्मिलित है जिससे कुछ व्यक्तियों को दूसरे लोगों के द्वारा निर्धारित व्यवहार एवं कर्तव्यों का पालन करने के लिए विवश होना पड़ता है। यह स्थिति कानूनी पराधीनता न होने पर भी पाई जा सकती है। उदाहरणार्थ, जाति-प्रथा की तरह ऐसे वर्ग होना संभव है, जहाँ कुछ लोगों की अपनी इच्छा के विरुद्ध पेशे अपनाने पड़ते हैं।
प्रश्न:
1. लेखक के अनुसार जाति-प्रथा के समर्थक किन अधिकारों को देने के लिए राजी हो सकते हैं और किन्हें नहीं?
2. 'दासता के दो लक्षण स्पष्ट कीजिए।
3. व्यवसाय चुनने की स्वतंत्रता न दिए जाने पर लेखक ने क्या संभावना व्यक्त की हैं? स्पष्ट कीजिए।
4. 'जाति-प्रथा की तरह ऐसे वर्ण होना' से आबेडकर का क्या आशय हैं?
उत्तर -
1. लेखक के अनुसार, जाति-प्रथा के समर्थक जीवन, शारीरिक सुरक्षा व संपत्ति के अधिकार को देने के लिए राजी हो सकते हैं, किंतु मनुष्य के सक्षम व प्रभावशाली प्रयोग की स्वतंत्रता देने के लिए तैयार नहीं हैं।
2. 'दासता के दो लक्षण हैं-पहला लक्षण कानूनी है। दूसरा लक्षण वह है जिसमें कुछ व्यक्तियों को दूसरे लोगों द्वारा निर्धारित व्यवहार व कर्तव्यों का पालन करने के लिए विवश किया जाता है।
3. व्यवसाय चुनने की स्वतंत्रता न दिए जाने पर लेखक यह संभावना व्यक्त करता है कि समाज उन लोगों को दासता में जकड़कर रखना चाहता है।
4. इसका आशय यह है कि समाज में अनेक ऐसे वर्ग हैं जो अपनी इच्छा के विरुद्ध थोपे गए व्यवसाय करते हैं। वे चाहे कितने ही योग्य हों, उन्हें परंपरागत व्यवसाय करने पड़ते हैं।
प्रश्न 6:
व्यक्ति विशेष के दृष्टिकोण से, असमान प्रयत्न के कारण, असमान व्यवहार को अनुचित नहीं कहा जा सकता। साथ ही प्रत्येक व्यक्ति को अपनी क्षमता का विकास करने का पूरा प्रोत्साहन देना सर्वथा उचित है। परंतु यदि मनुष्य प्रथम दो बातों में असमान है तो क्या इस आधार पर उनके साथ भिन्न व्यवहार उचित हैं? उत्तम व्यवहार के हक की प्रतियोगिता में वे लोग निश्चय ही बाजी मार ले जाएँगे, जिन्हें उत्तम कुल, शिक्षा, पारिवारिक ख्याति, पैतृक संपदा तथा व्यावसायिक प्रतिष्ठा का लाभ प्राप्त है। इस प्रकार पूर्ण सुविधा संपन्नों को ही 'उत्तम व्यवहार का हकदार माना जाना वास्तव में निष्पक्ष निर्णय नहीं कहा जा सकता। क्योंकि यह सुविधा-संपन्नों के पक्ष में निर्णय देना होगा। अतः न्याय का तकाजा यह है कि जहाँ हम तीसरे (प्रयास की असमानता, जो मनुष्यों के अपने वश की बात है) आधार पर मनुष्यों के साथ असमान व्यवहार को उचित ठहराते हैं, वहाँ प्रथम दो आधारों (जो मनुष्य के अपने वश की बातें नहीं हैं, पर उनके साथ असमान व्यवहार नितांत अनुचित है। और हमें ऐसे व्यक्तियों के साथ यथासंभव समान व्यवहार करना चाहिए। दूसरे शब्दों में, समाज को यदि अपने सदस्यों से अधिकतम उपयोगिता प्राप्त करनी है, तो यह तो संभव है, जब समाज के सदस्यों को आरंभ से ही समान अवसर एवं समान व्यवहार उपलब्ध कराए जाएँ।
प्रश्नः
1. लेखक किस असमान व्यवहार को अनुचित नहीं मानता ?
2. लेखक किस बात को निष्पक्ष निर्णय नहीं मानता?
3. न्याय का तकाजा क्या हैं?
4. समाज अपने सदस्यों से अधिकतम उपयोगिता कैसे प्राप्त कर सकता हैं?
उत्तर -
1. लेखक उस असमान व्यवहार को अनुचित नहीं मानता जो व्यक्ति विशेष के दृष्टिकोण से असमान प्रयत्न के कारण किया जाता है।
2. लेखक कहता है कि उत्तम व्यवहार प्रतियोगिता में उच्च वर्ग बाजी मार जाता है क्योंकि उसे शिक्षा, पारिवारिक ख्याति, पैतृक संपदा व व्यावसायिक प्रतिष्ठा का लाभ प्राप्त है। ऐसे में उच्च वर्ग को उत्तम व्यवहार का हकदार माना जाना निष्पक्ष निर्णय नहीं है।
3. न्याय का तकाजा यह है कि व्यक्ति के साथ वंश परंपरा व सामाजिक उत्तराधिकार के आधार पर असमान व्यवहार न करके समान व्यवहार करना चाहिए।
4. समाज अपने सदस्यों से अधिकतम उपयोगिता तभी प्राप्त कर सकता है जब समाज के सदस्यों को आरंभ से ही समान अवसर व समान व्यवहार उपलब्ध कराए जाएँगे।

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